हाल ही में अमेरिका के राष्ट्रपति ने एक बड़ा फैसला लेते हुए एंटी कोरोना वैक्सीन के पेटेंट अधिकार हटाने के भारत के प्रस्ताव का समर्थन किया था। अमेरिका के इस फैसले के बाद दुनिया को जल्दी से जल्दी वैक्सीन आपूर्ति की संभावना बढ़ गई थी किंतु अब जर्मनी ने इस मामले में अपनी टांग अड़ाते हुए, भारत के प्रस्ताव का विरोध किया है।
बता दें कि भारत ने दुनिया की प्रभावी शक्तियों के सम्मुख एक प्रस्ताव रखा था कि जो देश कोरोना की वैक्सीन बना लेते हैं, वह अपने पेटेंट और बौद्धिक संपदा के कानूनी अधिकार को छोड़ दें। जब किसी देश में कोई तकनीक या वैक्सीन जैसी कोई वस्तु बनाई जाती है तो उसे बनाने वाली कंपनी अथवा वह देश अपने नाम पर उस वस्तु पर पेटेंट करा लेता है। जो भी तकनीक या वैक्सीन किसी कंपनी द्वारा बनाई जाती है, वह उस कंपनी की बौद्धिक संपदा होती है, जिसे बिना अनुमति इस्तेमाल करना अथवा उसकी नकल बनाना, गैरकानूनी होता है। बौद्धिक संपदा के इस नियम को दुनिया के लगभग सभी देश मानते हैं, WTO के तहत इससे जुड़ा एक वैश्विक समझौता है, जिसपर भारत, चीन, फ्रांस, रूस, जर्मनी, अमेरिका आदि सभी देशों ने हस्ताक्षर किए हैं।
किन्तु जब कोरोना फैला और दुनिया के अमीर देशों में वैक्सीन निर्माण के लिए शोध शुरू हुआ तो भारत और दक्षिण अफ्रीका ने यह प्रस्ताव रखा कि जो देश वैक्सीन निर्माण कर लेते हैं वह अपनी वैक्सीन पर से अपने पेटेंट के कानूनी अधिकार को हटा लें, जिससे यह गरीब देशों को मुफ्त में अथवा बहुत कम दामों में उपलब्ध हो सके। इसके पीछे यह योजना थी कि अमीर देश वैक्सीन की तकनीक को गरीब देशों से साझा करेंगे, जिससे वो अपने ही देश में छोटे बड़े पैमाने पर वैक्सीन निर्माण शुरू कर सकें।
किंतु शुरू में अमेरिका ने इस प्रस्ताव को लटकाए रखा और अब जर्मनी ने इसका विरोध किया है। जर्मनी की सरकार का कहना है कि यह प्रस्ताव कई समस्याओं को जन्म देगा। जर्मनी के मुताबिक यदि निजी कंपनियों के लाभ ही खत्म कर दिए जाएंगे तो वह भविष्य में ऐसे शोध कार्य में रुचि नहीं लेंगे। जर्मनी की सरकार का तर्क है कि बौद्धिक संपदा की सुरक्षा का कानून अनुसंधान के क्षेत्र में नए नए अन्वेषण का अवसर देता है। साथ ही जर्मन सरकार का कहना है कि वैक्सीन का पेटेंट दे भी दिया जाता है तो भी गरीब देश इस वैक्सीन की नकल बनाने में सक्षम नहीं होंगे।
किन्तु इसका एक और पहलू भी है। दुनिया जानती है कि वैक्सीन की वैश्विक जरूरत को पूरा करने के लिए आवश्यक इंफ्रास्ट्रक्चर और श्रम केवल भारत के पास ही है। अभी दो भारतीय कंपनी वैक्सीन निर्माण कर रही हैं। इसके अलावा जॉनसन एंड जॉनसन भी भारत के जरिए ही ‛Mass Production’ अर्थात बड़े पैमाने पर उत्पादन करेगा। ऐसे में अगर अन्य वैक्सीन का फॉर्मूला भी भारत को आसानी से मिल जाता है तो कई और भारतीय कंपनियां तेजी से वैक्सीन आपूर्ति के काम में जुट जाएंगी।
इससे भारत वैश्विक जरूरत तो पूरी करेगा ही साथ ही भारत की सॉफ्ट पावर भी बढ़ेगी, कूटनीतिक प्रभाव में वृद्धि होगी और भारतीय कंपनियों को अत्यधिक लाभ होगा। जबकि जर्मनी की सोच है कि उसके फार्मास्युटिकल सेक्टर को ही लाभ हो, भले इसके लिए दुनिया को सालों तक वैक्सीन का इंतजार करना पड़े।
मर्कल जानती हैं कि जर्मन फार्मास्युटिकल भारतीय फार्मा सेक्टर के सामने नहीं टिक सकेगा। हाल ही में उन्होंने बयान दिया था कि यूरोप ने भारत को दुनिया का फार्मा हब बनाया है। हालंकि, उनका बयान कोरी बकवास था जो केवल जातीय दम्भ के कारण दिया गया था। कोई देश अपनी इच्छा से दूसरे देश को वैश्विक शक्ति नहीं बनने देता, भारत का फार्मा सेक्टर अपने सामर्थ्य पर खड़ा है, किसी की मदद से नहीं। मर्कल के बयान में उनकी चिढ़ साफ दिख रही थी, और अब उनके फैसले इस बात पर मुहर लगाते हैं कि वह भारतीय फार्मा सेक्टर की बढ़ती ताकत से भयभीत हैं।
यह सत्य है कि दुनिया में किसी भी देश से यह उम्मीद नहीं कि जा सकती कि वह अपना लाभ न देखे, किन्तु लाभ के लिए दुनिया को वैक्सीन का इंतजार करवाना, यह पूर्णतः अनैतिक है। जर्मन कंपनियां सक्षम हैं तो पेटेंट का कानूनी अधिकार हटने पर भी भारतीय कंपनियों से प्रतिस्पर्धा कर सकती हैं।