कोरोना के फैलाव के बाद जिस तरह से चीन ने इस मामले को छुपाने का प्रयास किया और अपने पड़ोसियों के साथ आक्रामकता का व्यवहार किया,उसके कारण चीन की छवि और उसकी अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान हुआ है। टेलीकम्युनीकेशन के क्षेत्र में लगातार हो रहे नुकसान के कारण चीन के विदेश मंत्री ने अब फैसला किया है कि, वो यूरोप की यात्रा करेंगे। इस यात्रा का उद्देश्य है, ‘डैमेज कंट्रोल’ करना। अपनी यात्रा के दौरान वो फ़्रांस के राष्ट्रपति एमानुएल मैक्रोन से मंगलवार को मिलेंगे। इसके बाद वे नीदरलैंड, जर्मनी, नॉर्वे और इटली की भी यात्रा करेंगे.
बता दें कि यूरोप को ही कोरोना के चलते शुरू में सबसे ज़्यादा आर्थिक नुुुकसान उठाना पड़ा था। इसके बाद वहां के आम लोगों में चीन के खिलाफ काफी गुस्सा था। यही नहीं, चीन ने हांगकांग में नया सुरक्षा कानून पारित कर वहां की स्वायत्तता का भी हनन किया है। इसका नतीजा यह हुआ कि, अमेरिका के नेतृत्व में अब पश्चिमी देशों ने चीन के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है।
इतने देशों के साझे विरोध के कारण चीन को भारी आर्थिक नुकसान झेलना पड़ रहा है। चीन में न सिर्फ बड़ी संख्या में विनिर्माण इकाइयां बंद हो रही हैं, बल्कि चीन में निर्मित सामानों को पूरी दुनिया के लोगों ने बॉयकॉट करना शुरू कर दिया है। इसमें भी विशेष रूप से चीनी टेक कंपनी हुआवे को काफी नुकसान उठाना पड़ा है।
चीन ने कहा है कि, उनका उद्देश्य यूरोप के साथ मिलकर वैश्विक अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करना है और बहुध्रुवीय विश्व की रक्षा करना है। दरअसल, शीतयुद्ध के बाद दुनिया में सोवियत रूस और अमेरिका दो ध्रुव थे जिनके इर्दगिर्द दुनिया की ताकतें एकजुट थीं, इसे द्विध्रुवीय व्यवस्था कहा गया था। सोवियत संघ के विघटन के बाद दुनिया में एक ही महाशक्ति बची और अमेरिका वैश्विक व्यवस्था के केंद्र में आ गया, इसे एकध्रुवीय व्यवस्था कहा गया।
लेकिन 21वीं शताब्दी में चीन ने आर्थिक शक्ति हासिल कर ली, साथ ही यूरोप भी यूरोपीय यूनियन के झंडे तले एकजुट हो गया और एक नई शक्ति के रूप में उभरा। वहीं रूस की अर्थव्यवस्था में भी सुधार हुआ जबकि अमेरिका की शक्ति कम हुई। इसके चलते विश्व में बहुध्रुवीय व्यवस्था लागू हो गई जहां शक्ति का कोई एक या दो केंद्र नहीं है।
महत्वपूर्ण यह है कि, अमेरिका के तमाम दबावों के बाद भी यूरोप चीन के खिलाफ मुखर नहीं हुआ है। यूरोप इस मुद्दे पर दो भागों में बटा हुआ है। फ्रांस ही EU का एकमात्र सदस्य देश है जो चीन के विरुद्ध सख्त रुख अपनाए हुए है। भारत और चीन के बीच लद्दाख में जारी तनाव के दौरान भी फ्रांस ने भारत को सैन्य सहायता देने का भरोसा दिया था। जहां फ्रांस ने चीन के खिलाफ सख्त रवैया अपनाया है, तो वहीं जर्मनी अभी भी उसके प्रति नरम है। यूरोपीय यूनियन ने अभी तक चीन के खिलाफ कोई सख्त टिप्पणी भी नहीं जारी की है।
इसका कारण यह है कि, यूरोपीय शक्तियों में से विशेष रूप से जर्मनी यह नहीं चाहता कि वह अमेरिका और चीन के बीच किसी शीतयुद्ध जैसे हालत में फंसे। यदि ऐसा हुआ तो जर्मनी, जो वर्षों बाद यूरोप का नेतृत्व करने की स्थिति में आया है, उसे पुनः किसी बड़ी शक्ति की अधीनता स्वीकार करनी होगी। साथी ही यूरोप के चीन के साथ व्यापारिक सम्बन्ध बहुत मजबूत हैं। दक्षिणी चीन सागर में चीन की आक्रामकता यूरोप के लिए कोई बड़ी मुसीबत नहीं है, क्योंकि ये क्षेत्र यूरोप की सीमाओं से बहुत दूर हैं और वहां से यूरोप का ज़्यादा व्यापार भी नहीं होता।
दरअसल, चीन यूरोप की सोच को समझता है। उसे पता है कि ब्रिटेन या हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की शक्तियों की तरह यूरोप अभी उसके विरुद्ध उतना सक्रिय नहीं हुआ है। इतना ही नहीं, चीन के बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट के प्रति भी यूरोप ने खासी रुचि दिखाई थी। इटली पहले ही इस प्रोजेक्ट का हिस्सा रहा है और जर्मनी में भी कोरोना के फैलाव से पहले इसके लिए धीरे-धीरे सकारात्मक रुख बन रहा था। इसलिए, चीन को उम्मीद है कि, उसके प्रति बढ़ते आक्रोश के बाद भी वह यूरोप के साथ पहले की तरह आर्थिक संबंध स्थापित कर लेगा।