इन दिनों गुलाम नबी आजाद काफी चर्चा में रहते हैं, लेकिन इसलिए नहीं क्योंकि वे कांग्रेस के सदस्य हैं। इसलिए भी, क्योंकि कांग्रेस के सदस्य होते हुए भी वे न केवल राष्ट्रवाद के पक्षधर बन रहे हैं, बल्कि पीएम नरेंद्र मोदी की नीतियों से काफी प्रभावित भी दिख रहे हैं। अभी हाल ही में उन्होंने पीएम नरेंद्र मोदी की प्रशंसा करते हुए कहा कि उन्हें गर्व है कि वे [पीएम मोदी] अन्य नेताओं की तरह नहीं है, और जमीन से जुड़े हुए नेता हैं। इससे स्पष्ट संकेत जाता है कि गुलाम नबी आजाद उन नेताओं में से हैं, जिन्हे कांग्रेस में रहते अपने मन की नहीं करने दी गई।
एक कार्यक्रम के दौरान गुलाम नबी आजाद ने कहा, “मुझे बहुत सारे नेताओं की बहुत सी अच्छी-अच्छी बातें पसंद आती हैं। जैसे कि हमारे प्राइम मिनिस्टर हैं, वो कहते हैं कि मैं बर्तन मांजता था और चाय बेचता था। सियासी तौर पर हम उनके खिलाफ हैं, लेकिन कम से कम वे असलियत वे नहीं छिपाते हैं। आपने अपनी असलियत छिपाई तो आप एक ख्याली और बनावटी दुनिया में रहते हैं। आदमी को अपनी असलियत पर फख्र होना चाहिए”
अब गुलाम नबी आजाद के इस वक्तव्य से इतना तो स्पष्ट है कि उनका उद्देश्य क्या है। जिस प्रकार से कांग्रेस की निरंतर सेवा करने के बाद भी उन्हे पार्टी में व्यापक बदलाव की मांग करने के लिए राहुल गांधी और उसके चाटुकारों द्वारा अपमानित किया गया और जिस प्रकार से उनकी राज्यसभा की सदस्यता को उनके कद और उनकी लोकप्रियता के बावजूद नहीं बढ़ाया गया, वह किसी से नहीं छुपा है।
इसीलिए गुलाम नबी आजाद अपनी पार्टी की लाइन से ठीक इतर राष्ट्रवाद को बढ़ावा दे रहे हैं, और उनका रुख स्पष्ट है – राष्ट्र हित से कोई समझौता नहीं। जब से वे नरेंद्र मोदी की राष्ट्रवादी नीतियों के पक्षधर बने हैं, तभी से कयास लगाए जा रहे हैं कि वे भाजपा से जुड़ भी सकते हैं। यदि ऐसा सच में होता है तो न सिर्फ गुलाम नबी आजाद को अपना जनाधार बढ़ाने का अवसर मिलेगा, बल्कि वे सही मायनों में आजाद भी कहलाएंगे।
अभी कुछ ही दिनों पहले कांग्रेस के नेतृत्व में व्यापक बदलाव की मांग करने वाले 23 नेताओं के समूह ने जम्मू में बैठक की, जहां उन्होंने कांग्रेस हाइकमान को अपने गिरेबान में झाँकने की सलाह दी। इनमें अग्रणी थे कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आजाद, जिन्होंने कांग्रेस के नेतृत्व में कई कमियाँ भी गिनाई। कपिल सिब्बल के अनुसार वर्तमान कांग्रेस काफी कमजोर हैं और इसमें व्यापक बदलाव की आवश्यकता है।
ये बात गुलाम नबी आजाद के परिप्रेक्ष्य में भी सटीक बैठती है, जिन्हे कांग्रेस में कई योग्य एवं कर्मठ नेताओं की तरह अनदेखी और अपमान का सामना करना पड़ा। जब गुलाम नबी आजाद कश्मीर के मुख्यमंत्री थे, तो उन्होंने कांग्रेस की लोकप्रियता को बढ़ावा देने के लिए कई सुधारवादी कदम उठाए, जिसमें एक कदम ये भी था कि कश्मीर में अमरनाथ जैसे तीर्थस्थलों के लिए भूमि अधिग्रहण से संबंधित कार्यों में सरलता प्रदान की जाएगी।
ये कांग्रेस की गठबंधन सरकार की ओर से एक अप्रत्याशित कदम था, जिससे कश्मीर घाटी में वर्षों बाद शांति आ सकती थी, और समृद्धि भी। परंतु कट्टरपंथी मुसलमानों और कांग्रेस के राष्ट्रीय इकाई की अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की नीति के कारण न सिर्फ इस निर्णय को वापिस लेना पड़ा, बल्कि गुलाम नबी आजाद को भी अपने पद से इस्तीफा देने पर विवश किया गया।
इसके बावजूद निजी तौर पर गुलाम नबी आजाद की लोकप्रियता न कम हुई, और न ही उन्होंने कश्मीरी नागरिकों के अधिकारों के विषय पे अपनी बात रखनी बंद की। लेकिन कहीं न कहीं कांग्रेस हाइकमान की बेढंगी नीतियों का खामियाजा उन्हे भी भुगतना पड़ता था, जिसकी झुंझलाहट अप्रत्यक्ष तौर पर उनके राज्यसभा में अंतिम भाषण के तौर पर भी दिखी। ऐसे में गुलाम नबी आजाद का वर्तमान रुख एक स्पष्ट संदेश देता है – यदि अवसर मिले, तो वे अपने पुराने पापों का प्रायश्चित करने को भी तैयार है।