2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से देश की राजनीतिक परिस्थिति हमेशा के लिए बदलने वाली है। अब प्रश्न ये नहीं कि क्या भाजपा पुनः सत्ता में आएगी या नहीं, बल्कि प्रश्न ये है कि कितने अंतर से सत्ता में भाजपा वापसी करेगी। इस चुनाव से कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसी पार्टियों का सफाया होना तय है। इसके साथ ही इसी चुनाव से ये भी सिद्ध हो जाएग कि बसपा प्रमुख मायावती अब पिछड़े वर्ग में पहले जितनी प्रभावशाली हैं या नहीं।
कभी उत्तर प्रदेश की सत्ता को अपने मुट्ठी में समाने वाली मायावती ने फर्श से अर्श तक काफी कुछ देखा, सहा और सीखा है। वह देश की चुनिंदा महिला मुख्यमंत्रियों में से एक रही हैं। समाज सुधारक कांशीराम की देखरेख में पली बढ़ी मायावती ने भाजपा के सहयोग से 1995 में पहली बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इसके बाद 2002 से 2003 तक, और फिर 2007 से 2012 तक उन्होंने उत्तर प्रदेश की सत्ता संभाली है।
मायावती का राजनीतिक करियर उतार चढ़ाव से भरा रहा है। कभी ‘तिलक तराज़ू और तलवार’ जैसे भड़काऊ नारे देने से लेकर सोशल इंजीनियरिंग की नई परिभाषा गढ़ने तक, मायावती ने अनुसूचित जाति और जनजाति में अपने लिए अलग पहचान बनाई है। फिर ऐसा क्या हुआ, जिसके कारण अब मायावती की लोकप्रियता खत्म होने के कगार पर है?
इसके पीछे कुछ प्रमुख कारण है – राष्ट्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी का प्रादुर्भाव, मायावती का अखिलेश यादव के प्रति मोह और पुनः मोहभंग। जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री मात्र थे, तो मायावती केवल यूपी की मुख्यमंत्री नहीं थी, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में भी उनका अच्छा खास प्रभाव था। 2009 में उन्होंने कुल मिलाकर 21 सीटें प्राप्त की थी।
लेकिन अनुसूचित वर्ग पर प्रभाव जमाए रखने और अल्पसंख्यकों को लुभाने के चक्कर में उन्होंने निषाद वर्ग, अति पिछड़ी जातियों को बिल्कुल ही दरकिनार कर दिया। जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने उत्तर प्रदेश की कमान संभाली, तो उन्होंने इसी वर्ग पर ध्यान केंद्रित किया। नतीजा सबके समक्ष था। 2014 में भाजपा की प्रचंड विजय में सर्वाधिक योगदान उत्तर प्रदेश का ही था, जहां अति पिछड़े वर्ग की भारी संख्या में मतदान देने के कारण भाजपा को 71 सीटें प्राप्त हुई। वहीं बसपा को आश्चर्यजनक रूप से एक भी लोकसभा सीट नहीं मिली।
आज मायावती पर अति पिछड़ा वर्ग तो छोड़िए, अनुसूचित वर्ग तक के लोग भरोसा नहीं करते। निषाद वर्ग, अति पिछड़ा वर्ग, ओबीसी एवं अनुसूचित वर्ग के लिए सर्वप्रथम विकल्प भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दल हैं। अपना दल जैसी पार्टियां तो काफी पहले से ही भाजपा को अपना समर्थन दे रही हैं।
लेकिन रही सही कसर उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में पूरी हो गई, जहां बसपा को पहली बार 50 से भी कम सीटें प्राप्त हुई। लेकिन इससे कोई सीख नहीं लेते हुए मायावती ने दशकों पुरानी गलती फिर दोहराई। 2018 में जब मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा हार गई, तो जोश में आकर मायावती ने उसी समाजवादी पार्टी से फिर हाथ मिल लिया, जिसने दशकों पहले उनकी इज्जत लूटने के साथ साथ उनकी जान लेने का भी प्रयास किया था। लेकिन ‘बुआ भतीजा’ का यह गठबंधन किसी को रास नहीं आया, और अनेक चुनौतियों के बावजूद भारतीय जनता पार्टी 64 सीटों के साथ उत्तर प्रदेश के अपने नए गढ़ को बचाने में कामयाब रही। मायावती पुनः खाता तो खोल ली, परंतु उनकी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल चुकी थी।
इसके अलावा मायावती के लिए उत्तर प्रदेश में अब अपना अस्तित्व बचाना भी मुश्किल हो चुका है। पहले तो अटकलें लगाई जा रही थी कि शायद मायावती असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM के साथ चुनाव लड़ेंगी। लेकिन अकेले चुनाव कम से कम मायावती ने अपनी सार्वजनिक बेइज्जती कराने का प्रबंध खत्म कर दिया है। हालांकि अब यह भी सुनिश्चित हो चुका है कि अब मायावती यूपी में पहले जितनी शक्तिशाली नहीं रही।