पश्चिम बंगाल भाजपा नेतृत्व के लिए पिछले 7 वर्षों में कोरोना के बाद शायद सबसे बड़ी समस्या बनकर सामने आया है। भाजपा को TMC ने पराजित किया। हालांकि, भाजपा का प्रदर्शन अच्छा रहा था, लेकिन यह भी सत्य है कि भाजपा नेतृत्व को चुनावों में जीत की उम्मीद थी न कि इस बात की कि उनकी पार्टी तिहाई के आकंड़े से भी नीचे रहेगी। इससे अधिक निराशा चुनाव के बाद हई हिंसा और हिंदुओं के पलायन से पैदा हुई। हिंसा द्वारा भाजपा कार्यकर्ताओं और अन्य हिंदुओं को आतंकित करने का प्रयास हुआ, लेकिन अब मुकुल रॉय के जाने के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं को जैसा झटका लगा है वह न तो चुनावी हार से लगा होगा और न ही हिंसा से।
कारण यह है कि मुकुल रॉय के जाने के बाद इस बात की उम्मीद है कि कई अन्य विधायक भी भाजपा का साथ छोड़ देंगे। रॉय बंगाल के एक प्रभावी नेता हैं। उनके भाजपा में आने के बाद से ही तृणमूल से नेताओं के भाजपा में आने का सिलसिला शुरू हुआ था, ऐसे में भाजपा नेतृत्व इस बात को लेकर चिंतित होगा कि कहीं अब यह प्रक्रिया उल्टी दिशा में काम न करने लगे।
हालांकि, मुकुल रॉय का जाना लगभग तय था, इसके कई कारण हैं। मुकुल रॉय को उम्मीद थी कि भाजपा में शामिल होने पर उनपर लगे शारदा चिटफंड घोटाले के आरोप से उन्हें मुक्ति मिल जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दूसरा कारण यह था कि रॉय को उम्मीद थी कि भाजपा के सरकार बनाने पर यह संभव है कि उन्हें केंद्र में और उनके बेटे को राज्य में कोई मंत्रिपद मिल सकता है। ऐसा भी कुछ नहीं हो पाया। रॉय की तीरसी और आखिरी उम्मीद पश्चिम बंगाल भाजपा का चेहरा बनने की हो सकती थी, किन्तु शुवेन्दु अधिकारी का बढ़ता कद उनकी उम्मीदों पर पानी फेर गया। ऐसे में मुकुल रॉय का तृणमूल में जाना कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं है।
अब सवाल यह है कि भाजपा नेतृत्व अपने विधायकों को टूटने से बचा पाएगा या नहीं। अगर ऐसा हुआ तो यह भाजपा को मुकुल रॉय से होने वाला एकमात्र राजनीतिक नुकसान होगा। अब तक मुकुल रॉय ने भाजपा को केवल लाभ ही दिया है। जो विश्लेषक यह मत व्यक्त कर रहे हैं कि रॉय के कारण भाजपा को कोई लाभ नहीं मिला उनकी धारणा में थोड़ी गलती है। सत्य यह है कि तृणमूल में फूट की शुरुआत ही मुकुल रॉय के कारण हुई थी। भाजपा मुख्य प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरेगा यह चर्चा रॉय के आने के बाद ही शुरू हुई थी। सुवेन्दु जैसा फायरब्रांड नेता भाजपा के साथ है, तो यह उसी फूट का नतीजा है, जो मुकुल रॉय के आने के बाद तृणमूल में पड़ी थी। इसलिए यह मानना की रॉय के आने से भाजपा को राजनीतिक लाभ नहीं हुआ यह गलत है। रही बात उनके जाने के बाद होने वाले नुकसान की तो पश्चिम बंगाल की राजनीति में अगले 5 सालों में जैसा धुव्रीकरण होने वाला है, उसमें अब किस नेता के पास कितना जनाधार है, यह बात अप्रासंगिक होने वाला है। अगले पांच साल की राजनीति तृणमूल और संघ के वैचारिक टकराव की राजनीति है और भाजपा के पास सुवेन्दु के रूप में एक मजबूत चेहरा भी है। ममता भी यह बात समझती है। इसलिए सुवेन्दु का नाम सुनते चिढ़ जाती हैं। मुकुल रॉय अगर भाजपा विधायकों को तोड़ने में सफल नहीं हुए तो उनके जाने का कोई विशेष नुकसान नहीं होने वाला।
इतना अवश्य है कि उनके जाने से भाजपा संगठन पर तृणमूल का मनोवैज्ञानिक दबाव कुछ समय तक बना रहेगा। भाजपा नेतृत्व को भी यह विचार करना चाहिए कि क्या दूसरी पार्टी से आने वाले हर नेता का ऐसे ही स्वागत करना उचित है। नेतृत्व उस कार्यकर्ता के बारे में कब विचार करेगा जो रैलियों में दरी बिछाता है, अपने जेब से पैसे लगाकर लोगों को रैली स्थल तक लाता है, विचारधारा के लिए जमीनी लड़ाई लड़ता है और जो पश्चिम बंगाल में लड़ते हुए जान दे रहा है।
पैराशूट से आने वाले नेता बिना रीढ़ के होते हैं। उनके लिए आम कार्यकर्ता की बलि नहीं चढ़ाई जा सकती। ऐसा नहीं है कि मुकुल रॉय का आना फायदेमंद नहीं रहा, लेकिन उनके जाने के बाद जैसी निराशा आम कार्यकर्ता में फैली होगी, उससे उबरना बहुत जरूरी है, क्योंकि भाजपा का कार्यकर्ता पहले ही मार खा रहा है और नेतृत्व चुप है।
वैसे यह परिस्थिति भाजपा और संघ परिवार के लिए नई नहीं है। जब संघ को गांधी जी की हत्या के झूठे आरोप में फंसाया गया था, उस समय इससे भी कड़ा दमन देखने को मिला था। तब से आज तक वामपंथी-उदारवादी-सेक्युलर इकोसिस्टम में भाजपा अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रही है। इसलिए बंगाल में एक के बाद एक मिल रहे सदमे से भी भाजपा निकल सकने में सक्षम है, बशर्ते भाजपा नेतृत्व, गुरु गोलवरकर, अटल, आडवानी, सिंहल आदि की परिपाटी पर चलकर, अपने कार्यकर्ताओं के साथ खड़ा होना शुरू करें।