चीन, तुर्की, ईरान एक तरफ; UAE, सऊदी और इजराइल दूसरी तरफ- West Asia में भीषण भिड़ंत की तैयारी पूरी

UAE-इजराइल के शांति समझौते के बाद West Asia की शांति खतरे में!

इजरायल

(pc -news vibes of india )

इजराइल और UAE ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं जो मध्य एशिया की पूरी राजनीति पर व्यापक प्रभाव डालेगा। UAE ने इजराइल के साथ अपने रिश्तों को सामान्य करने का फैसला किया है, जो बताता है कि मध्य एशिया के कई ऐसे देश हैं जो अपनी वर्षों पुरानी यहूदी विरोधी नीति से हटकर वास्तविकता को स्वीकार कर रहे हैं। वास्तविकता यह है कि इजराइल एक मजबूत ताकत है, जिसे अब कभी मिटाया नहीं जा सकता। ऐसे में इजरायल के साथ सहयोग करना क्षेत्र की शांति और समृद्धि के लिए आवश्यक है।

इजराइल एक सच्चाई है और इसे मुस्लिम जगत को स्वीकार ही करना होगा।  इसी बात को समझते हुए UAE के मंत्री ने बयान दिया कि ”इस यथार्थ को स्वीकार करना बहुत जरुरी है।” आज मुस्लिम जगत को ना चाहते हुए भी इजरायल अपने कब्जे वाले वेस्ट बैंक के इलाके अपने देश में मिला रहा है और अरब देश कुछ नहीं कर पा रहे, क्योंकि वे जानते हैं कि आज का इजराइल 1948 वाले इजराइल से भी मजबूत है। UAE के साथ समझौते के बाद इजराइल ने अपने इस कार्य को अभी स्थगित कर दिया है। यह UAE की सफलता है, इसी कारण UAE के मंत्री ने इसे “अमीरात द्वारा अग्रेषित एक यथार्थवादी दृष्टिकोण” कहा है।

देखा जाए तो आज विश्व की प्रमुख मुस्लिम ताकतें दो भागों में बँटी हुई हैं। एक वो, जो जानती हैं कि इस्लामी मान्यताएं ही राजनीति को नहीं चलाती, और वास्तविकता में जीती हैं। दूसरे, वे जो आज भी इतिहास और इस्लामी मान्यताओं के अनुरूप चलना चाहते हैं, और भ्रम का शिकार हैं।

इसका सबसे अच्छा उदहारण पाकिस्तान है, जो आज भी 370  के मुद्दे पर मुस्लिम जगत से आस लगाए हुए है, जबकि सऊदी अरब जैसे प्रमुख देश ने ही उसे सहयोग नहीं दिया है। सऊदी जानता है की आर्थिक नीतियां मुस्लिम ब्रदरहुड के सिद्धांत से निर्धारित नहीं होती और उसे आर्थिक विकास के लिए भारत की जरुरत है। इसका दूसरा उदहारण है तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगान, जो खुद को खलीफा की तरह स्थापित करना चाहते हैं। जबकि सच्चाई इससे कोसो दूर है और प्रमुख मुस्लिम शक्तियां ही इसे स्वीकार नहीं करती।

मुस्लिम जगत का ये अलगाव UAE के कदम के बाद साफ़ हो गया है। मिस्र के राष्ट्रपति ने कहा कि “फिलिस्तीनी भूमि पर इजराइली विनाश को रोकने और क्षेत्र में शांति स्थापित करने वाले अमीरात, अमेरिका और इजराइल के इस संयुक्त बयान का स्वागत करता हूँ। इसी तरह के सकारात्मक बयान जॉर्डन, बहरीन और ओमान ने भी जारी किये हैं। वहीं ईरान और तुर्की ने इसकी आलोचना की है।  ईरान ने इसे फिलिस्तीन के साथ धोखा करार दिया हैं, जिसे मुस्लिम जगत कभी माफ़ नहीं करेगा। तुर्की ने भी ईरान के समान ही रुख दिखाया है।

वास्तव में मुस्लिम जगत में नीतियों के निर्धारण को लेकर जो वैचारिक टकराव आया है, उसके कारण अब मध्य एशिया की राजनीति में दो धड़े साफ़ बनते दिख रहे हैं। एक धड़ा है तुर्की समर्थक देशों का जिसमें उसके साथ ईरान और पाकिस्तान हैं, जबकि दूसरा धड़ा है सऊदी अरब, इजराइल, UAE, ओमान, बहरीन और जॉर्डन जैसे देशों का।

इस बंटवारे का फायदा उठाने के लिए चीन ने तुर्की-ईरान गुट को समर्थन दिया है। चीन अमेरिका के हटने से पैदा हुई रिक्तता का लाभ लेना चाहता है। यही रणनीति एर्डोगन की भी है कि अमेरिका के हटने के बाद, जो नया शक्ति संतुलन बने उसमे वह मुस्लिम जगत का नेता बन जाए। तुर्की के राष्ट्रपति एर्डोगान किसी भी तरह सऊदी के प्रिंस को हटाकर खुद को स्थापित करना चाहते हैं। वहीं ईरान का उद्देश्य है कि अधिक से अधिक समर्थन और सहानुभूति जुटाया जाये। इसका सबसे अच्छा तरीका मुस्लिमों से जुड़े भावनात्मक मुद्दों को उठाना है।

वहीं अमेरिका, जिसका उद्देश्य अब क्षेत्रीय राजनीति में प्रत्यक्ष भागीदारी न करने की है, वो सऊदी, इजराइल, UAE वाले धड़े के साथ है जिससे क्षेत्र में शांति स्थापित हो सके। भारत के लिए भी चुनाव अधिक मुश्किल नहीं है क्योंकि भारत का इजराइल और अमेरिका के समर्थन में रहना तय है। वैसे भी पाकिस्तान और चीन ने ईरान का समर्थन करके इस फैसले को बिलकुल आसान कर दिया है। ये गुटबंदी क्षेत्रीय राजनीति में स्थिरता लाएगी या नहीं, यह भविष्य में पता चलेगा परंतु वर्तमान में यह राजनीति कई नए परिवर्तनों का उद्घोषक है।

 

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