चीन की दुश्मनी दुनिया में दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। ऐसे में राष्ट्रपति शी जिनपिंग की पहली चिंता यही है कि वह अपने घरेलू राजनीति में ऐसे मुद्दों को जल्द से जल्द सुलझाएं जो चीन की आंतरिक अस्थिरता का कारण बन सकते हैं। उन्हें चिंता है कि यदि ऐसा करने में विलंब हुआ तो उनके प्रतिद्वंदी जैसे अमेरिका और भारत चीन की कमजोरीयों का फायदा उठा सकते हैं।
ऐसे कई ज्वलनशील आंतरिक मुद्दों में से एक मुद्दा तिब्बत का भी है। तिब्बत पर चीन ने 1951 में आक्रमण कर कब्जा कर लिया था। तब पश्चिमी देशों ने चीन के इस आक्रामक नीति का खुलकर विरोध नहीं किया था। किंतु अब जिनपिंग को इस बात की चिंता है कि हांगकांग की तरह तिब्बत मुद्दे को भी पश्चिमी देश चीन पर हमले के लिए उपयोग कर सकते हैं।
SCMP की रिपोर्ट के अनुसार चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने तिब्बती जनता को अलगाववाद के खिलाफ लड़ाई के बारे में शिक्षित करने के लिए तिब्बत पर कम्युनिस्ट राष्ट्र की सर्वोच्च स्तरीय बैठक “स्थिरता बनाए रखने में एक अभेद्य किला बनाने” के लिए कहा है।
जिनपिंग तिब्बत की स्थिरता के लिए इतने जागरूक इसलिए हो गए हैं क्योंकि हाल फिलाल में भारत तथा अमेरिका ने तिब्बत मुद्दे पर अधिक सख्त रुख अपनाने के संकेत दिए हैं।
जिनपिंग ने यह बयान चीन में आयोजित होने वाली तिब्बत मामलों से जुड़ी सातवीं संगोष्ठी के अवसर पर दिया है। यह संगोष्ठी 2015 में पहली बार आयोजित की गई थी, तथा इसमें प्रत्येक वर्ष चीन की सेना के उच्च अधिकारियों के साथ ही अन्य प्रशासनिक अधिकारियों, न्यायाधीशों की भी उपस्थिति रहती है।
कुछ ही दिनों पहले यह खबर आई थी कि चीन के विदेश मंत्री यांग ली भी तिब्बत की यात्रा पर गए थे। यह सभी खबरें साफ बताती हैं कि चीन भारत और अमेरिका के रवैया से घबराया हुआ है।
बता दें कि भारत के धर्मशाला में तिब्बत से आए शरणार्थियों द्वारा एक निष्कासित सरकार चलाई जाती है। यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (यूएसएआईडी) ने केंद्रीय तिब्बती प्रशासन को एक मिलियन डॉलर का अनुदान भी दिया था ताकि तिब्बती लोगों के वित्तीय और सांस्कृतिक पहचान को मजबूत किया जा सके। यह आर्थिक मदद भले ही छोटी थी लेकिन यह साफ संदेश देती है कि अमेरिका आने वाले समय में भारत के साथ मिलकर तिब्बत के मुद्दे को जरूर उठाएगा। यही नहीं अमेरिका ने ‘रीसिप्रोकल एक्सेस टू तिब्बत’ एक्ट के तहत चीनी अधिकारियों के एक समूह के वीजा पर प्रतिबंध लगा दिया है। इसके साथ ही अमेरिका ने ये भी स्पष्ट किया कि अमेरिका चीन और विदेशों में स्थायी आर्थिक विकास, पर्यावरण संरक्षण और तिब्बती समुदायों की मानवीय स्थितियों को आगे बढ़ाने के लिए काम करना जारी रखेगा। अमेरिकी सांसद स्कॉट पैरी ने तिब्बत से संबंधित एक बिल को अमेरिका की संसद में पेश किया था जो यह कहता है कि “अमेरिका की सरकार तिब्बत को, पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना से अलग, एक स्वतंत्र देश के रूप में स्वीकार करे”।
