पिछले तीन दशकों में भारत की जनसँख्या के बीच शिक्षा का स्तर तेजी से बढ़ा है। खासकर एससी, एसटी, और ओबीसी के वर्ग ने शिक्षा के मामले में सामान्य वर्ग के साथ अंतर को कम करने में सफलता हासिल की है। यह सिर्फ कहने के लिए नहीं बल्कि NSSO 2004-05, Periodic Labour Force Survey 2017-18 के आंकड़ों के साथ-साथ National Sample Survey, 75वा राउंड भी बताता है। मद्रास स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रोफेसरों द्वारा ThePrint में लिखी गयी एक रिपोर्ट के अनुसार, “पिछले एक दशक से, शहरी भारत के सभी सामाजिक समूहों में शिक्षा का स्तर बढ़ा है। ओबीसी से संबंधित लोगों का शिक्षा पैटर्न अब जनरल कटेगरी के समान है।” रिपोर्ट में आगे लिखा है, “अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बीच प्राथमिक शिक्षा से परे शिक्षित युवा पुरुषों के अनुपात में भी तेज वृद्धि हुई है।”
हालांकि, NSS के 75 वें राउंड के आंकड़े बताते हैं कि मुसलमानों के बीच शैक्षिक उपलब्धि का स्तर एससी और एसटी से भी कम है। गरीबी में मुस्लिम परिवारों के बीच कम शैक्षिक उपलब्धि इस समुदाय के बीच कम economic mobilization को दर्शाता है।
मुसलमानों में साक्षरता दर 68 प्रतिशत है जबकि सामान्य आबादी में यह 73 प्रतिशत है। 6-14 उम्र के बच्चों का प्रतिशत, जो कभी स्कूल नहीं गए, उनकी कुछ जनसंख्या का 4.4 प्रतिशत है जबकि मुसलमानों में यह 8.7 प्रतिशत है, जो कि राष्ट्रीय औसत से लगभग दोगुना है। मुस्लिम बच्चों में ड्रॉपआउट दर सबसे अधिक है, जिसके परिणामस्वरूप मुस्लिम स्नातकों का प्रतिशत भी बहुत कम है। जैसे जैसे हम उच्च शिक्षा की और बढ़ेंगे मुसलमानों और अन्य समुदायों के बीच की खाई और चौड़ी होती दिखाई देती है।
इसके अलावा, SC / ST के बाद मुस्लिम बच्चों में कुपोषण की दर सबसे अधिक है, जबकि अविकसित बच्चों का कुपोषण दर SC / ST से भी अधिक है।
एससी, एसटी और ओबीसी समुदाय ने आरक्षण के तहत लाभ को पाने के लिए शिक्षा को अधिक से अधिक अपनाया। मद्रास स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रोफेसरों द्वारा The Print में लिखे गए रिपोर्ट के अनुसार, “उच्च शिक्षा के स्तर में कुछ वृद्धि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा सकारात्मक कामों का परिणाम हो सकता है जैसे कि उच्च शिक्षा संस्थानों में सीटें में आरक्षण और कुछ जातियों के छात्रों के लिए प्रवेश आवश्यकता की सीमा में कमी।“
हालांकि, मुस्लिम समुदाय, जिनमें से अधिकांश ओबीसी श्रेणी में शामिल हैं, उन्होने न तो आरक्षण का लाभ लिया है और न ही आर्थिक उदारीकरण का जिसने हर जाति और समुदाय के लिए आर्थिक समृधि के द्वार खोले हैं।
मुस्लिम परिवारों की आय बहुत कम है। शहरी क्षेत्रों में, महिलाओं की श्रमिक भागीदारी दर अन्य समुदायों से अच्छी है, लेकिन मुस्लिम आबादी के लिए यह सबसे कम है। यह इस तथ्य के कारण भी है कि अशिक्षित मुस्लिम आसानी से इमामों और उलेमाओं की बातों से प्रभावित होते हैं जो आधुनिकता और formal workforce में महिलाओं की भागीदारी के खिलाफ खड़े होते हैं।
यही नहीं formal public and private sector की नौकरियों में वेतन पाने वाले श्रमिकों की संख्या भी मुस्लिम समुदाय में सबसे कम है। सर्विस, न्यायपालिका, आदि जैसे उच्च-स्तरीय सरकारी नौकरियों में मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व बहुत कम है।
यानि देखा जाये तो महिला कर्मचारियों की कम भागीदारी, पुरुष कर्मचारियों के बीच कम औपचारिक रोजगार, नौकरशाही, न्यायपालिका और सरकारी संरचना में कम प्रतिनिधित्व मुस्लिम आबादी की आय और आर्थिक संभावनाओं को बुरी तरह चोट पहुँचाता है।
यह एक दुष्चक्र है जिसमें अनपढ़ माता-पिता अधिक बच्चे पैदा करते हैं और कम आय के कारण ये बच्चे कम वजन और कुपोषित रहते हैं। माता-पिता की कम आय बच्चों को शिक्षा से दूर ले जाती है और ये बच्चे फिर अगली पीढ़ी के लिए वही दोहराते हैं। दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस मुस्लिम-हितैषी पार्टी होने के बावजूद यह दुष्चक्र सात दशकों से जारी है। मुस्लिम समुदाय को अब यह समझना होगा कि अब उन्हें किसका समर्थन करना है जिसने 7 दशकों से इस समुदाय को पीढ़ी दर पीढ़ी गरीबी के दुष्चक्र में रखा है या फिर जो उसके लिए नए नए आर्थिक संभावनाओं के द्वार खोल रहा है।