तुर्की फ्रांस के मुद्दे पर सऊदी अरब को बांट कर अपनी इकोनॉमी बचाना चाहता था, ये योजना बुरी तरह फेल हुई

दूसरे के घर जलाकर खुद के घर में शांति असंभव है एर्दोगन!

सऊदी

इस समय तुर्की के वर्तमान प्रशासक एर्दोगन पूरी तरह पगला गए हैं और वे कट्टरपंथी मुसलमानों और आतंकवादियों को हरसंभव सहायता प्रदान करने का प्रयास कर रहे हैं, चाहे खुद की अर्थव्यवस्था की बलि ही क्यों न चढ़ जाए। दिन प्रतिदिन तुर्की का लीरा गोते खाता जा रहा है, स्टॉक मार्केट की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है, और फ्रेंच उत्पादों के बहिष्कार का नारा देकर तुर्की ने अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने का काम किया है। लेकिन एर्दोगन को इससे कोई मतलब नहीं, क्योंकि उनकी नजरें अरब जगत के सिंहासन पर है, लेकिन फ्रांस के मुद्दे पर सऊदी अरब के आंतरिक राजनीति में हस्तक्षेप करने की योजना अब एर्दोगन पर ही भारी पड़ती दिखाई दे रही है।

सऊदी अरब तुर्की द्वारा इस्लामिक जगत में प्राप्त वर्चस्व छीनने के निरंतर प्रयासों से काफी कुपित है, जिसके कारण तुर्की को अनाधिकारिक रूप से अरब जगत ने अलग थलग कर दिया है, और इसीलिए उसके अर्थव्यवस्था को काफी दिनों से भारी नुकसान का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में सैमुएल पैटी की बर्बर हत्या के विरुद्ध फ्रांस की जनता ने जिस प्रकार से मोर्चा संभाला है, उसे लेकर तुर्की का विरोध प्रदर्शन करने का उद्देश्य स्पष्ट है – इस्लामिक जगत के हितों का प्रतिनिधित्व करना और सऊदी अरब को नीचा दिखाना।

परंतु एर्दोगन के ख्वाब केवल यहीं तक सीमित नहीं है। वे भली भांति जानते हैं कि यदि इस्लामिक जगत का वर्चस्व प्राप्त करना है, तो उसे किसी भी हालत में सऊदी अरब की लोकप्रियता पर प्रहार करना होगा। इससे न केवल सऊदी अरब और अरब जगत में फूट पड़ेगी, अपितु तुर्की के उत्पादों पर अरब जगत की अनाधिकारिक रोक भी हट जाएगी। एर्दोगन जानते हैं कि ये बॉयकॉट तभी तक वैध है जब तक लोग सऊदी के वर्तमान प्रशासन का समर्थन कर रहे।

ये एक ऐसी योजना थी, जिसमें काफी जोखिम था, लेकिन अंकारा के लिए उतना लाभ भी मिलता। अगर ये योजना सफल होती तो तुर्की की अर्थव्यवस्था न केवल पटरी पर आती, अपितु Ottoman Empire के वास्तविक उत्तराधिकारी के रूप में एर्दोगन प्रशासन अपनी दावेदारी सिद्ध करती। लेकिन अगर यह योजना असफल होती, तो तुर्की ऐसे गर्त में गिरेगा जिससे बाहर निकलना उसके लिए लगभग असंभव होगा।

यदि एर्दोगन की विदेश नीतियों पर ध्यान दिया जाए, तो इस महान योजना की असफलता के संकेत अभी से ही दिखने लगे है। फ्रांस के विरोध की बात तो दूर, सऊदी अरब ने उलटे तुर्की के उत्पादों को बहिष्कृत करने की अपनी नीति को बढ़ावा देना शुरू कर दिया है, और मेड इन तुर्की उत्पादों को मेड इन मिस्र यानि Egypt से रिप्लेस कर रहा है। कई दुकानों और सुपरमार्केटस में अब तुर्की उत्पादों के बजाए ग्रीस के उत्पाद बिकने लगे हैं।

जब से सऊदी चैम्बर ऑफ कॉमर्स के प्रमुख ने तुर्की के उत्पादों के बहिष्कार का सुझाव दिया है, उसका असर तुर्की की अर्थव्यवस्था पर काफी बुरा पड़ा है। यहाँ तक कि मोरक्को जैसे देश ने भी तुर्की के उत्पादन पर काफी हद तक रोक लगाई है, जिसके कारण अब तुर्की की अर्थव्यवस्था रसातल में जा रही है। बैंकिंग सेक्टर और विदेशी मुद्रा भंडार एर्दोगन के शेख चिल्ली जैसे ख्वाबों को बढ़ावा देने में व्यय हो रहे हैं और ऐसे में अब सऊदी अरब का बॉयकॉट उसे बहुत बड़ा आर्थिक झटका देने वाला है।

ऐसे में एर्दोगन ने ये सोचकर कट्टरपंथी मुसलमानों को बढ़ावा देना शुरू किया, कि इससे न केवल इस्लामिक जगत में वह धाक जमा सकेगा, बल्कि वह अरब जगत का गुस्सा यूरोप की ओर केंद्रित कर सकेगा, जिससे उसकी अर्थव्यवस्था को कोई आंच न आए। लेकिन सऊदी सरकार ने तुर्की को घास तक नहीं डाली, और उन्होंने अपने देश को तुर्की के झांसे में फँसने से भी बचाया और साथ ही साथ तुर्की को अब ऐसे झटके देने जा रही है जिससे वह शायद ही उबर सके।

 

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