चीन असफल विदेश नीति का सबसे अच्छा उदाहरण है। दुनिया में भले चीन की विदेश नीति का वर्षों तक गुणगान किया गया हो लेकिन वास्तविकता यह है कि चीन की मूर्खता के चलते उसने इतने दुश्मन पैदा किए हैं जितना किसी अन्य देश ने इतिहास में नहीं किया होगा। वास्तविकता यह है कि अब तक दुनिया चीन की आक्रामकता पर शांत इसलिए रही क्योंकि पश्चिमी देशों को चीन की जनसंख्या और व्यापार हेतु अनुकूल वातावरण का फायदा होता था। चीन की आर्थिक सफलता में चीन की विदेश नीति से अधिक हाथ पश्चिमी देशों के लालच का है।
आज चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है इस कारण वह अपने वास्तविक मंसूबों को छुपा नहीं पा रहा। अब तक चीन की कम्युनिस्ट सरकार जो व्यवहार अपने लोगों के साथ करती थी वह अब दुनिया के साथ कर रही है। चीन को अपनी शक्ति का जो गुमान है उसके कारण उसकी विदेश नीति की कमियां खुलकर उजागर हो रही है।
चीन अपने सभी पड़ोसियों के साथ सीमा विवाद में उलझा है, दूसरे देशों की जमीन हड़पने की कोशिश कर रहा है, वैश्विक व्यवस्था के नियमों की धज्जियां उड़ा रहा है और प्रश्न करने पर धमकी दे रहा है, शत्रुता होने पर दूसरे देश के नागरिकों को बंदी बना रहा है, छोटे देशों को डेट ट्रैप पॉलिसी द्वारा फंसा रहा है।
चीन की नीतियों का नतीजा यह है कि दुनिया की हर बड़ी शक्ति आज चीन की दुश्मन है। ताइवान हो या भारत, चीन के सभी दुश्मनों को दुनिया में समर्थन मिल रहा है, यूरोपीय यूनियन एवं आसियान जैसे पारंपरिक मित्र, जिनसे चीन का प्रगाढ़ व्यापारिक संबंध हैं, वह भी चीन के खिलाफ होते जा रहे हैं। विस्तारवाद, दूसरे देश के नागरिकों को बंधक बनाना और कर्ज द्वारा उनको अपने चंगुल में फंसाना यही चीन की विदेश नीति का आधार बन गए हैं।
विस्तारवाद एक ऐसी नीति है जो मध्यकालीन सोच दिखाती है। विस्तारवादी नीतियों का ही नतीजा है कि चीन, भारत के साथ सीमा विवाद में उलझा हुआ है। केवल भारत ही नहीं चीन के पश्चिमी छोर पर मध्य एशिया के देश भी चीन के व्यवहार से परेशान हैं। हाल ही में चीन ने तजाकिस्तान के आधे हिस्से पर अपना दावा कर दिया था। पूर्वी छोर पर चीन सेनकाकू द्वीप को लेकर जापान के साथ सीमा विवाद में उलझा है। वहीं उत्तरी छोर में वह रूस के साथ सीमा विवाद में उलझा हुआ है तथा उसके व्लादिवोस्टॉक शहर पर अपना दावा करता है।
सीमाविवाद से इतर भी, मध्य एशिया के देश Chinese hegemony की नीति के कारण चीन से त्रस्त हैं। वहीं उसका पूर्वी पड़ोसी दक्षिण कोरिया इस बात से परेशान है कि वह उत्तर कोरिया को लगातार बढ़ावा देता है जिससे कोरियन प्रायद्वीप में शांति स्थापना की तमाम कोशिशें असफल रही हैं।
आसियान देशों के साथ भी अपने व्यापारिक संबंधों को दरकिनार करते हुए चीन उनपर भी दबाव बनाए हुए है। दक्षिणी चीन सागर में चीन के दावों के कारण आसियान देश उससे परेशान हैं। चीन की “9 डैश लाइन योजना” द्वारा चीन पूरे दक्षिणी चीन सागर को अपना हिस्सा बनाने की कोशिश कर रहा है और इस इलाके में स्वतंत्र नाविक आवागमन को प्रभावित कर रहा है।
वियतनाम के साथ पार्सल द्वीप को लेकर उसने विवाद कर रखा है एवं गैस तथा फिशिंग को लेकर उसने फिलीपींस से विवाद कर रखा है। चीन की नीतियों के कारण दक्षिणी चीन सागर विश्व के सबसे अधिक तनावपूर्ण क्षेत्रों में एक है। दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप की बात करें तो यहां भी चीन से दुनिया परेशान दिखती है। चीन लगातार कश्मीर मुद्दे पर बयानबाजी कर भारत को उकसाता है एवं आतंकवाद के खिलाफ भारत की लड़ाई में, पाकिस्तान का साथ देकर, बाधाएं पैदा करता है। वहीं पश्चिमी लोकतांत्रिक देश भी उनकी लोकतांत्रिक व्यवस्था में चीनी हस्तक्षेप से परेशान हैं। अमेरिकी चुनाव में चीन का हस्तक्षेप अमेरिका की सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण प्रश्न बन गया है। कमोबेश यही हाल ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस आदि देशों का है।
इन सबके अतिरिक्त तकनीक एवं इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी की चोरी भी, चीन के प्रति आक्रोश का एक महत्वपूर्ण कारण है। चीन दूसरे देशों पर साइबर हमले करके उनकी तकनीकी विकास की जानकारी चुराता है और इसका इस्तेमाल इन तकनीकों की नकल बनाने में करता है।
आंतरिक हस्तक्षेप की बात करें तो चीन के सबसे प्रमुख सहयोगी भी चीन के व्यवहार से परेशान हैं। नेपाल में चीन का हस्तक्षेप इतना बढ़ गया है कि यह जगजाहिर हो चुका है कि नेपाली सरकार चीन के इशारे पर काम कर रही है। वहीं पाकिस्तान की बात करें तो चीन के व्यवहार के चलते बलूचिस्तान एवं सिंध के इलाकों में आक्रोश बढ़ रहा है। पाकिस्तान तो वस्तुतः चीनी उपनिवेश बनकर रह गया है।
चीन की मूर्खतापूर्ण एवं अनैतिक विदेश नीति का एक प्रमाण यह भी है कि चीन का जिस भी देश के साथ विवाद होता है उसके नागरिकों को अकारण बंदी बना लेता है। हाल ही में ऑस्ट्रेलिया के साथ संबंध बिगड़ने पर, चीन ने ऑस्ट्रेलिया की एक पत्रकार को बंदी बनाया है। इसके पूर्व कनाडा से तनाव के बाद भी चीन ने यही व्यवहार करते हुए कनाडा के दो नागरिकों को बंदी बना लिया था। नतीजा यह हुआ है कि चीन के साथ जैसे ही किसी देश का तनाव बढ़ता है वह अपने नागरिकों को इस बात के प्रति आगाह कर देता है कि वे चीन की यात्रा ना करें।
सबसे अधिक चिंता डेट ट्रैप पॉलिसी है। चीन ने छोटे देशों को उनकी अर्थव्यवस्था के आकार के अनुपात से कई गुना अधिक लोन दिए, एवं इनका इस्तेमाल अक्सर ऐसे प्रोजेक्ट्स के लिए किया जिसकी सफलता की उम्मीद न के बराबर हो। जब ये प्रोजेक्ट असफल हुए तो अपना लोन वापस लेने के नाम पर चीन ने इन देशों को लगभग गुलाम बना लिया है। पाकिस्तान का CPEC हो, या लाओस का Electric supply sector, या श्रीलंका का हम्बनटोटा, ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे।
डेट ट्रैप पॉलिसी के उदाहरणों का नतीजा यह है कि आज छोटे देश भी चीन की आर्थिक मदद को स्वीकार नहीं कर रहे हैं। यहां तक कि अफ्रीका में भी चीन के प्रति आक्रोश बढ़ रहा है। जो देश डेट ट्रैप पॉलिसी का शिकार हो चुके हैं वह चीन के प्रति अपनी नीति में अब काफी सजग हो गए हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण श्रीलंका है जिसने हाल ही में बयान दिया था कि वह इंडिया फर्स्ट की विदेश नीति लागू करेगा।
चीन अपनी विदेश नीति में जिन मानदंडों को लागू कर रहा है वह सभी मध्ययुगीन या औपनिवेशिक काल के हैं। इनका 21वीं सदी मैं सफल होना नामुमकिन है। वह भी एक ऐसे समय में जब राष्ट्रवाद वैश्विक राजनीति का सबसे प्रभावी तत्व हो चुका है। चीन चाहे जितना प्रोपोगेंडा करे एवं विदेशी पत्रकारों को धन देकर अपनी तारीफ लिखवाए, सत्य यही है कि चीन की मूर्खतापूर्ण विदेश नीति का परिणाम यह हुआ है कि आज वह दुनिया में अलग-थलग पड़ गया है।