हाल ही में दुनिया को चौकाते हुए UAE और इजराइल ने अपने संबंधों को सामान्य करने पर समझौता कर लिया था। Abrahamic Accord के नाम से जाना गया यह समझौता डोनाल्ड ट्रंप की मध्यस्थता और समझदारी के कारण संभव हो पाया था। डोनाल्ड ट्रंप की ही दूरदर्शी नीति का नतीजा यह है कि बाल्कन प्रायद्वीप के दो कट्टर शत्रु अपनी शत्रुता भुलाकर आर्थिक क्षेत्रों में सहयोग के अवसर तलाश रहे हैं। हम बात कोसोवो और सर्बिया की कर रहे हैं। डोनाल्ड ट्रंप की मध्यस्थता के कारण कोसोवो और सर्बिया साथ मिलकर आर्थिक क्षेत्र में तो सहयोग कर ही रहे हैं, साथ ही विदेश नीति के मोर्चे पर भी दोनों देश एकजुट दिख रहे हैं। अंततः दोनों देश एक समझौते पर तैयार हुए हैं जो बताता है कि यह संघर्ष भी अब समाप्त हो सकता है। यह पूरा मामला क्या है इसे समझने के लिए पहले हमें दोनों देशों के इतिहास को समझना होगा।
कोसोवो सर्बिया का एक भाग रहा है जिसमें 2008 में सर्बिया से स्वतंत्रता की घोषणा की थी। दोनों देशों के टकराव के ऐतिहासिक कारण है। एक समय सर्बिया यूरोप का एक प्रभावशाली क्वेश्चन साम्राज्य था। उस वक्त कोसोवो सर्बिया का एक भाग था। 1398 ई० में तुर्की के ऑटोमन साम्राज्य ने सर्बिया पर आक्रमण कर कोसोवो के इलाके पर कब्जा कर लिया था।
तुर्क शासन के दौरान कोसोवो की जनसंख्या को पूर्णतः मुसलमान बना दिया गया। 1398 ई० से 1912 ई० तक कोसोवो तुर्की साम्राज्य के अधीन था। 1912 में सर्बिया ने इसपर आक्रमण कर इसे पुनः जीत लिया। इसके बाद कुछ समय तक सर्बिया और कोसोवो दोनों युगोस्लाविया का भाग रहे। 1992 में युगोस्लाविया के टूटने के बाद सर्बिया को तो स्वतंत्रता मिली किंतु कोसोवो को स्वतंत्रता नहीं मिली।
कोसोवो के लोग सर्बिया से केवल धार्मिक आधार पर ही भिन्न नहीं थे। नस्लीय आधार पर भी सर्बिया के लोग स्लाव होते हैं तथा रूस और पोलिश लोगों से मिलते हैं जब की फोटो के लोग अल्बेनियाई मूल से सम्बंधित हैं। इन्हीं भिन्नताओं के कारण दोनों पक्षों के बीच 1998-99 में युद्ध भी हुआ है। और अंततः 2008 में कोसोवो ने स्वतंत्रता की घोषणा की थी।
रूस और सर्बिया के पारंपरिक संबंध रहे हैं। दोनों देशों में स्लाव मूल लोगों की जनसंख्या अधिक है। रूस और सर्बिया के संबंध पारंपरिक रूप से बहुत ही अच्छे रहे हैं। प्रथम विश्व युद्ध के समय जर्मनी के विरुद्ध सर्बिया का साथ दिया था और आज भी कोसोवो के मुद्दे पर प्रमुखता से सर्बिया का पक्ष वैश्विक मंच पर रखता है।
वहीं कोसोवो की बात करें तो उसके संबंध यूरोपीय यूनियन तथा पश्चिमी देशों से मजबूत हैं। नाटो सेना ने कोसोवो फोर्स का गठन किया था। अमेरिका और उसके सहयोगियों की मदद से कोसोवो IMF और वर्ल्ड बैंक का भी सदस्य है। जबकि रूस के पारंपरिक सहयोगी जैसे भारत, चीन आदि प्रमुख देश कोसोवो को स्वतंत्र मान्यता नहीं देते हैं।
जहां एक ओर UAE और इजरायल ने पहले ही अपने आर्थिक संबंध बढ़ाने शुरू कर दिए थे वहीं, इसके ठीक विपरीत कोसोवो और सर्बिया आपस में कट्टर दुश्मन रहे हैं। साथ ही यह दोनों देश इतने छोटे हैं कि इनकी विदेश नीति पर बड़ी वैश्विक शक्तियों का प्रभाव भी जबरदस्त है। इनमें से ना कोई UAE जैसी आर्थिक शक्ति है और न ही इजराइल जैसी सैन्य और तकनीकी रूप से विकसित शक्ति है।
इसके अलावा बाल्कन में रूस के अतिरिक्त यूरोपीय यूनियन और चीन का भी जबरदस्त प्रभाव है। चीन लगातार इस क्षेत्र में अपने बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट द्वारा अपने प्रभाव में वृद्धि कर रहा है और सर्बिया इससे अछूता नहीं है। चीन का प्रभाव इस कदर बढ़ गया है कि पारंपरिक रूप से मजबूत रूस को भय है कि वह इस क्षेत्र में दूसरी शक्ति ना बन जाए।
वहीं यूरोपीय यूनियन की बात करें तो वह चीन के वास्तविक खतरे को ना पहचानकर आज भी शीतयुद्ध की मानसिकता से बाहर नहीं आया है। उसके रवैया का नतीजा यह हुआ है कि न तो कोसोवो इस समस्या से बाहर निकल पाया है और न सर्बिया किसी समझौते के लिए राजी हो पा रहा था।
यूरोपीय यूनियन की कोशिश थी कि सर्बिया और कोसोवो के मुद्दे में अमेरिका के हस्तक्षेप को कम से कम रखा जाए, एवं स्वयं ही इस मुद्दे का समाधान खोजा जाए। इस कारण इस समस्या का समाधान तो नहीं हुआ किंतु चीन को इस क्षेत्र में अत्यधिक प्रभावी होने का मौका मिल गया। जाने अनजाने EU या कहें उसकी सबसे प्रभावी शक्ति जर्मनी चीन की मदद कर रहा था।
किंतु ट्रंप की नीतियों के कारण कोसोवो-सर्बिया की समस्या का समाधान हो गया जो एक dead end पर जाकर रुक गई थी। इसके साथ ही ट्रंप ने EU को साबित कर दिया है कि यूरोप अपनी समस्याओं का समाधान करने में अक्षम है। साथ ही ट्रम्प ने जर्मनी द्वारा यूरोप का नेतृत्व करने के सपने को चोट पहुंचाकर उसे जमीनी हकीकत से भी वाकिफ करवाया है। इतना ही नहीं सर्बिया और कोसोवो के समझौते ने जिनपिंग के इरादों पर भी पानी फेर दिया है।