रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन भले ही जो बाइडन की विजय के बाद चीन के प्रति थोड़ा नरम पड़े हों, लेकिन जो चीनी ये अरमान पाल रहे हैं कि अब पुतिन थाली में सजाके उन्हें Arctic क्षेत्र सौंप देंगे, उन्हें अब राष्ट्रपति पुतिन बहुत तगड़ा झटका देने देने वाले हैं।
एक अहम निर्णय में रूस ने सोवियत संघ के जमाने की एक लैब को दोबारा संचालित कराने के निर्देश दिए हैं, जहां आर्कटिक के हड्डी गला देने वाले तापमान में चलाए जाने वाले शस्त्रों के परीक्षण किए जाते थे। Arctic में इस समय रूस के लिए चीन ही सबसे बड़ा प्रतिद्वंधी है, जो Arctic के Northern Sea Route पर अपनी नज़र गड़ाए हुए है। हालांकि, रूस चीन के इन मंसूबों को अच्छी तरह जानता है और यही कारण है कि उसने अब सोवियत के समय की लैब को दोबारा खोलने का फैसला लिया है।
परंतु रूस ऐसा करने पर क्यों विवश हुआ है? ऐसा इसलिए है क्योंकि रूस भली भांति जानता है कि यदि आर्कटिक क्षेत्र पर चीन ने अपना प्रभाव जमाना शुरू किया, तो रूस की प्रतिष्ठा के साथ साथ उसके हाथ से प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण एक पूरा क्षेत्र फिसल जाएगा। इसलिए रूस ने अपने पुराने टेस्टिंग लैब को फिर से खुलवाया है। इस सेंटर पर कार्यरत सेरजेई कारासेव के अनुसार, “सोवियत के विघटन के पश्चात जो अनोखी तकनीक हम लोग खो चुके थे, उसे पुनः पाने के लिए सर्टिफिकेशन एक अंतिम स्टेज था, जिसे हम लोगों ने प्राप्त कर लिया है।”
कारासेव ने आगे बताया कि नए लैब में स्मॉल आर्म्स, विशेष ग्रेनेड लॉन्चर और small-cannon armaments को 60 डिग्री सेल्सियस से लेके माइनस 60 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर चलाने की क्षमता परखी जाती है। ऐसे में इस लैब का पुनः खुलना चीन के लिए कोई अच्छी खबर तो नहीं है।
चीन अपने आप को ‘Near Arctic State’ कहता है, हालांकि उसका Arctic से दूर दूर तक कोई नाता नहीं है। लेकिन चीन की साम्राज्यवादी मानसिकता के सामने भला व्यवहारिक ज्ञान और लॉजिक कैसे टिकेगा? बीजिंग की लालसा है कि जैसे ही जलवायु परिवर्तन के चलते आर्कटिक क्षेत्र में एक समुद्री मार्ग खुले, उसपर सबसे पहले चीन अपना अधिकार जमा ले।
चीन अपने साम्राज्यवादी मंसूबों को किस हद तक फैलाना चाहता है, इसका अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि वह व्लादिवॉस्टोक तक को अपना बताने से नहीं पीछे हटता है। चीन अपना एक पोलर सिल्क रोड तैयार करना चाहता है, जो रूस से होते हुए आर्कटिक पहुंचे। अब चूंकि बाइडन अमेरिका का प्रशासन संभालने वाले हैं, इसलिए पुतिन इस समय चीन के प्रति थोड़े नरम हैं, परंतु इतने भी नहीं कि वह अपने ही राष्ट्रहित के साथ समझौता करने लगे।