White House में जो बाइडन की एंट्री होने में अब ज़्यादा वक्त नहीं बचा है, और ऐसे में अमेरिका की आगामी अफ़गान नीति को लेकर नई दिल्ली में अभी से तैयारी होना शुरू हो गयी है। डोनाल्ड ट्रम्प अफ़गानिस्तान से सभी अमेरिकी सैनिकों को बाहर निकालने के पक्ष में थे, जिसने एक चिंतित भारत को तालिबान पर अपना रुख नर्म करने के लिए बाध्य कर दिया था। भारत को उम्मीद है कि अब जब बाइडन सत्ता संभालेंगे, तो वे अफ़ग़ानिस्तान में एक तय संख्या में अमेरिकी सैनिकों की तैनाती को बरकरार रखेंगे, जो भारत और अफ़गान सरकार के पक्ष में है। इसीलिए तो अब भारत ने दोबारा तालिबान के खिलाफ सख़्त रुख अपनाने के संकेत दिये हैं।
दरअसल, हाल ही में भारत और उज्बेकिस्तान के बीच हुई एक वर्चुअल समिट के दौरान भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अफ़गानिस्तान में बढ़ रहे “आतंकवाद” पर अपनी चिंता व्यक्त की। मोदी ने यह भी कहा कि क्षेत्र में हिंसा, कट्टरपंथ और अतिवाद को लेकर भारत और उज्बेकिस्तान की चिंताएँ एक समान ही हैं। इतना ही नहीं, इसके साथ ही भारत ने UN में भी तालिबान को लताड़ लगाई है। UN में बोलते हुए भारत की ओर से राजदूत नागराज नायडू ने कहा “तालिबान और अन्य आतंकवादी समूहों द्वारा की जा रही हिंसा से अफ़गानिस्तान की सुरक्षा को खतरा पैदा हुआ है। शांति वार्ता और हिंसा एक साथ जारी नहीं रह सकती।” भारत की ओर से दिखाया जा रहा तालिबान के खिलाफ यह सख़्त रुख दिखाता है कि बाइडन प्रशासन के साथ मिलकर भारत दोबारा अफ़गान सरकार को ज़्यादा महत्व देने की नीति को दोबारा अपना सकता है।
भारत क्षेत्र की बड़ी ताकत है और ऐसे में यह बात तालिबान भी भली-भांति जानता है कि अगर उसे अफ़गान सत्ता पर अपनी पकड़ बनानी है, तो उसे भारत के कूटनीतिक समर्थन की आवश्यकता होगी। शायद इसलिए, तालिबान ने नई दिल्ली को आश्वासन देते हुए कहा था कि वह कश्मीर के जिहादियों को किसी भी सूरत कोई समर्थन प्रदान नहीं करेगा। इसके साथ ही तालिबान ने यह भी साफ किया था कि वह भारत के अंदरूनी मामलों में कभी दख्ल नहीं देगा। हालांकि, इन वादों के एवज में भारत अफ़गानिस्तान की शांति वार्ता में अफ़गान सरकार की भूमिका को कमतर करने के पक्ष में नहीं दिखाई देता।
भारत शुरू से ही तालिबान का कोई खास प्रशंसक नहीं रहा है। 90 के दशक में तो भारत खुलकर तालिबान के खिलाफ बोलता था। आने वाले दशकों में भारत ने अफ़गान सरकार के प्रति अपना समर्थन जताना तो जारी रखा, लेकिन तालिबान के खिलाफ अपने रुख में थोड़ा बदलाव भी किया। ट्रम्प प्रशासन के आने के बाद तो भारत को अफ़गानिस्तान की राजनीति में तालिबान की बड़ी भूमिका को स्वीकार करना पड़ा। इसी साल दोहा में जब अमेरिका और तालिबान के बीच एक शांति समझौता हुआ, तो मौके पर भारत भी मौजूद था। भारत तालिबान से दूरी भी नहीं बना सकता था, और इसके तीन मुख्य कारण हैं:
- तालिबान के सत्ता में आने के बाद अफगानिस्तान में जारी भारतीय प्रोजेक्ट्स और निवेश की सुरक्षा
- पाकिस्तान और चीन का तालिबान पर बढ़ता प्रभाव
- जम्मू-कश्मीर में जिहादियों को मिलता बाहरी समर्थन
इन कारणों की वजह से भारत तालिबान के साथ मेज पर बैठने पर मजबूर हुआ। हालांकि, अब तालिबान के खिलाफ़ भारत के सख़्त रवैये से यह साफ़ है कि बाइडन प्रशासन के तहत दोबारा अफ़गान सरकार का प्रभुत्व बढ़ सकता है और नई दिल्ली इसी ओर ज़ोर लगाने वाली है। अफ़गान सरकार पर भारत का अच्छा खासा प्रभाव है और भविष्य में अगर अफ़गान सरकार को सत्ता में बड़ा हिस्सा मिलता है तो यह भारत के लिए सबसे अच्छी खबर होगी। यही कारण है कि अब भारत तालिबान को आड़े हाथों लेने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता।