चीन और रूस के बीच संबंध बिगड़ते जा रहे हैं। यद्यपि बाहर से देखने में दोनों अभी भी अपने संबंधों को तरजीह दे रहे हैं लेकिन भारत और चीन के बीच चल रहे तनाव के दौरान मॉस्को का भारत के प्रति दोस्ताना रवैया चीन को पसंद नहीं आ रहा है। हमने पिछले महीनों में कई लेखों के माध्यम से बताया था कि कैसे दोनों देश कई मुद्दों पर एक दूसरे के खिलाफ हैं। भले ही दोनों शक्तियों का अमेरिका विरोधी रवैया उनको एकसाथ रखता है लेकिन भारत की ही तरह चीन का रूस के साथ भी सीमा विवाद है। अब हुआ ये कि, शुरू के महीनों में रूस भारत और चीन के विवाद में निष्पक्ष था लेकिन धीरे-धीरे बिना कोई आधिकारिक बयान दिए मॉस्को ने यह संदेश दे दिया कि वह इस विवाद में भारत के पक्ष में है।
SCMP की रिपोर्ट के अनुसार, गलवान में हुई हिंसक झड़प के बाद और लद्दाख में चल रहे स्टैंडऑफ़ के बीच रूस द्वारा भारत को हथियारों की आपूर्ति करना चीन के अतिराष्ट्रवादी तत्वों को कतई पसंद नहीं आ रहा है। इंटरनेट पर लिखा जा रहा है कि, जब आप अपने दुश्मन से लड़ रहे हों और आपका मित्र आपके दुश्मन को चाकू पकड़ा दे तो आपको कैसा लगेगा। बयानों से चीनियों की बौखलाहट साफ दिखती है।
वहीं रूस की बात करें तो वह भारत को चीन के विरोध के बाद भी बेझिझक हथियार मुहैया कर रहा है। रूसी प्रोफेसर और वैदेशिक मामलों के जानकार दिमित्री स्टेफनोविच ने बताया, “रूस की डिफेंस इंड्रस्ट्री स्वाभाविक रूप से भारतीय मार्केट में बने रहना चाहती है क्योंकि वहाँ फ्रांस और अमेरिका की ओर से प्रतिस्पर्धा दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।”
लेकिन बात केवल इतनी ही नहीं है। रूस भारत को तो हथियार मुहैया करवा रहा है लेकिन चीन को हथियारों की आपूर्ति नहीं कर रहा। इसका प्रमाण यह है कि, जहाँ मॉस्को ने भारत को मिग 29 और सुखोई 30 विमानों की जल्द डिलीवरी का वादा किया, वहीं चीन को मिलने वाली S 400 मिसाइलों की डिलेवरी ही रोक दी। चीन को मॉस्को पहले शोर्ट रेंज की S 400 दे चुका है लेकिन अभी लम्बी दूरी की मिसाइलों की डिलेवरी बाकी थी। अभी चीन के पास जो S 400 है उसका रडार सिस्टम 400 किलोमीटर तक टारगेट को ट्रैक कर सकता है लेकिन उसे मारने के लिए लम्बी दूरी की मिसाइल नहीं दाग सकता। भारत से विवाद के चलते चीन को इसकी सख्त जरुरत थी लेकिन रूस ने इसकी डिलीवरी को रोक दिया है।
दरअसल रूस भारत के साथ अपने रणनीतिक हितों को दूरगामी रूप से जोड़कर देखता है। भारत और रूस के संबंध बराबरी के स्तर पर हैं, जबकि चीन रूस संबंध में अब रूस अधीनस्थ की अवस्था में जाने लगा है। इसका कारण चीन पर रूस की आर्थिक निर्भरता है। रूस पहले से ही वैश्विक महाशक्ति का अपना वह ओहदा खो चुका है जो शीतयुद्ध के दौरान उसके पास था। ऐसे में वह नहीं चाहता कि चीन उसे एक स्थान और नीचे धकेल दे।
यही नहीं, चीन का विस्तारवादी रवैया मॉस्को को भी चुनौती दे रहा है। हाल ही में चीन की सरकार के मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स ने, व्लादिवोस्टोक पर चीन के पारंपरिक अधिकार की बात उठाकर, रूस के लिए असहज स्थिति पैदा कर दी थी। चीन की आक्रामक विदेश नीति रूस को भी स्वीकार्य नहीं है।
इसके विपरीत भारत रूस को आर्थिक विकास के नए अवसर प्रदान करवा सकता है। साथ ही भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जो अमेरिकी धड़े से मॉस्को के संबंध सुधार सकता है। अमेरिका के प्रतिबंधों के कारण रूस के हाथ से हथियारों का बाजार दूर होता जा रहा है। पर अब, हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने रूस को G7 में शामिल होने का निमंत्रण दिया था। यद्यपि रूस ने इसे अस्वीकार कर दिया था लेकिन फिर भी रूस के लिए अब भी अवसर खुला है और इसे खुला रखने में भारत की प्रमुख भूमिका होगी।
भारत की नीति है कि, मॉस्को को किसी भी प्रकार से हिन्द प्रशांत क्षेत्र की राजनीति में चीन के खिलाफ उतारा जाए। भारत इसमें सफल होता भी दिख रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने हाल ही में चेन्नई से व्लादिवोस्टोक तक समुद्री व्यापार के लिए समझौता किया था। जाहिर तौर पर यह सी-रूट दक्षिणी चीन सागर से होकर जाएगा। ऐसे में भविष्य में रूस भी इस क्षेत्र की राजनीति में सक्रिय होगा, इसकी पूरी संभावना है।
यदि ऐसा हुआ तो पहली बार मॉस्को और वाशिंगटन किसी रणनीतिक मुद्दे पर एक होंगे। सुनने में यह भले अजीब लगे, लेकिन कोरोना के बाद वैश्विक व्यवस्था में तेज़ी से बदलाव आ रहे हैं। इस बीच केवल एक ही बात तय है कि, चीन और अमेरिका एक मंच पर जल्द साथ नहीं आने वाले। मॉस्को अपने लिए इस व्यवस्था में उचित स्थान की तलाश में है और भारत इसमें उसकी मदद कर सकता है।