जैसे-जैसे अमेरिका अफगानिस्तान से अपने सैनिक निकालने की बात कर रहा है, वैसे-वैसे अफगानिस्तान में चीन की रूचि बढ़ती ही जा रही है। चीन ना सिर्फ अफगानिस्तान की नागरिक सरकार से बातचीत बढ़ा रहा है, बल्कि वह तालिबान के साथ भी सहयोग करने की बात कर रहा है। हाल ही में चीन ने नेपाल, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के विदेश मंत्रियों के साथ बैठक की थी। तो वहीं, पाकिस्तान के रास्ते, चीन तालिबान के साथ भी तालमेल को बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। चीन के इरादे साफ हैं- अमेरिका के निकलते ही वह अफगानिस्तान और उसके 3 ट्रिलियन डॉलर के संसाधनों पर अपना कब्ज़ा करना चाहता है।
अमेरिका के रहते हुए चीन के लिए ऐसा करना बहुत मुश्किल था। चीन ने पहले भी इस देश में निवेश किया है, लेकिन उसे कभी कोई खास फायदा नहीं हो पाया। तालिबान-अमेरिका के टकराव के कारण कभी अफगानिस्तान में चीनी निवेश के लिए माहौल भी नहीं बन पाया। लेकिन अमेरिका के निकलने के बाद अफगानिस्तान में चीन के लिए संभावनाओं का दरवाजा खुलना तय है। चीन अफगानिस्तान में एक नयी योजना पर काम रहा है और वह है तालिबान और सिविलियन हुकूमत, दोनों के साथ तालमेल बढ़ाना. अमेरिका की तरह बीजिंग अपने सैनिकों को अफगानी ज़मीन पर उतारने का कभी सोचेगा भी नहीं।
हालांकि, चीन अफगानिस्तान के सैनिकों के लिए एक नए military base का निर्माण कर रहा है, जो दर्शाता है कि, चीन अफगानिस्तान के साथ सैन्य सहयोग बढ़ाने की दिशा में भी काम कर रहा है। Fergana News के मुताबिक, अफगानिस्तान के Badakhshan प्रांत में, चीन अफ़गान सेना के लिए एक military base का निर्माण कर रहा है।
बड़ा सवाल यह है कि, आखिर Afghanistan से चीन को चाहिए क्या? पहला तो यह कि, वह उइगर मुसलमानों के मामले का निपटारा करना चाहता है। चीन को खतरा है कि, उइगर मुसलमानों को अफगानिस्तान के इस्लामिक कट्टरपंथी और उग्रवादी संगठनों का साथ मिल सकता है, जो चीन के लिए मुश्किलें खड़ा कर सकते हैं। ऐसे में, चीन नहीं चाहता कि उइगर मुसलमान उग्रवादियों के साथ मिलकर शिंजियांग में चीनी प्रशासन का जीना हराम कर दें।
पूर्व में चीन के उइगर मुसलमानों और तालिबान के बीच सहयोग देखने को मिल चुका है। अफगानिस्तान और चीन करीब 76 किमी लंबी सीमा साझा करते हैं और चीन को डर है कि, उग्रवादी इस बॉर्डर को पार कर चीन के पश्चिमी इलाकों को अस्थिर कर सकते हैं। इसीलिए वह पाकिस्तान का भी इस्तेमाल करके तालिबान को अपनी मुट्ठी में करने की कोशिश कर रहा है। चीन को पता है कि, वह सिर्फ सिविलियन हुकूमत का समर्थन कर अफ़गानिस्तान पर प्रभुत्व नहीं बढ़ा सकता।
अफगानिस्तान से चीन को दूसरा बड़ा फायदा यह हो सकता है कि, चीन आसानी से अफगानिस्तान के 3 ट्रिलियन डॉलर के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने का रास्ता खोल सकता है। दरअसल, अमेरिका के भूगर्भ वैज्ञानिकों ने साल 2010 में करीब 3 ट्रिलियन डॉलर मूल्य के खनिज के भंडारों का पता लगाया था। भूगर्भ वैज्ञानिकों के अनुसार अफगानिस्तान में लोहे, तांबे, कोबाल्ट, सोने और लीथियम के बड़े भंडार मौजूद हैं। तब अमेरिकी सैन्य मुख्यालय पेंटागन के एक पत्र में कहा गया था कि, खनिजों भंडारों का उपयोग कर Afghanistan लीथियम उत्पादन के मामले में “सऊदी अरब” बन सकता है। यूनाइटेड स्टेट्स जियोलॉजिकल सर्वे (USGS) ने खनिजों के अपने व्यापक वैज्ञानिक अनुसंधान के माध्यम से निष्कर्ष निकाला है कि Afghanistan में 60 मिलियन मीट्रिक टन तांबा, 2.2 बिलियन टन लौह अयस्क, 1.4 मिलियन टन rare earth elements (REE) जैसे लैंटम तथा सेरियम, नियोडिमियम के अलावा एल्युमिनियम, सोना, चांदी, जस्ता, पारा और लिथियम का भंडार मिल सकता है।
1980 से लेकर अब तक अफगानिस्तान युद्ध की जकड़ में ही रहा है। पहले सोवियत सेना के हमले और फिर अमेरिकी हमले ने इस देश को बर्बादी के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया। लाखों लोगों ने जानें गंवाई और आज भी लाखों अफ़गान पाकिस्तान और ईरान में रहने को मजबूर हैं। हालांकि, इस देश का भविष्य भी अंधकार से भरा ही दिखाई दे रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि अब चीन इस देश में लूट मचाने की तैयारी में है। अफगानिस्तान को सिर्फ भारत जैसा सहयोगी ही अंधकार से बाहर निकाल सकता है। अफगानिस्तान को बड़ी ही सावधानी से अपना अगला कदम उठाना चाहिए।