देशभर में कोरोना दिन प्रतिदिन विकराल हो रहा है। फरवरी में कोरोना केवल केरल, पंजाब, महाराष्ट्र और उसकी सीमा से जुड़े राज्यों में ही फैला था, लेकिन मार्च के अंत तक इसने पूरे देश को अपनी चपेट में ले लिया है। जहाँ केरल और महाराष्ट्र में बढ़ते मामलों के पीछे राज्य सरकारों की असफलता रही वहीं पंजाब की बात करें तो इसे बढ़ाने में ब्रिटेन से वापस आए NRI लोगों की सबसे बड़ी भूमिका थी।
भारत में UK वैरिएंट के शुरुआती केस 29 दिसम्बर को मिले थे। हालांकि, शुरुआती 6 मामलों में एक भी पंजाब से जुड़ा नहीं था। ये मामले बैंगलौर, हैदराबाद और पुणे में मिले थे। किन्तु इन राज्यों में UK वैरिएंट शुरू में नहीं फैला। इसने भारत में पाव पसारने तब शुरू किया जब किसान आंदोलन में शामिल होने के लिए बड़ी संख्या में NRI पंजाब आने लगे।
दिसम्बर में ही किसानों ने यह स्पष्ट कर दिया था कि उन्हें ब्रिटिश NRI समर्थन कर रहे हैं। 26 जनवरी की ट्रैक्टर परेड में हिस्सा लेने के लिए भी बड़ी संख्या में अप्रवासी सिख भारत आए। फरवरी-मार्च से ही पंजाब में कोरोना के मामले बढ़ने लगे। इसमें से अधिकांश मामले ब्रिटिश वैरिएंट के ही थे।
मार्च में स्वयं मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने स्वीकार किया था कि पंजाब सरकार ने 401 सैम्पल जीनोम सिक्वेनसिंग के लिए भेजे थे, जिसमें से 81 प्रतिशत मामले ब्रिटिश वैरिएंट के मिले थे। यह मामले कितनी तेजी से बढ़े इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मार्च की शुरुआत में कुल मामलों का 11 प्रतिशत ही ब्रिटिश वैरिएंट से जुड़े थे। मार्च के अंत तक यह आंकड़ा 81% हो गया। मार्च महीने तक दिल्ली में भी तेजी से नए मामले सामने आने लगे थे।
अप्रैल की शुरुआत में स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने इसकी जानकारी देते हुए, इस परिस्थिति के लिए स्थानीय चुनावों, शादियों के साथ ही किसान आंदोलन को दोषी ठहराया था। किसान आंदोलन में पंजाब के किसानों की कितनी बड़ी भागीदारी थी यह सर्वविदित है, ऐसे में यह साफ जाहिर है कि किसान आंदोलन ने कोरोना के फैलने में सबसे बड़ी भूमिका अदा की।
बता दें कि UK वैरिएंट कोरोना के पुराने वैरिएंट की अपेक्षा 80% तेजी से फैलता है। यही कारण था कि दिल्ली में जुटे किसानों के जरिए यह वायरस पूरे उत्तर भारत में फैल गया। इस समय हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली समेत समस्त उत्तर भारत में यही वैरिएंट फैला है, दक्षिण भारत में इसकी उपस्थिती उतनी नहीं है, जबकि सबसे शुरुआती मामले दक्षिण भारतीय राज्यों में ही सामने आए थे।
जब सरकार बार-बार किसान आंदोलन को लेकर चेतावनी दे रही थी, अपील कर रही थी कि इससे कोरोना फैलेगा तो उनकी अपील को अनसुना किया गया। मार्च के शुरुआत में किसान आंदोलन के नेताओं ने यह एलान किया था कि वो कोरोना से नहीं डरते, उन्होंने वैक्सीन लेने से इनकार किया था। उनकी खोखली भाषणबाजी का परिणाम आज पूरा उत्तर भारत भोग रहा है। आज कोई राजनीतिक दल इसपर प्रश्न नहीं उठाएगा क्योंकि चुनाव अभियान में सभी दलों ने वही कार्य किया है, जो किसान नेता अपनी रैलियों में कर रहे थे, सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जि उड़ाना और कोरोना प्रोटोकॉल का उल्लंघन करना। ऐसे में किसी राजनीतिक दल के पास यह नैतिक बल नहीं कि वह उन किसानों से प्रश्न करे जो आज भी अपनी जगह छोड़ने को तैयार नहीं हैं।
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हाई कोर्ट भी चुनाव आयोग को कठघरे में खड़ा कर रही है, उनसे कह रही है कि कोर्ट के बार-बार कहने पर भी आयोग ने कोरोना प्रोटोकॉल का पालन नहीं करवाया। किन्तु देश के किसी न्यायालय ने तब प्रश्न क्यों नहीं किया जब किसान आंदोलन में यही गलतियां हो रही थीं। हमारी संवैधानिक इकाइयों की अक्षमता, हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों के ह्रास और नागरिक के रूप में हम सभी का गैर जिम्मेदाराना रवैया, आज के संकट का कारण है। अफसोस हम अब भी इससे सीख नहीं लेंगे।