बिहार में एक तरफ बीजेपी के दम पर एनडीए गठबंधन जीता है तो दूसरी ओर महागठबंधन के नेता तेजस्वी ने भी हारने के बावजूद अपनी स्थिति मजबूत की है। लेकिन इन चुनावों ने एक साफ संकेत भी दिया है कि अब जनता छोटी पार्टियों पर विश्वास करने को बिल्कुल भी तैयार नहीं है। वो नहीं चाहती कि छोटी पार्टियां आगे जाकर सीएम की कुर्सी को लेकर मोल भाव करें, या जनहित से जुड़े मुद्दों पर राजनीति हो। इसके साथ ही ये भी सामने आया है कि एक खास जाति के आधार पर बनाई गई पार्टियां भी अब जनता का विश्वास नहीं जुटा पा रही है। ऐसे में ये कहा जा सकता है कि अब बिहार जैसे राज्य में भी जनता केवल काम के आधार पर वोट करने लगी है, किसी जाति के आधार पर नहीं।
बिहार विधानसभा हो या लोकसभा चुनाव, जातीय आधारित राजनीतिक पार्टियां अपनी नीतियां बनाती हैं। इन सभी पार्टियों का अपना-अपना वोट बैंक रहता है। इसके आधार पर ही इनकी राजनीति घूमती रहती है, लेकिन 2020 के विधानसभा चुनाव में इन सभी नीतियों के आधार पर राजनीति करने वाली पार्टियों को जनता ने झटका दिया है जिससे इन पार्टियों के राजनीतिक भविष्य पर खतरा मंडराता हुआ दिखने लगा है। जनता के वोटिंग पैटर्न ने बता दिया है कि उन्हें अब जातिगत रणनीति पर बनी छोटी पार्टियों को समर्थन नहीं देना है।
बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार कई ऐसी पार्टियां सामने आई हैं जो एक या दो साल ही पुरानी हैं। पुष्पम प्रिया चौधरी की प्लूरल्स पार्टी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जो कि कुछ महीनों पहले बिहार आईं थी। उन्होंने खुद को सीएम पद का चेहरा बताते हुए चुनाव प्रचार करना शुरु कर दिया लेकिन चुनाव के बाद इनका हाल क्या हुआ है वो सभी ने देख लिया है। उनको उतने वोट भी नहीं मिले हैं जितने उनके साथ चुनाव प्रचार में नेता चलते थे।
इसके साथ ही पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी लोकतांत्रिक को भी इन चुनावों में झटका लगा है, जो कि यादवों और पिछड़ों का नेता होने का दम भरते हैं। पप्पू यादव की पार्टी ने भी आजाद समाज पार्टी, बहुजन मुक्ति पार्टी, सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया, लोकतांत्रिक जनता दल समेत कई छोटी पार्टियों को मिलाकर एक गठबंधन तैयार किया। आज स्थिति ये है कि इन सभी पार्टियों को एक भी सीट नहीं मिली है। बिहार के बड़े नेता और पूर्व लोकसभा सांसद पप्पू यादव तक अपनी सीट नहीं बचा सके हैं, और मधेपुरा की सीट से उनकी करारी हार हुई है।
इसके अलावा बिहार की राजनीति के बड़े चेहरे और कुशवाहा जाति के नाम पर पिछड़ों का नेता होने का दावा करने वाले एनडीए के पूर्व साथी उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी रालोसपा ने भी बिहार की 6 छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन किया था। इन सभी ने चुनावों से पहले बड़े-बड़े दावे किए थे लेकिन नतीजे आने केे साथ ही इन सभ की हवा अब फुस्स हो गई है।
बिहार में केवल एक नई पार्टी फायदे में रही है जो कि कुछ वक्त पहले ही बनी थी, लेकिन बीजेपी के साथ रहने के कारण वो पप्पू यादव जैसे बड़े नेता की पार्टी से भी आगे निकल गई है। इसका नाम है विकासशील इंसान पार्टी। लगभग दो साल पहले बनी मुकेश साहनी की इस पार्टी ने बीजेपी के साथ गठबंधन किया और 12 सीटों पर लड़कर 4 सीटों में शानदार जीत दर्ज करते हुए एनडीए की सरकार के बनने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
बिहार की जनता ने जातिगत रणनीति को लेकर चुनाव लड़ने वालों को एक बड़ा झटका देते हुए साफ कर दिया है कि अब उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि जाति के आधार पर कौन सी पार्टी अच्छी है या बुरी है… जनता केवल काम पर ही वोट देगी और जातिगत राजनीति करने वालों को देगी तो केवल तगड़ा झटका।