महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने बीजेपी को धोखा देकर जिस तरह से विपरीत विचारधारा वाली एनसीपी कांग्रेस के साथ सरकार बनाते हुए सीएम की कुर्सी पाई है वो जाहिर करती है कि शिवसेना इस महाविकास आघाड़ी में दोनों पार्टियों के लिए बस एक कठपुतली बन गई है, जिसे गठबंधन के शीर्ष नेता शरद पवार उंगलियों से चला रहे हैं। ऐसे में शिवसेना का दोनों दल अपने एजेंडे के अनुसार इस्तेमाल कर रहे हैं और गलतियों का ठीकरा उद्धव पर फोड़कर चुप्पी साध लेते हैं। जिससे शिवसेना का राजनीतिक वजूद सवालों के घेरे में आ गया है।
विवादों में घिरी शिवसेना
ऐसा प्रतीत होता है कि जिस दिन से उद्धव ठाकरे आघाड़ी सरकार के मुख्यमंत्री बने हैं उन्होंने पार्टी को विवादों में रखने का कॉन्ट्रैक्ट ले लिया है। विचारधाराएं बेमेल होने के बावजूद जिस तरह से ये सरकार चल रही है उसमें सबसे ज्यादा उठा-पटक शिवसेना के साथ ही है। कोरोनावायरस के बढ़ते प्रकोप से निपटने के लिए नाकाम हो रही महाराष्ट्र सरकार का पूरा ठीकरा पहले ही राहुल गांधी उद्धव ठाकरे पर फोड़ चुके हैं तो वहीं पूर्व आर्मी अफसर मदन शर्मा के साथ मार-पीट, हिंसक प्रदर्शनों से लेकर शिवसेना के आक्रामक तेवर उसके लिए ही मुसीबत का सबब बनने लगे हैं और साथी गठबंधन पार्टियां इस पूरे खेल का मजा ईजी चेयर पर बैठकर ले रही हैं।
नहीं मिल रहा कोई समर्थन
दिवंगत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के मामले की सीबीआई जांच से लेकर ड्रग्स कनेक्शन और अभिनेत्री कंगना रनौत का दफ्तर टूटने के बाद एनसीपी-कांग्रेस ने बड़ी आसानी से सारी थू-थू मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे, बीएमसी और शिवसेना के मत्थे मढ़ दी है। गठबंधन में जब भी कोई फैसला एनसीपी या कांग्रेस के कोर एजेंडे का होता है तब तो ये दोनों पार्टियां सीएम ठाकरे के साथ दिखती हैं वरना विवादों में फंसने पर दोनों दल सरकार के फैसलों से कन्नी काटते हुए कोप भवन में चले जाते है। नतीजा ये कि राजनीतिक स्तर पर शिवसेना विपक्ष से लेकर जनता की आलोचनाओं में जूझती रह जाती है।
कोर एजेंडे पर काम
शिवसेना के कोर एजेंडे में हिंदुत्व का विस्तार, वीर सावरकर को भारत रत्न, और राम मंदिर बनाना शामिल था। लेकिन एनसीपी प्रमुख शरद पवार सहित कांग्रेस की तरफ से हमेशा से ही इन मुद्दों की खिलाफत के बयान सामने आए हैं। अनुच्छेद-370 और 35-ए तो उनके विरोध का सबसे बड़ा उदाहरण है। एनसीपी-कांग्रेस अपने कोर एजेंडे के हर काम हौले-हौले आगे बढ़ा रहीं हैं चाहे वो मुस्लिमों को 5 फीसदी आरक्षण देना हो या महाराष्ट्र में जातिगत समीकरणों की सभी नीतियां।
गठबंधन के साझा कार्यक्रम में उद्धव ने मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए न जाने कितने वादे किए हैं कि अपने सारे वादे भूलकर इन दोनों के लिए मोहरा बन गए हैं। मुश्किल वक्त में दोनों ही दल शिवसेना पर ही सवाल खड़े कर राजनीति चमकाने में मस्त हो जाते हैं और इसका नतीजा ये कि शिवसेना मजबूरन सारी लड़ाइयां अकेले लड़कर अपनी भद्द पिटाती है। कांग्रेस अच्छे से वाकिफ है कि सुशांत, कंगना और रिया के केस में बिना तथ्यों के कुछ भी बोलना उसे राष्ट्रीय राजनीति में भारी पड़ सकता है। वहीं एनसीपी अपनी मराठा और मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति पर अच्छे से काम करते हुए शिवसेना की हिंदुत्ववादी छवि को बट्टा लगाने में पूरी निष्ठा से काम कर रही है।
रसातल की ओर भविष्य
शिवसेना हमेशा से ही एक हिंदुत्ववादी दल रहा है ऐसे में जब कांग्रेस-एनसीपी के साथ मेल हुआ तो उसी दिन ये तय हो गया था कि अब सेक्यूलरिज्म के नाम पर शिवसेना अपनी विचारधारा को तिलांजलि दे देगी और हुआ भी वही। लेकिन एनसीपी-कांग्रेस इस तरह की राजनीति में महारत रखती हैं। गठबंधन और मुख्यमंत्री पद के बदले में दोनो दलों ने शिवसेना को महाराष्ट्र की राजनीति के उस मोड़ पर पहुंचा दिया है जहां से उसका भविष्य अंधकार की ओर ही जाएगा। कांग्रेस को लेकर तो सबसे ज्यादा उदाहरण है कि वो पार्टियों को समर्थन देकर सरकार बनवाने के बाद उसकी छवि धूमिल कर उसे अचानक असहाय स्थिति में पटक देती है।
राजनीतिक दल अपने आप को मजबूत रखना चाहते हैं गठबंधन बस एक मजबूरी है। ऐसे में संभावनाएं हैं कि भविष्य में समान विचारधारा वाली कांग्रेस-एनसीपी शिवसेना को ऐसी बीच मझधार में छोड़ देंगी जहां से शिवसेना का कोर वोटर उसे हिंदुत्व का मुद्दा छोड़ने पर नजरंदाज करेगा और कांग्रेस-एनसीपी का वोटर सेक्यूलरिज्म का चोला ओढ़ने के बावजूद उसे घास नहीं डालेगा जिससे महाराष्ट्र में शिवसेना का शेर बिल्ली से भी कम हैसियत में आ सकता है।