तुर्की और अमेरिका के बीच टकराव बढ़ता ही जा रहा है, इसी क्रम में एक रिपोर्ट सामने आई है, जिसके अनुसार अमेरिकी सीनेट या तो व्यक्तिगत रूप से या संयुक्त प्रयासों द्वारा तुर्की व अमेरिका के संयुक्त F-35 स्ट्राइक फाइटर प्रोग्राम से तुर्की को बाहर करवाने के लिए प्रयासरत है।
अमेरिका का नाटो संगठन में सहयोगी होते हुए भी तुर्की ने रूस के S-400 को खरीदा, इससे भी अमेरिका नाराज हुआ था। हाल ही में तुर्की ने S-400 सिस्टम का परीक्षण अमेरिका द्वारा दिये F-16 के विरुद्ध किया है और अमेरिका की चिंता यही है कि यदि तुर्की F-35 विमानों को प्राप्त कर लेगा तो उसे भी S-400 के साथ परीक्षण में उतारेगा। अमेरिका कभीन यह नहीं चाहेगा कि S-400 तकनीक वाले किसी देश के पास यह क्षमता हो कि वह F-35 को लॉक कर सके, ऐसा होने पर F-35 की घातकता और स्टेल्थ अर्थात छुपकर वार करने की क्षमता S-400 के समक्ष समाप्त हो जाएगी।
तकनीकी कारणों से इतर देखा जाए तो भी तुर्की के विरुद्ध सीनेट में ऐसा द्वेष बढ़ने के कई कारण हैं। तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगान द्वारा कट्टरपंथी इस्लाम की ओर झुकना इसमें सबसे प्रमुख कारण है। एर्दोगान लगातार तुर्की की पारंपरिक विदेश नीति से दूर हट रहे हैं और पश्चिम एशिया में अमेरिका विरोधी धड़े के साथ जाते दिख रहे हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण इजराइल और संयुक्त अरब अमीरात के बीच हुए समझौते को लेकर तुर्की का रवैया है।
तुर्की प्रथम विश्वयुद्ध के बाद से ही कट्टरपंथी इस्लाम का विरोधी और पश्चिमी देशों का समर्थक रहा था। 1949 में तुर्की ही एकमात्र मुस्लिम बहुल देश था जिसने इजराइल को मान्यता दी थी। ऐसे में इजराइल और अमीरात के बीच हुए समझौते की आलोचना करके तुर्की अपनी ही पारंपरिक नीति के खिलाफ गया है।
लेकिन यह पहला मौका नहीं है जब तुर्की के द्वारा ऐसा कोई कदम उठाया गया हो। 2016 में जब एर्दोगान के खिलाफ तख्तापलट का असफल प्रयास हुआ था तो तुर्की के राष्ट्रपति ने अमेरिका और उसके सहयोगियों को दोषी माना था। यही नहीं, 2018 में तुर्की ने एक अमेरिकी पादरी को गिरफ्तार कर लिया था, जिसके बाद अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप ने तुर्की पर अगस्त 2018 में आर्थिक प्रतिबंध लगाए थे।
जैसे ही अमेरिका ने सीरिया से अपने सैनिकों को हटाने की शुरुआत की थी, वैसे ही तुर्की ने कुर्दों के विरुद्ध आक्रमण शुरू किया, बावजूद इसके की कुर्दों ने ISIS को हराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अंततः अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा तुर्की पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाने का दबाव बनाया जिसके बाद तुर्की पीछे हटा था।
तुर्की का जो रवैया है, वह अमेरिका को किसी भी प्रकार स्वीकार्य नहीं हो सकता है। हाल ही में, तुर्की ने हाया सोफिया को मस्जिद में बदल दिया था। यही नहीं, एर्दोगान ने यहूदियों के पवित्र टेम्पल माउंट को पूर्णतः अल अश्क मस्जिद में बदलकर, उस स्थल को इस्लामिक मान्यताओं के अनुरूप स्वतंत्र करवाने की बात की थी।
एर्दोगान अपने पड़ोसी और नाटो के सदस्य देश ग्रीस के प्रति भी लगातार आक्रामक है। बात इतनी बढ़ गई थी कि अंततः फ्रांस को बीच में हस्तक्षेप करना पड़ा था। लीबिया में भी तुर्की अन्य सहयोगियों के विरुद्ध जाकर लीबिया की संयुक्त राष्ट्र द्वारा समर्थित सरकार के विरुद्ध विद्रोहियों को समर्थन दे रहा है।
जहाँ एक ओर USA तुर्की को F-35 की डील से बाहर करने पर विचार कर रहा है, वहीं दूसरी ओर कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में कहा जा रहा है कि अमेरिका इन जहाजों को UAE को बेचने पर विचार कर रहा है। UAE और इजराइल के बीच समझौते के बाद यदि अमेरिका ऐसा कदम उठाता है तो साफ जाहिर हो जाएगा कि पश्चिमी एशिया की राजनीति में बन रहे दो धड़ों में अमेरिका किसकी ओर है। अमेरिका का ऐसा कदम निश्चित रूप से तुर्की को नुकसान पहुंचाएगा। पश्चिम एशिया में इजराइल की वायुसेना वैसे ही तुर्की से मजबूत है, ऐसे में UAE, जिसके पास पहले से F-16 विमान है, उसकी वायुसेना भी तुर्की से मजबूत हो जाएगी। यह तुर्की के सामरिक हितों पर चोट होगी। भविष्य में इसका एक और परिणाम भी सामने आ सकता है कि जैसे-जैसे UAE मजबूत होगा वैसे-वैसे ही अंकारा की शक्ति कम होती जाएगी और इसका सीधा प्रभाव लीबिया में देखने को मिल सकता है। जिससे तुर्की को लीबिया से अपने हाथ पीछे खींचने होंगे।
मूलतः तुर्की का उद्देश्य अपने आप को पश्चिमी एशिया की राजनीति में अधिक से अधिक प्रभावी बनाना है। वह अमेरिका के क्षेत्र से हटने के इंतजार में है। US के हटने के बाद जो नया शक्ति का संतुलन स्थापित होगा, उसमें तुर्की अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाना चाहता है। उसकी मंशा क्षेत्रीय राजनीति को न सिर्फ अस्थिर कर सकती है, बल्कि अमेरिका के सबसे महत्वपूर्ण सहयोगियों में एक इजराइल के लिए मुसीबत बनती जा रही है। ऐसे में यह बात तो साफ है कि अमेरिका अपने दोस्त के दुश्मन को किसी भी प्रकार का सहयोग नहीं देगा।