चीन और साम्राज्यवाद का काफी पुराना नाता रहा है, और इस क्षेत्र में चीन को जहां भी अकूत धन सम्पदा दिखाई देती है, वहाँ पर वो अपना कब्जा जमाना चाहता है। कुछ ऐसा ही मिडिल ईस्ट के क्षेत्र में भी हुआ, जहां चीन ने बीआरआई के जरिये मिडिल ईस्ट को अपने मुट्ठी में करने के अभियान की नींव रखी थी। लेकिन अब यह स्पष्ट हो चुका है कि दुनिया के बाकी हिस्सों की तरह अब मध्य एशिया और मिडिल ईस्ट भी चीन के हाथ से फिसलता जा रहा है, और वह चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहा है।
WION की रिपोर्ट के अनुसार चीन अभी हाल ही में ईरान के साथ अपने परमाणु समझौते को आगे बढ़ाना चाहता है, और इसीलिए वह इस अभियान को सार्थक बनाने हेतु दिन रात एक किए पड़ा है। ईरान से बातचीत के बाद चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने ये स्पष्ट किया है कि ईरान के साथ 2015 के न्यूक्लियर समझौते से चीन पीछे नहीं हटेगा। परंतु वांग वहीं पर नहीं रुके। चीन के विदेश मंत्रालय की ओर से जारी बयान के अनुसार “चीन एक ऐसा क्षेत्रीय बहुपक्षीय फोरम तैयार करना चाहता है, जहां सभी भागीदारों की बराबर की साझेदारी हो”।
भला चीन को मिडिल ईस्ट में नया फोरम क्यों चाहिये? ऐसा क्या हुआ कि चीन को मिडिल ईस्ट में फिर से अपने पैर जमाने पड़ रहे हैं? दरअसल, अभी कोई भी ऐसा फोरम नहीं है जो चीन की पकड़ को सुनिश्चित कर सके, और धीरे धीरे करके मिडिल ईस्ट चीन के हाथ से फिसलता ही चला जा रहा है। पिछले कुछ महीनों में तुर्की, ईरान पाकिस्तान के साथ जो भी समझौता बनाया था वो भी अब बिखर चुका है, और स्थिति यह हो चुकी है कि एक समय पर चीन का बेहद वफादार माने जाने वाला तुर्की भी अब चीन को उइगर मुसलमानों पर ढाये जा रहे अत्याचारों के मामले में आँखें दिखा रहा है।
इतना ही नहीं, अमेरिका के हटने से मिडिल ईस्ट में जो खालीपन आया था, उसे भरने के लिए चीन के मंसूबों पर पानी फेरने के लिए फ्रांस के नेतृत्व में यूरोपीय शक्तियाँ भी सामने आई है। इसी परिप्रेक्ष्य में टीएफ़आई पोस्ट ने एक लेख भी लिखा था, जिसमें फ्रांस की नई भूमिका पर प्रकाश भी डाला गया था। रिपोर्ट के अंश अनुसार, “पिछले डेढ़ महीने में, राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने दो बार लेबनान का दौरा किया है और एक बार ईराक का दौरा किया जिसमें वह इराक के राष्ट्रपति बरहम सालेह (Barham Salih), प्रधानमंत्री मुस्तफा अल-कदीमी और कुर्दीस्तान क्षेत्रीय सरकार के राष्ट्रपति नेतिरवन बरज़ानी के साथ बैठक कर चुके हैं। सितंबर में मैक्रों ने अपने इराक की यात्रा, के दौरान इराकी संप्रभुता पर जोर दिया और कुर्दिस्तान क्षेत्र की स्वायत्तता के लिए अपना समर्थन दिया। जब किसी ने लेबनान की गंदगी में हाथ लगाने की कोशिश नहीं की तब मैक्रों वहां गए और चीन समर्थित हिजबुल्ला को चुनौती दी।
वे तुर्की के खिलाफ खड़े हो कर पूर्वी भूमध्य सागर में साइप्रस और ग्रीक अधिकारों का समर्थन कर रहे हैं। मैक्रों ने उस क्षेत्र में फ्रांसीसी सैन्य उपस्थिति को भी बढ़ा दिया है, एक हेलिकॉप्टर वाहक सहित नौसेना इकाइयों को तैनात किया है और पूर्वी भूमध्य सागर तक फ्रिगेट तक तैनात कर दिया है। लीबिया युद्ध में पहले से ही राफेल तुर्की के खिलाफ अपनी गर्जना कर रहे हैं”।
लेकिन ये कदापि मत समझिएगा कि इस खेल में फ्रांस अकेले चीन के हाथ से मिडिल ईस्ट छीन रहा है। यूं तो डोनाल्ड ट्रम्प ने स्पष्ट किया है कि वह विदेश में फालतू के युद्ध लड़ने में कोई रुचि नहीं रखते। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि वह मिडिल ईस्ट में चीन की मनमानी चलने देंगे। TFI पोस्ट के ही एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, “पहले UAE और अब बहरीन द्वारा इजरायल के साथ शांति समझौता करना दिखाता है कि आज भी अमेरिका ही पश्चिम एशिया में सबसे ज़्यादा प्रभावशाली ताकत है। यह बात समझने वाली है कि इज़रायल और अरब देशों के नज़दीक आने से क्षेत्र में चीन के हितों को तगड़ा नुकसान होने वाला है।
चीन ने ईरान और तुर्की जैसे देशों के साथ पिछले कुछ समय में बड़ी नज़दीकियाँ बढ़ाई है। कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार तो चीन ने ईरान के साथ 25 वर्षीय 400 बिलियन की डील पर भी हस्ताक्षर किए हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि चीन के प्रभाव को कायम रखने और बढ़ाने के लिए ईरान और तुर्की जैसे देश पश्चिमी एशिया की बड़ी ताक़तें बनें। हालांकि, ज़मीन पर चीज़ें चीन के खिलाफ जाती ही दिखाई दे रही हैं। जितना ज़्यादा अरब देश और इज़रायल नज़दीक आएंगे, क्षेत्र में ईरान और तुर्की की मुसीबतें उतनी ज़्यादा ही बढ़ेंगी, जो कि सीधा चीन के हितों को नुकसान पहुंचाएगा”। यानि बिना एक गोली चलाये डोनाल्ड ट्रम्प ने चीन के हाथों से मिडिल ईस्ट में वर्चस्व जमाने का मौका ही छीन लिया है।
सच कहें तो मिडिल ईस्ट में अमेरिका के जाने के बाद से आया खालीपन का फायदा उठाकर चीन वहाँ अपना वर्चस्व जमाना चाहता था, जिसके लिए उसने ईरान के ज़रिये बीआरआई का मायाजाल फैलाने का प्रयास भी किया। लेकिन पहले वुहान वायरस की महामारी और फिर अमेरिका द्वारा चीन के विरुद्ध चलाये जा रहे वैश्विक अभियान के कारण अब चीन के साथ से मिडिल ईस्ट भी लगभग फिसल चुका है, और वह चाहकर भी वापसी नहीं कर पा रहा है। यही कारण है कि वो अब यहां नया फोरम बनाने की बात कर रहा है।