गोलमाल, हेट स्टोरी, कोई मिल गया, मिर्ज़ापुर, सेक्रेड गेम्स इत्यादि में कॉमन क्या है? चाहे वेब सीरीज हो या फिल्में, हमारे बॉलीवुड में बहुत कम ऐसे फिल्में होती हैं, जिनका अपना एक अलग नजरिया होता है, और वह काफी हद तक सफल भी रहती हैं। लेकिन उसे और अधिक सफल बनाने के लिए कभी कभी यही लोग इन प्रोजेक्ट्स के सीक्वेल भी लाते हैं।
लेकिन बहुत कम ही शो ऐसे होते हैं, जो अपने मूल फिल्म के आसपास भी ठहर पाने में कामयाब होते हैं। ऐसा क्यों होता है कि बाहुबली के पहले संस्करण के मुकाबले दूसरा संस्करण अधिक धमाकेदार निकलता है, परंतु वहीं ‘गोलमाल’ की पहली फिल्म के मुकाबले दूसरी फिल्म फिसड्डी सिद्ध होती है।
सीक्वेल का ट्रेंड बॉलीवुड के लिए नया नहीं है। 1935 में एक फिल्म आई थी ‘हंटरवाली’, जिसमें पहली बार एक महिला कलाकार ने मुख्य भूमिका निभाई थी। यह मूवी इतनी सफल रही कि 1943 में इसका दूसरा भाग भी सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुआ –‘हंटरवाली की बेटी’ दोनों में एक बात समान थी – दोनों में मुख्य भूमिका एक ही महिला ने निभाई थी – मेरी एन एवन्स उर्फ फ़ियरलेसनादिया।
तब से अब तक भारतीय सिनेमा में अनेकों ऐसे मौके आए हैं, जहां पर एक सफल फिल्म की सफलता को और पुख्ता बनाने हेतु फिल्मकार या तो उसका दूसरा भाग लेके आते हैं, या फिर उन फिल्मों की पूरी शृंखला बनाते हैं। बॉलीवुड भी अन्य उद्योगों की तुलना में कहीं भी पीछे नहीं रहा है, परंतु अन्य उद्योगों की भांति ऐसा बहुत कम हुआ है जब मूल फिल्म की तुलना में उसका दूसरा भाग या सीक्वेल कहीं भी टिका हो या सफल हुआ हो।
‘मुन्नाभाई’, ‘हेराफेरी’ या ‘तनु वेड्स मनु’ जैसे कुछ चंद ही फिल्में रही हैं, जिन्हे पहली फिल्म से भी धमाकेदार या फिर पहली फिल्म के प्रभाव के साथ न्याय करने वाला सीक्वेल मिला हो, वरना आजकल सीक्वेल के नाम पर हमें क्या परोसा जाता है, ये आप ‘सड़क 2’ जैसी फिल्में देखकर भली भांति समझ सकते हैं।
यही हाल OTT पर भी है, जहां पहले संस्करण के मुकाबले दूसरा संस्करण उतना प्रभावशाली नहीं रहा है। ‘गुल्लक’ को छोड़ दें, तो चाहे वह ‘मिर्ज़ापुर’ हो, ‘सेक्रेड गेम्स’ हो या फिर ‘आश्रम’, इनके द्वितीय संस्करण पहले संस्करण के मुकाबले उतने प्रभावी अथवा दमदार नहीं रहे हैं।
लेकिन इसका कारण क्या है? आखिर क्या वजह कि चाहे सिल्वर स्क्रीन हो, या फिर OTT, बॉलीवुड प्रभावशाली सीक्वेल बनाने के मोर्चे पर फिसड्डी सिद्ध हुआ है? इसके पीछे दो प्रमुख कारण है – लोकप्रियता की चाह में कंटेन्ट से समझौता और वामपंथी तुष्टीकरण।
लोकप्रियता की चाह में कंटेन्ट से समझौता बॉलीवुड की पुरानी बीमारी रही है। कभी कभी लाइमलाइट के लिए ऐसे लोगों को नकार दिया जाता है, जो उसी फिल्म में चार चाँद लगा सकते हैं। उदाहरण के लिए गोलमाल सीरीज़ और रेस सीरीज़ पर नजर डालते हैं।
दोनों ही फिल्में यदि दमदार फिल्में नहीं थी, तो मनोरंजक अवश्य थी, और लोगों ने जमकर इन दोनों फिल्मों का आनंद उठाया। लेकिन जब गोलमाल का सीक्वेल बनाने की बात आई, तो मूल फिल्म के लेखक नीरज वोरा [जिन्होंने ‘फिर हेराफेरी’ जैसी शानदार सीक्वेल फिल्म लिखी और निर्देशित की] को हटाकर फरहाद साजिद नामक लेखकों को नियुक्त किया गया, और दो सफल फिल्मों के बाद मूल निर्देशक अब्बास मस्तान को हटाकर रेमो डिसूज़ाको रेस के तृतीय संस्करण की कमान सौंप दी गई। इन दोनों सीरीज़ का हश्र क्या हुआ, जनता बेहतर जानती है।
लेकिन यही एक समस्या नहीं है जिसके कारण सीक्वेल भारत में फ्लॉप होते हैं। OTT पर अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए फ़िल्मकारों ने एक नया पैंतरा ढूंढ निकाला – वोक, वामपंथी कल्चर को बढ़ावा देना और भारतीय संस्कृति का अपमान करना।
सेक्रेड गेम्स और मिर्ज़ापुर के पहले संस्करणों में भी सनातन संस्कृति को नीचा दिखाने का भरपूर प्रयास किया गया, लेकिन कम से कम मनोरंजन के पैमाने पर तो वे खरे उतरे थे। कुछ वेब सीरीज़ तो ऐसे थे कि पहला तो पहला, दूसरा तो उससे भी ज्यादा विषैला और सनातन विरोधी निकला। विश्वास नहीं होता तो ‘फोर मोर शॉट्स प्लीज़’ ही देख लीजिए।
कुल मिलाकर देखा जाए तो बॉलीवुड के लिए दमदार कंटेन्ट से अधिक पैसा कमाना मायने रखता है। इसलिए वे ऐसी फिल्मों को बढ़ावा देते हैं जिससे उनकी जेबें खाली न हो, चाहे उनके समर्थक भले रूठ जाएँ। जितनी मेहनत वे एक फिल्म के सीक्वेल को अधिक वोक और चमकदार बनाने में फूंकते हैं, अगर उसका आधा भी एक अच्छी स्क्रिप्ट में निवेश करते, तो देश में भरभरके ऑस्कर और एमी अवॉर्ड लाए जाते।