जियोपॉलिटिक्स की अबूझ पहेलियों में से अगर किसी का नाम सबसे ऊपर आएगा तो वो रूस और चीन का रिश्ता है। एक तरफ रूस पश्चिम को डराने के लिए चीन के साथ नज़दीकियां भी दिखाता है तो वहीं, दूसरी तरफ चीन के ऊपर निर्भरता बढ़ने से उसकी विस्तारवादी नीतियों और ऋण जाल का डर भी है। पिछले कुछ महीनों से जिस तरह से चीन ने ऑस्ट्रेलिया के साथ बर्ताव किया है, उसे देख कर अब रूस भी सतर्क हो चुका है। अगर वह अपनी निर्भरता चीन पर और अधिक बढ़ाता है तो उसकी हालत धोबी के कुत्ते की तरह हो जाएगी जो न घर का रहेगा न घाट का।
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव से कई हफ्ते पहले Valdai Discussion Club की एक बैठक में जब रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से यह पूछा गया कि क्या चीन और रूस के बीच सैन्य गठबंधन की कल्पना करना संभव है, तब पुतिन ने जवाब दिया था, ” कुछ भी कल्पना करना संभव है। हमने खुद के लिए कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं किया है। लेकिन, सिद्धांत रूप में, हम इसे नियमबद्ध नहीं करने जा रहे हैं”।
कई वर्षों तक पुतिन और वरिष्ठ रूसी अधिकारियों ने भी हमेशा स्पष्ट रूप से कहा है कि चीन के साथ कोई गठबंधन एजेंडे पर नहीं था। पुतिन के चीन के साथ सैन्य गठजोड़ से इनकार करने की तार्किक व्याख्या रूस के चीन के साथ संबंधों में नहीं, बल्कि पश्चिम तथा अन्य देशों के साथ है।
2014 में अमेरिका और यूरोपीय संघ के साथ अपने संबंधों के पतन के बाद रूस ने चीन के साथ अपनी साझेदारी को मजबूत करने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए थे। मुख्य रूप से अर्थव्यवस्था और सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करते हुए। रूस के समग्र व्यापार कारोबार में एक दशक से भी कम समय के अंदर चीनी व्यापार की हिस्सेदारी लगभग दोगुनी हो गयी थी। वर्ष 2013 में जो आंकड़े 10 प्रतिशत थे वो वर्ष 2019 में लगभग 18 प्रतिशत हो चुका है। वहीं रूस ने कई सुरक्षा उपकरण एसयू -35 लड़ाकू विमान और एस -400 मिसाइल सिस्टम बेचा। बाल्टिक से दक्षिण चीन सागर तक दोनों देश संयुक्त सैन्य अभ्यास भी कर रहे हैं।
लेकिन अगर पश्चिम के प्रतिबंधों के कारण रूस चीन का एक महत्वपूर्ण साझेदार बन रहा है, तो वह बीजिंग के ऋण जाल में फंसता चला जाएगा और मास्को पर दबाव बनाना उसके लिए आसान हो जाएगा। और यह बात रूस समझ चुका है। हालांकि, चीन पर रूस की निर्भरता अभी तक एक बड़े स्तर तक नहीं पहुंची है लेकिन इसी तरह से चलता रहा तो यह असंभव भी नहीं है।
यद्यपि जिस तरह से वर्ष 2014 में यूक्रेन संकट के दौरान रूस अपने मुख्य व्यापार सहयोगी यूरोपीय संघ से नाता तोड़ने के बावजूद अपनी अर्थव्यवस्था बचाने में सफल रहा था, उस तरीके से चीन के साथ किसी विवाद के बाद मुश्किल होगा।
रूस को यह भी पता है कि अगर 2014 में क्रेमलिन के पास चीन के रूप में पश्चिम का विकल्प था, तो 2030 के दशक के मध्य में चीन का कोई विकल्प नहीं होगा और उसे चीन के सामने झुकने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
इसके अलावा, मॉस्को ने यह जरूर ध्यान दिया होगा कि हाल के वर्षों में, बीजिंग ने किस तरह से आर्थिक हथियारों जैसे प्रतिबंधों और टैरिफ का उपयोग अन्य देशों पर दबाव बनाने के लिए किया है। उदाहरण के लिए चीन और ऑस्ट्रेलिया के बीच चल रहा व्यापार युद्ध से स्पष्ट है।
क्रेमलिन कोई संदेह नहीं है कि कैसे 2011 में, चीन के राष्ट्रीय पेट्रोलियम निगम ने रूसी राज्य तेल कंपनियों के ऊपर चीनी बैंकों का भारी ऋण का लाभ उठाकर पहले से सहमत अनुबंध पर Rosneft और Transneft से छूट प्राप्त की। यदि चीन 2010 में रूस पर सफलतापूर्वक दबाव बना सकता है, जब दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं के बीच अंतर छोटा था, तो 15 वर्ष बाद चीन संप्रभुता पर भी हमला कर सकता है।
यही कारण है कि अब रूस चीन को धीरे-धीरे डंप कर रहा है और यही नहीं पश्चिमी देशों को चीन के साथ अपने संबंध बढ़ाने का दिखावा कर डरा रहा है जिससे वे रूस के प्रति अपनी नीतियों को नरम करें जिससे रूस के लिए नए आर्थिक रास्ते खुले और उसकी अर्थव्यवस्था चीन पर अत्यधिक निर्भर होने से बच जाए। यही नहीं रूस ने भारत के साथ भी अपने सम्बन्धों को और मजबूत किया है जिससे यह स्पष्ट होता है कि वह चीन को संतुलित करते के लिए भारत का सहारा लेना चाहता है। यह चीन की बढ़ती आक्रामक नीति, ऋण जाल का डर और आर्थिक हथियारों जैसे टैरिफ का डर ही है जो रूस को उसे डंप करने पर मजबूर कर रही है।