भारत और अमेरिका के अलावा दुनियाभर के देशों से भी दलाई लामा को समर्थन मिल रहा है। पिछले साल अमेरिकी राजदूत सैमुअल डी. ब्राउनबैक ने दलाई लामा के साथ मैक्लोडगंज स्थित उनके आवास में मुलाकात की थी। इस दौरान अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल भी उनके साथ था तब ब्राउनबैक के कहा था कि उनकी यात्रा का मुख्य उद्देश्य चीन व दुनिया के अन्य देशों को यह संदेश देना है कि अमेरिका सरकार तिब्बती लोगों, दलाई लामा और दलाई के उत्तराधिकारी को चुनने के अधिकार का पूरी तरह समर्थन करती है।हाल ही में, अपने जन्मदिन पर दलाई लामा को चीन के दूसरे कट्टर-दुश्मन, ताइवान सरकार से भी मुखर समर्थन मिला। ताइवान के समर्थकों को अपने जन्मदिन के संदेश में, दलाई लामा ने कहा था, ‘मैं एक बार फिर ताइवान आना चाहता हूं। अगर राजनीतिक परिदृश्य बदलता है तो संभव है कि मैं वहां आकर आप सबसे मिलूं। मैं ऐसी उम्मीद करता हूं। हालात चाहे जैसे भी हों, मैं आध्यात्मिक रूप से हमेशा आपसे जुड़ा रहूंगा।’ ताइवान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा था कि नोबेल विजेता दलाई लामा की यात्रा के संबंध में कोई आवेदन मिलता है तो सरकार नियमानुसार फैसला लेगी। दोनों पक्षों के सुविधानुसार जब भी दलाई लामा आएंगे, ताइवान उनका स्वागत करेगा।
यही नहीं तिब्बत का मुद्दा स्लोवाकिया जैसे देशों में भी गूंज रहा है। मई के महीने में, 22 स्लोवाक सांसदों के एक समूह ने संयुक्त बयान जारी कर चीन के खिलाफ पचनच लामा की अवैध हिरासत की निंदा की थी। तब सभी ने बयान में कहा था, “चीन द्वारा Gedhun Choekyi Nyima और उनके परिवार के खिलाफ ही नहीं बल्कि सभी तिब्बतियों के खिलाफ अपराध जारी है।”
वही दलाई लामा के चुनाव के मुद्दे की बात करें तो यहां भी भारत और अमेरिका साथ मिलकर चीन के खिलाफ एकजुट दिखते हैं। तिब्बती मान्यताओं के अनुसार दलाई लामा न सिर्फ तिब्बत के आध्यात्मिक गुरु हैं बल्कि वे तिब्बती राष्ट्र के राजनीतिक प्रतिनिधि भी हैं। दलाई लामा का चुनाव तिब्बती मान्यताओं के अनुसार एक पवित्र धार्मिक अनुष्ठान है किंतु इसके राजनीतिक निहितार्थ भी है।
यही कारण है कि चीन किसी ऐसे व्यक्ति को दलाई लामा का पद देना चाहता है जो चीन की नीतियों का समर्थन करें, क्योंकि वर्तमान दलाई लामा भारत में निवास करते हैं इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि अगले दलाई लामा भी भारत की भूमि पर ही चुने जाएं और उन्हें लामा का पद संभालने हेतु भारत में ही प्रशिक्षण मिले।
अमेरिका तिब्बती मान्यताओं में दलाई लामा के महत्त्व को समझता है यही कारण है कि जैसे ही चीन ने नए दलाई लामा के चयन की बात कही, अमेरिका ने चीन के दावों को खारिज कर दिया। अमेरिका ने स्पष्टता से अपना पक्ष रखते हुए कहा कि अगले दलाई लामा का चयन किसी अंतरराष्ट्रीय संस्था में ही हो सकता है क्योंकि लामा संस्कृति को मानने वाले पूरे विश्व में फैले हुए।
अब तक भारत की तिब्बत को लेकर नीति यह थी कि भारत ने दलाई लामा को शरण तो दे रखी थी लेकिन तिब्बत की राजनीतिक स्वतंत्रता या चीन से अलग अस्तित्व की बात को नहीं उठाता था। किंतु अब यह नीति बदल गई है। हाल ही में प्रसार भारती में तिब्बती भाषा में एक कार्यक्रम प्रसारित करके चीन को यह संदेश दे दिया था कि भारत के लिए तिब्बत चीन से अलग राष्ट्र है।
जहां अमेरिका के लिए तिब्बत कूटनीतिक महत्व का मुद्दा है भारत के लिए यह भावनात्मक मुद्दा भी है। ऐसे में यह दोनों देश मिलकर तिब्बत मुद्दे पर चीन के लिए मुसीबतें खड़ी कर सकते हैं। यही कारण है कि शी जिनपिंग तिब्बत की आंतरिक सुरक्षा को लेकर इतने चिंतित हो गए हैं।