पुर्तगाली विदेश मंत्री ने भारत को अपना सहयोगी माना
हाल ही में हुए G7 सम्मेलन और उसके बाद हुई नाटो की बैठक के बाद यह बात साफ होने लगी है कि पश्चिमी देशों में चीन के प्रति नकारात्मकता बढ़ रही है। अब Observer Research Foundation (ORF) द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में पुर्तगाली विदेश मंत्री Augusto Santos Silva ने कहा कि चीन यूरोप का ‛selective partner’ और ‛systemic rival’ है।
पुर्तगाली विदेश मंत्री ने जिन शब्दों का प्रयोग किया है वह यूरोप और चीन के रिश्तों के संदर्भ में सटीक और स्पष्ट जानकारी देते हैं। selective partner, जिसका हिंदी में मतलब परिस्थितिजन्य सहयोगी हो सकता है, जबकि systemic rival का आर्थिक व्यवस्थापरख प्रतिद्वंद्वी हो सकता है।
पुर्तगाली विदेश मंत्री के कहने का मतलब यह था कि आज चीन दुनिया की निर्माणशाला है, दुनिया में सबसे अधिक उत्पादन वही देश कर रहा है, इसलिए उससे आर्थिक सहयोग सभी देशों की एक हद तक मजबूरी बन चुका है।
लेकिन पश्चिम का समाज लोकतंत्र, स्वतंत्रता, समानता, मानवाधिकार, नागरिक अधिकार आदि विचारों को बहुत महत्व देता है, जबकि चीन के लिए ये विचार उसके स्वाभाविक विरोधी हैं।
चीनी शासन व्यवस्था इन विचारों को सहन नहीं कर सकती, वहीं पश्चिम बिना चीन के अपने आर्थिक इंजन को चलायमान नहीं रख सकता। इसलिए दोनों परिस्थितिजन्य सहयोगी एवं व्यवस्थापरख प्रतिद्वंद्वीहैं।
पुर्तगाली विदेश मंत्री ने कहा “हम जिस प्रकार, ब्रुसेल्स और चीन के नजरिए से संस्थाओं, राजनीतिक सिद्धांतों, मानवाधिकार, सिविल सोसाइटी की भूमिका को देखते हैं, उसमें बहुत अंतर है।” उन्होंने आगे कहा कि “यही कारण है कि इन महत्वपूर्ण क्षेत्रों में, एशिया महाद्वीप में हमारा सहयोगी भारत है, न कि चीन।” बता दें कि इस समय यूरोपियन यूनियन कौंसिल की अध्यक्षता पुर्तगाल के पास ही है, इसलिए पुर्तगाली विदेश मंत्री का बयान और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।
चीन और भारत में कौन बेहतर है और क्यों?
इस बातचीत में भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर भी मौजूद थे। जयशंकर ने कहा कि इस समय दुनिया को सप्लाई चेन को खुला रखने के लिए काम करना चाहिए। उन्होंने पिछले 25 वर्षों में हुए चीन के जबरदस्त आर्थिक विकास की समीक्षा करते हुए कहा कि दुनिया तब तक चीन का मुकाबला नहीं कर पाएगी जब तक दुनिया में उत्पादन अप्रत्याशित रूप से, चीन की बराबरी तक, न बढ़ाया जाए।
उन्होंने कहा कि यही भारत का विश्व को संदेश है कि चीन से प्रतिस्पर्धा के लिए चीन के बराबर उत्पादन क्षमता बढ़ानी होगी।चीन ने भारत से पहले अपने देश में आर्थिक उदारीकरण की नीति अपना ली थी। राजनीतिक स्थिरता और दृढ़ता के कारण पश्चिमी देशों ने चीन में निवेश शुरू किया। चीन तब भी तिब्बत सहित देश के अन्य इलाकों मानवाधिकार उल्लंघन करता रहता था, तब भी वह WTO के नियमों को तोड़ता था लेकिन पश्चिमी देशों को तब शिकायत नहीं हुई।
अब चीन खुले तौर पर पश्चिमी आधिपत्य वाली वैश्विक व्यवस्था को चुनौती दे रहा है, तो पश्चिम चीन में हो रहे अत्याचारों के प्रति सजग जो गया है। मूल बात यह है कि न तो चीन न ही पश्चिमी देश, कोई भी दूध का धुला नहीं है। हालांकि दोनों के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा भारत के लिए बहुत लाभकारी है।
क्यों पश्चिमी देश भारत पर ज्यादा विश्वाश करते है?
पश्चिमी देश भारत को इतनी तवज्ज़ो इसलिए दे रहे हैं क्योंकि भारत चीन को आर्थिक, कूटनीतिक, रणनीतिक और सैन्य, सभी मोर्चों पर करारा जवाब दे सकता है। पश्चिमी देशों के पास आसियान के रूप में भी चीन का विकल्प मौजूद है। वहां भी लोकतंत्र है और निवेश के लिए अच्छा माहौल है, लेकिन फिर भी पश्चिमी देश भारत को आसियान से अधिक तवज्जो दे रहे हैं क्योंकि आसियान में चीन को खुली चुनौती देने का सामर्थ्य नहीं है।
अंत में देखा जाए तो केवल यही बात महत्वपूर्ण है कि आज भारत ही चीन का एकमात्र विकल्प है। जैसे-जैसे चीन पश्चिम को चुनौती देगा, वैसे वैसे पश्चिमी देश भारत के और नजदीक आएंगे। भारत अपने यहाँ निवेश के लिए बेहतर माहौल बनाए रखे तथा राजनीतिक स्थिरता बनी रहे तो भारत 10 से 15 वर्षों में आर्थिक महाशक्ति बन जाएगा।