अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारना कोई समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से सीखे। सभी को साधने की नीति के चलते दोनों पार्टी अब हिंदुओं को रिझाने में लगी हुई हैं, लेकिन अपने मूल मतदाताओं को ही उन्होंने दरकिनार कर दिया है। जाने अनजाने सपा और बसपा भाजपा के ही बिछाए जाल में फंस चुके है, जिससे उनका सर्वनाश होना तय है।
उदाहरण के लिए बसपा को देख लीजिए। एक बार फिर से उनके खेमे में ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ वाला नारा गुंजायमान होने लगा है। दरअसल, बसपा एक बार फिर से 2007 के तर्ज पर दलित-ब्राह्मण गठजोड़ के जरिए सत्ता में वापसी करना चाहती है। इसी को लेकर अभी मायावती ने योगी सरकार पर ब्राह्मणों के अत्याचार का आरोप भी लगाया है।
दैनिक जागरण की रिपोर्ट के अंश अनुसार,
“उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों का उत्पीड़न चरम पर है। प्रदेश का ब्राह्मण समाज इस सरकार में काफी दुखी है। भाजपा ने तो ब्राह्मणों को हमेशा ही गुमराह किया है। मुझे पूरी उम्मीद है कि ब्राह्मण अगले विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को अपना वोट नहीं देंगे। हमने बसपा महासचिव एससी मिश्रा के नेतृत्व में एक अभियान जुलाई में अयोध्या से शुरू किया है जिससे ब्राह्मण समुदाय को जोड़ा जा सके और उन्हें विश्वास दिलाया जा सके कि उनके सभी प्रकार के हित बसपा शासन में ही सुरक्षित हैं।”
लेकिन मायावती अकेली नहीं है जो हिन्दू, विशेषकर उच्च जाति के वोट बैंक को साधने में जुटी हुई हैं। सपा भी इस कोशिश में पिछले वर्ष से लगी हुई है। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश के जनसंख्या बिल पर समाजवादी पार्टी के विवादित सांसद एसटी हसन ने यह जताने का प्रयास किया कि कैसे यह विधेयक मुसलमानों से ज्यादा हिंदुओं के लिए हानिकारक है।
हसन के अनुसार, “बीजेपी चुनाव के लिए यह सब कर रही है, लेकिन अब किसान और मजदूर का बीजेपी से मोह भंग हो जायेगा और चुनाव में भाजपा को इससे नुकसान होगा। अगर जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाना ही है तो कम से कम 3 बच्चों वाला कानून बनना चाहिए। मुसलमान तो सिर्फ दो प्रतिशत ही सरकारी नौकरियों में हैं, इसलिए जो 98 प्रतिशत हिन्दू सरकारी नौकरियों में हैं, उन पर इस का सबसे अधिक असर पड़ेगा। हिन्दू भी हमारे भाई हैं, उनका नुकसान भी तो हमारा नुकसान है, इसलिए हम इस कानून का स्वागत नहीं करेंगे। हमे उनकी भी फ़िक्र है।”
लेकिन इस जद्दोजहद में दोनों ही पार्टियों ने अपने मूल वोटर बेस को पीछे ही छोड़ दिया हैं। जहां बसपा को पिछड़े वर्ग से कोई नाता नहीं रहा, तो वहीं सपा को यदुवंशी समुदाय, ओबीसी वर्ग इत्यादि से कोई नाता नहीं रहा। इसका प्रभाव 2019 के ही लोकसभा चुनाव में भी दिखाई दिया है, जहां अनेक प्रयासों के बावजूद उत्तर प्रदेश से सपा और बसपा का महागठबंधन भाजपा को हटाने में असफल रहा।
इसके अलावा हाल ही में हुए जिला पंचायत और ब्लॉक प्रमुख चुनावों में सपा और बसपा की जो भद्द पिटी है, वो भी इसी अज्ञानता का ही परिणाम है। लेकिन मजे की बात यह है कि दोनों ही पार्टियां इससे कोई सीख लेने को तैयार ही नहीं है।