जिस कांग्रेस को इस समय अपने अस्तित्व वापसी के लिए एकजुट होना चाहिए था, वो अभी भी आंतरिक कलह और झगड़ों से ही उभर नहीं पा रही है। पंजाब में जो लड़ाई सीएम कैप्टेन अमरिंदर और सिद्धू के बीच चल रही है उससे राज्य की कांग्रेस दो धड़ों में बंट चुकी है।
इसी का परिणाम है कि गाँधी परिवार को अब कोई खास तवज्जो नहीं मिल रही और न ही कोई इन्हें गंभीरता से ले रहा है। प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती, सिद्धू के साथ चल रही जंग में, अमरिंदर ने आलाकमान को पत्र लिखकर चेता दिया था और दो टूक समझा दिया था कि, पंजाब की राजनीति में पार्टी हाईकमान जबरन दखल न दें वरना सरकार के साथ-साथ पार्टी को भी इसके दुष्परिणाम झेलने पड़ेंगे।
लेकिन जो रविवार रात हुआ उससे अमरिंदर के अहम को चोट ज़रूर पहुंची होगी, क्योंकि जिसके लिए वो बगावत तक को उतारु थे, काँग्रेस ने उनकी एक न सुनते हुए वही किया। नवजोत सिंह सिद्धू को पार्टी आलाकमान ने पंजाब कांग्रेस इकाई का अध्यक्ष बना दिया और साथ में 4 कार्यकारी अध्यक्ष भी नियुक्त कर दिये जिनमें एक भी अध्यक्ष अमरिंदर के गुट का नहीं है।
भाजपा छोड़ कांग्रेस में शामिल होने वाले नवजोत सिंह सिद्धू कांग्रेस में इस वजह से गए थे कि वहां वो प्रमुख चेहरा बन सकें, पर पंजाब में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद से ही कमान अमरिंदर के हाथ में रही। सिद्धू को मात्र मंत्री पद से संतोष करना पड़ा और एक बार विभाग परिवर्तन होते ही सिद्धू ने मंत्री पद से भी इस्तीफा दे दिया।
यही वजह थी कि इस तरह दरकिनार होकर सिद्धू के मन में अमरिंदर के प्रति हमेशा विरोधी स्वर ही उठे जिसका दृश्य सरकार बनने के बाद से ही सबने देखा।फिर चाहे सरकार के फैसलों या नीतियों पर सिद्धू का विरोध हो या अमरिंदर के प्रति खीज, दोनों को ही समय-समय पर सिद्धू ने सार्वजानिक रूप से बयां किया। इस असंतोष से कांग्रेस पार्टी को गहरा नुकसान झेलना पड़ेगा यह जानते हुए भी दोनों तरफ़ से कलह और बयानबाज़ी में कोई कमी नज़र नहीं आई।
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इसके बाद जबसे राज्य में पार्टी के दो गुट स्थापित होने की खबरें उड़ीं, तबसे मानों कई रूठें कांग्रेसियों को संजीवनी मिल गयी। जिसके बाद हर राज्य में बगावत करने वालों या पार्टी से नाराज़ लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है लेकिन इन्हें मनाने वाले नहीं मिल रहे।
इससे पहले भी पार्टी अपने ही वरिष्ठ नेताओं यानि जी23 नेताओं की नाराजगी झेल चुकी है। अभी भी, जी23 के प्रमुख नेता कपिल सिब्बल, गुलाम नबी आज़ाद समेत कई पुराने नेता अपनी बात पर अडिग हैं कि जिस परिवर्तन की कांग्रेस को आज ज़रूरत है वो नहीं किया जा रहा।
पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने ये तक कह दिया कि, ‘पार्टी ने अपनी संस्कृति खो दी है।’ राजस्थान में पायलट और गहलोत गुट पहले ही रार को खत्म नहीं कर पा रहा है वहीं राजस्थान और पंजाब के बाद अब हरियाणा में भी कांग्रेस पार्टी में बगावत के सुर सुनाई देने लगे हैं। यहां 19 कांग्रेस विधायकों ने राज्य में नेतृत्व परिवर्तन की मांग की है। सभी 19 विधायक पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा को प्रदेश अध्यक्ष की भूमिका में देखना चाहते हैं।
हाल ये है कि, अब गांधी परिवार को कोई कुछ समझ ही नहीं रहा है, प्रदेश स्तर के नेता तो छोड़िए अब ज़िला इकाई के नेता सोनिया और राहुल के नेतृत्व की खामियाँ बताने में खुल्लम-खुल्ला जुट गए हैं। सिद्धू, अमरिंदर समेत प्रताप सिंह बाजवा के भी गले की फांस थे।
बता दें कि, बाजवा ही पहले पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रमुख थे। बाद में उन्हें हटाकर सुनील जाखड़ को पंजाब की कमान दी गई। बाजवा, अमरिंदर के धुर-विरोधी थे पर सिद्धू को पटकनी देने के लक्ष्य से इन दोनों राजनीतिक शत्रुओं का मिलकर एक अलग खेमा तैयार हुआ। इससे इनको कोई बड़ी सफलता तो हासिल नहीं हुई पर आने वाले विधानसभा चुनावों में सिद्धू को रुठों को साधना पड़ेगा, और काँग्रेस के लिए किसी को दरकिनार करना यानि अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना।
वरिष्ठ पार्टी नेता तो सिद्धू की नियुक्ति को आलकमान के सुस्त रवैये और सिद्धू की ज़िद के आगे घुटने टेक देने जैसी संज्ञा दे रहे हैं। दें भी क्यूँ न, कल को कोई भी अन्य दल का नेता आकर बड़े-बड़े शेर सुनाके बगावत पर उतार आएगा तो क्या सोनिया कांग्रेस का अध्यक्ष भी पद भी उसे थमा देंगी?
बात सरल है, जिस सिद्धू ने राहुल को “पप्पू” की पदवी से नवाज़ा था आज उसी सिद्धू की बगावत और धमकियों से गांधी परिवार ने आत्मसमर्पण कर लिया और अमरिंदर जैसे पुराने साथी की बात काट दी। इसके बाद अटकलें ये भी लग रही हैं कि जल्द अमरिंदर कोई बड़ा कदम उठाते नज़र आ सकते हैं और पार्टी परिवर्तन भी उन कदमों में से एक कदम हो सकता है।
उससे पहले लाख टके का सवाल है कि क्या कैप्टन और सिद्धू साथ चल पाएंगे? नज़र इस बात पर है कि असंतुष्ट खेमा सिद्धू की नियुक्ति के बाद खुलकर बगावत करता है या सही मौके का इंतजार करता है! सवाल यह भी है कि सिद्धू को कमान सौंपने का मतलब कहीं कैप्टन युग का समापन तो नहीं है?