भारतीय प्रधानमंत्री मोदी और जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे की व्यक्तिगत मित्रता दोनों देशों के आर्थिक संबंधों को मजबूत बनाने में कामयाब नहीं हो पा रही है। वैसे तो भारत और जापान चीन के खिलाफ एकजुट हैं और जल्द ही दोनों देशों के बीच कोई सामरिक समझौते होने की गुंजाइश भी है। लेकिन फिर भी दोस्ती की यह गर्माहट, आर्थिक रिश्तों में नहीं दिख रही। दरअसल, कोविड 19 के फैलाव के बाद जापान की जो कंपनियां चीन छोड़ रही हैं वो भारत आने के बजाए वियतनाम जा रही हैं। इसका असली कारण यह है कि भारत के कई राज्यों में जापान की कंपनियों के लगातार दुर्व्यवहार होता रहा है। उनके निजी अनुभव भारत की राज्य सरकारों, विशेष रूप से महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश जैसे गैर-भाजपाई राज्यों के साथ इतने बुरे रहे हैं कि उन्हें भारत के बजाए वियतनाम बेहतर लगा।
बात यदि महाराष्ट्र की करें, तो वहां मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी बुलेट ट्रेन परियोजना की कुल लागत का 80 प्रतिशत धन जापान दे रहा है और वो भी नाममात्र की ब्याजदर पर 50 वर्षों के लिए। इस परियोजना का शुभारम्भ प्रधानमंत्री मोदी और जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने मिलकर किया था। योजना के अनुसार, यह बुलेट ट्रेन मुंबई से अहमदाबाद के बीच 508 किलोमीटर की दूरी तय करेगी जिसमें से 21 किलोमीटर का एक अंडरवाटर टनल भी शामिल है। परियोजना की कुल लागत 1 लाख 10 हजार करोड़ है, जिसमें से महाराष्ट्र सरकार को 5 हजार 6 सौ करोड़ देने हैं। यह रकम इस पूरी परियोजना का मात्र 6 प्रतिशत ही है लेकिन महाराष्ट्र सरकार ने इसे देने से मना कर दिया है।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे का कहना है कि, “विकास परियोजनाओं की प्राथमिकता राज्य के आर्थिक हालात देखने के बाद ही निर्धारित होनी चाहिए। कोई हमें कम ब्याजदर पर लोन दे रहा है, सिर्फ इसलिए हमें खुद पर दबाव लेने की आवश्यकता नहीं है। हम इसके लिए किसानों की भूमि लेना शुरू नहीं करेंगे। बुलेट ट्रेन हमारे लिए संभव नहीं है।” अब सवाल उठता है कि भारत की आर्थिक राजधानी कही जाने वाली मुंबई और देश के सबसे समृद्ध राज्यों में से एक महाराष्ट्र की सरकार के पास भी यदि किसी परियोजना के लिए पैसे नहीं हैं, तो किस राज्य के पास होंगे? उससे भी बड़ा सवाल यह है कि जब शिवसेना महाराष्ट्र में भाजपा के साथ शासन में थी तो उसने इस परियोजना का विरोध नहीं किया था, लेकिन अब जब परियोजना के लिए 60 प्रतिशत से अधिक भूमि का अधिग्रहण हो चुका है तब उद्धव ठाकरे को इस योजना में रोड़ा लगाने का भूत सवार है।
ऐसा ही हाल आंध्र प्रदेश सरकार का भी है। आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की सरकार के दौरान जापान के साथ स्वच्छ ऊर्जा के लिए ‘purchase power agreements (PPAs)‘ पर हस्ताक्षर हुए थे। लेकिन आंध्र में भी सरकार बदलने के बाद यह परियोजना ठंडे बस्ते में पड़ गई है। यह मामला कोर्ट तक पहुंच गया था। यहाँ तक कि जापानी राजदूत को मजबूर हो कर आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी से उनके निर्णय पर पुनर्विचार का अनुरोध तक करना पड़ा था।
ऐसा ही एक मामला तब हुआ था जब आसम में CAA विरोधी आंदोलन के वजह से जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे को अपना असम दौरा रद्द करना पड़ा था। इस दौरे से जापानी सरकार द्वारा पूर्वोत्तर भारत को हजारों करोड़ रूपए के निवेश मिलने की संभावना थी, लेकिन यह हो नहीं पाया। यदि जापान इस क्षेत्र में निवेश करता तो यह न सिर्फ आर्थिक, बल्कि सामरिक दृष्टि से भी बेहद लाभकारी होता। चीन इस क्षेत्र में अरुणांचल पर अपना दावा ठोकता है और यदि जापान जो QUAD का एक सदस्य है , इस क्षेत्र में निवेश करता तो संभावना थी कि QUAD के अन्य सदस्य यानी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया को भी इस हेतु प्रेरित किया जा सकता था।
अतः साफ़ है कि जापानी निवेशकों का अनुभव भारत में बहुत ही खराब रहा है। भारत में सरकार बदलने पर आर्थिक विकास का नजरिया ही बदल जाता है। केंद्र सरकार की योजनाओं को बिना विचार किए, स्थगित करना एक गलत उदहारण पेश करता है जिसका खामियाजा देश को भुगतना पड़ रहा है। उम्मीद है कि, भारत की विपक्षी पार्टियां इस बात को समझेंगी, नहीं तो भारत ऐसे ही मौकों को गंवाता रहेगा।