जनवरी तक White House में बने रहने वाले अमेरिका के 45वें राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प जाते-जाते तिब्बत मुद्दे को एक वैश्विक आंदोलन में तब्दील करने जा रहे हैं। दरअसल, अमेरिका के तिब्बत मुद्दों के स्पेशल कोर्डिनेटर Robert A Destro ने अब साथी देशों से यह अपील की है कि वे भी अपने-अपने देशों में अमेरिका के “Reciprocal Access to Tibet Act” की तरह ही कानून लेकर आयें। बता दें कि इस कानून के तहत अमेरिका ऐसे सभी चीनी अधिकारियों पर प्रतिबंध लगाए हुए है, जो तिब्बत में मानवाधिकारों के उल्लंघन में शामिल पाये जाते हैं।
तिब्बत की आज़ादी का मुद्दा अभी तक सिर्फ अमेरिका और भारत जैसे देशों के लिए ही अहम रहा है। वर्ष 1950 के बाद से ही अमेरिका की खूफिया एजेंसी CIA तिब्बत में अस्थिरता फैलाकर CCP के लिए मुश्किलें पैदा करने का काम कर रही है। यहां तक कि तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा को भारत लाने और भारत की Special Frontier Force बनाने में भी CIA की ही सबसे बड़ी भूमिका रही थी।
अब ट्रम्प प्रशासन ने दोबारा तिब्बत मुद्दे को प्राथमिकता देने का काम किया है। अगर अमेरिका के कहने के बाद दुनियाभर के लोकतान्त्रिक देश Reciprocal Access to Tibet Act जैसे कानून पास करते हैं, तो यह ना सिर्फ CCP के लिए बहुत बड़ा झटका साबित होगा बल्कि तिब्बत की आज़ादी का मुद्दा एक वैश्विक आंदोलन भी बन जाएगा! अमेरिका अब तिब्बत के मुद्दे का वैश्वीकरण कर चीन पर अधिक से अधिक दबाव बनाना चाहता है और CCP की सुरक्षा नीति को कमजोर करना चाहता है।
पिछले कुछ समय में चीन में भी तिब्बत को लेकर असुरक्षा की भावना बढ़ी है। यही कारण है कि अब चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने Xinjiang की भांति ही तिब्बत की संस्कृति का “चीनीकरण” करना शुरू कर दिया है। चीनी सरकार और चीनी सेना तिब्बत में ट्रेनिंग कैंप्स खोलकर अब तिब्बत क्षेत्र के लोगों को “जिनपिंग नीति” का पाठ पढ़ाने जा रही है। चीन को डर है कि कहीं बाहरी समर्थन के कारण तिब्बत के लोग चीनी सरकार के कब्जे के विरुद्ध विद्रोह ना छेड़ दें!
अभी तक तिब्बत पर अपने कब्जे को लेकर चीन को कोई चिंता नहीं थी। ऐसा इसलिए क्योंकि अमेरिका और भारत, दोनों ने ही तिब्बत मुद्दे को अपनी प्राथमिकताओं से दूर कर कर दिया था। 70 के दशक में जब अमेरिका-चीन के कूटनीतिक रिश्तों का नया अध्याय लिखा जा रहा था, तो अमेरिका ने तिब्बत मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया था। 70 के दशक के बाद अमेरिका ने तिब्बत मुद्दे को गंभीरता से लेना बंद कर दिया। उस वक्त के अमेरिकी राष्ट्रपति वर्ष 1972 में चीनी राष्ट्रपति माओ जेडोंग से मिलने पहुंच गए थे। उस वक्त तक अमेरिका सोवियत को घेरने के लिए इतना बेताब हो गया था कि वह इसके लिए चीन को भी अपने पाले में करना चाहता था। इसलिए अमेरिका ने चीन की तरफ हाथ बढ़ाने की पहल की। दूसरी तरफ भारत और रूस की बढ़ती दोस्ती के कारण अमेरिका और चीन को लेकर भारत का रवैया भी काफी बदल गया।
हालांकि, ट्रम्प प्रशासन ने आने के बाद तिब्बत के महत्व को दोबारा समझा। राष्ट्रपति ट्रम्प के नेतृत्व में अमेरिका ने भारत में मौजूद तिब्बत की निर्वासित सरकार को 1 मिलियन डॉलर की आर्थिक सहायता प्रदान करने का ऐलान किया, White House में पहली बार तिब्बती सरकार के राष्ट्रपति Lobsong Sangay को निमंत्रित किया गया, और इसके साथ ही अब USA ने तिब्बत को चीन का हिस्सा मानने से ही मना कर दिया है।
BIG BREAKING
In State Dept's latest report on China,
USA calls Tibet a militarily occupied territory by the Chinese Communist Party. @IndoPac_Info pic.twitter.com/mE5mGj5yC9— Vikrant Singh (@VikrantThardak) November 19, 2020
तिब्बत में चीन के लिए मुश्किलें खड़ी करने के लिए भारत की ओर से भी कई कदम उठाए गए हैं। भारत-तिब्बत बॉर्डर पर भारत-चीन की सेनाओं के बीच हुई हालिया झड़पों में जिस प्रकार भारत ने अपनी अति-आक्रामक और आधुनिक Special Frontier Force का इस्तेमाल किया और तिब्बती शरणार्थियों को चीनी सेना से बदला लेने का अवसर दिया, उसने चीनी सरकार में भय का माहौल पैदा कर दिया है।
अब जब अमेरिका ने अपने साथी देशों से तिब्बत में अत्याचार कर रहे चीनी अधिकारियों पर प्रतिबंध लगाने का फैसला लिया है, तो तिब्बत की आज़ादी का मुद्दा अमेरिका और भारत से आगे बढ़कर अब एक वैश्विक आंदोलन बनने जा रहा है।