पश्चिम बंगाल में चुनावों के बाद से जारी हिंसा को लेकर देशभर में हिंदुओं में आक्रोश है। यह आक्रोश सोशल मीडिया पर दिखाई दे रहा है। केंद्र सरकार और राज्य सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है और आये दिन लूटपाट, हत्या, आगजनी, दुष्कर्म आदि की खबरें आ रही हैं।
पश्चिम बंगाल में बीरभूमि से हिन्दू परिवारों के पलायन की भी खबरें आईं। पश्चिम बंगाल में ऐसे हालात हैं जिन्हें देखकर 47′ के विभाजन की विभीषिका याद आ जाए। हिंदुओं का ऐसा ही पलायन सन 71′ के समय वर्तमान बांग्लादेश से हुआ था। 1990 के दशक में इसी प्रकार कश्मीरी हिंदुओं का भी पलायन हुआ था।
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इसके कारण की चर्चा आवश्यक है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि हिन्दू समुदाय के रूप में कार्य नहीं करना जानते। लोकतंत्र में मतभिन्नता सही है किन्तु सवाल जब अस्तित्व का हो तो एकता न दिखाना मूर्खता है। हिन्दू तब तक प्रतिक्रिया नहीं देगा जबतक हिंसा की आग उसके घर तक न आ जाए।
इस समय पश्चिम बंगाल से हिंसा की जो खबरें आ रही हैं, वह पूरे प्रदेश से हैं किन्तु मूलतः उन इलाकों में अधिक हिंसा हो रही है जो बांग्लादेश सीमा के निकट हैं और जिनमें अच्छी खासी मुस्लिम आबादी है।
यह सब देखकर भी शहरों में रहने वाला बंगाली अभिजात्य वर्ग शांत है। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें यह विश्वास है कि हिंसा केवल ग्रामीण इलाकों तक ही फैलेगी। यह सत्य भी है कि शहर में मीडिया के विस्तृत नेटवर्क के कारण हिंसा शहरों में नहीं फैलेगी, लेकिन क्या बंगाली अभिजात्य वर्ग को गावों में मारे जा रहे हिंदुओ को देखकर ऐसे ही चुप रहना चाहिए।
तृणमूल ने बंगाली बनाम बाहरी को इस चुनाव का मूल मुद्दा बनाया, बंगाली संस्कृति के संरक्षण की बात कही। तो आज जो हिन्दू पलायन कर रहा है वह क्या बंगाली संस्कृति का हिस्सा नहीं है, वह बांग्ला नहीं बोलता? हिंदुओं का यही विभाजन धीरे-धीरे कई जगहों पर उनके अस्तित्व को समाप्तप्राय बना चुका है। कश्मीर, पाकिस्तान, बांग्लादेश, केरल, नार्थ ईस्ट एवं पश्चिम बंगाल के कई इलाके इसका उदाहरण हैं।
हिंदुओं के पलायन का एक कारण ऐसे संगठनों की कमी है जो एक केंद्रीय शक्ति की तरह व्यवहार करें। एक ऐसी केंद्रीय शक्ति, जिसके निर्देश पर पूरा समुदाय एकसाथ व्यवहार करें। किन्तु हिंदुओं की यह समस्या आज की नहीं है।
भारत पर पहला आक्रमण 712 ईस्वी में मुहम्मद बिन कासिम के समय हुआ, जबकि पहला इस्लामिक राज्य 1192 में मुहम्मद गोरी ने स्थापित किया। इस दौरान भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर कई हमले हुए, जिनमें सुबुक्तगीन और गजनवी के हमले चर्चित रहे हैं, लेकिन इसके अतिरिक्त भी कई प्रयास हुए जिन्हें ललितादित्य, मिहिरभोज, सुहेलदेव जैसे शासकों ने लगातार असफल किया, किन्तु 400 वर्षों के प्रयास के बाद मुस्लिम शक्तियां भारत भूमि में प्रवेश करने में सफल रही, क्योंकि आत्मरक्षा के हिन्दू प्रयास हमेशा ही असंगठित और व्यक्तिगत रहे जबकि आक्रमणकारी एक केंद्र, खलीफा, के आदेश पर, एक उद्देश्य ही इस्लाम के प्रचार के लिए लड़े। हिंदुओं का यह बंटवारा, पृथ्वीराज और जयचंद, महाराणा प्रताप और मानसिंह के रूप में हमेशा बना रहा।
केंद्रीय शक्ति के अभाव में ही आज यह हालात पैदा हुए हैं। पश्चिम बंगाल में हिंदुओं का पलायन हो रहा है, क्योंकि उनकी रक्षा का जिम्मा अकेले उनके परिवारों पर है। हिन्दू परिवार भी एकाकी हैं, जिनमें अधिकांशतः चार या पांच सदस्यों वाले होते हैं। जब तक हिंदुओं में अपना परिवार देखने की प्रवृत्ति बनी रहेगी, सामूहिक सहअस्तित्व की भावना नहीं जागेगी, तब तक हिंदुओं का ऐसे ही एक एक जगह से पलायन होता रहेगा।