भारतीय परतंत्र काल में अंग्रेजों की रणनीति थी कि ‘फूट डालो शासन करो।’ 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अंग्रेजी शासन तो समाप्त हो गया, किन्तु राजनीतिक दलों ने समय-समय पर अपनी राजनीति की महत्वाकांक्षाओं के लिए देश की जनता को जातियों में बांटना शुरू कर दिया। 1979 से लेकर 1992 तक विभिन्न सरकारों ने मंडल आयोग के गठन से लेकर उनकी सलाहों के आधार पर जनता को जातियों में बांटने के प्रयास किए और एवं दुर्भाग्य से वे सफल भी हुए। इन सभी दलों की जातिगत बंटवारे की रणनीति वर्ष 2014 में पीएम मोदी के आने के बाद से विफल होती दिखी। जातिगत राजनीति विफल हुई तो जाति आधारित राजनीति दलों के अस्तित्व पर संकट आ गया। ये राजनीतिक दल चुनाव हारने लगे। ऐसे में अब दोबारा से इन राजनीतिक दलों ने जाति का खेला शुरू कर दिया है।
जिसका परिणाम ये है कि अब ये सभी पार्टियां जातिगत जनगणना की मांग कर रही हैं। विशेष बात ये है कि इसमें विपक्ष के साथ ही नीतीश कुमार की जेडीयू जैसी एनडीए की कुछ सहयोगी पार्टियां भी शामिल हैं, जोकि बीजेपी से असहज रहती हैं।
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वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को देश की जनता ने जाति-धर्म से अलग हटकर देखा था। यही कारण था कि उन्हें प्रचंड बहुमत मिला था, जो 2019 में भी दिखा। जातिगत राजनीति के लिए जाने जाने वाले उत्तर प्रदेश एवं बिहार तक में बीजेपी ने अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की थी।
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का ओबीसी-मुस्लिम वोट बैंक छिटक तो बसपा का दलित-मुस्लिम वोट बैंक का कथित चक्रव्यूह भी समाप्त हो गया।
इसी तरह बिहार में ओबीसी और पिछड़ों की राजनीति करने वाले नीतीश कुमार जब बीजेपी से अलग चुनाव लड़े तो हाशिए पर चले गए। आरजेडी का तो सूपड़ा ही साफ हो गया।
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इन चुनाव परिणामों ने ये संकेत दे दिया कि हिंदू-मुस्लिम के बीच फूट डालने के बाद विपक्ष जिस तीव्रता के साथ हिन्दुओं के बीच जाति के आधार पर फूट डालने में जुटा था उसे पीएम मोदी ने नष्ट कर दिया है। ऐसे में सभी दल अपने-अपने जातिगत वोट बैंक को पुनः प्रबल करने के लिए जातिगत जनगणना की बात करने लगे हैं।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विपक्षी नेताओं तक से सहयोग लेने लगे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से जब नीतीश बैठक करने पहुंचे तो नीतीश के धुर विरोधी आरजेडी नेता तेजस्वी यादव भी उनके साथ थे, जो इस बात का स्पष्ट संकेत है कि जातीय वोट बैंक खत्म होने का भय सभी को समान रूप से सता रहा है।
नीतीश कुमार ने पीएम से बैठक करने के बाद मीडिया से बातचीत करते हुए कहा, “सभी लोगों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से जातिगत जनगणना की मांग की है। बिहार की सभी राजनीतिक पार्टियों का इसको लेकर एक ही मत है। सरकार के एक मंत्री की ओर से बयान आया था कि जातिगत जनगणना नहीं होगी, इसलिए हमने बाद में बात की।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमारी बात सुनी है।” इसी तरह नीतीश के धुर विरोधी तेजस्वी यादव ने कहा, “ये ऐतिहासिक काम होकर रहेगा, जब जानवरों की गिनती हो रही है तो फिर इंसानों की गिनती भी होनी चाहिए। अगर धर्म के आधार पर भी गिनती हो रही है, तो जाति के आधार पर भी गिनती होनी चाहिए।”
कांग्रेस से लेकर आरजेडी, जेडीयू, सपा, बसपा एवं आरपीआई जैसी सभी राजनीतिक पार्टियों की मांग है कि देश में जातिगत जनगणना हो किन्तु मोदी सरकार इसके स्पष्ट विरोध में है। हाल ही संसद सत्र के समय गृहराज्यमंत्री नित्यानंद राय से जब जातिगत जनगणना के संबंध में प्रश्न किया गया तो उन्होंने 20 जुलाई को स्पष्ट कर दिया था कि सरकार जातिगत जनगणना की कोई रणनीति नहीं बना रही है।
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इसके बाद भी विपक्षी पार्टियां और कुछ एनडीए के सहयोगी भी लगातार जातिगत जनगणना कराए जाने की बात करते हैं। इसका कारण मात्र इतना ही है कि ये सभी राजनीतिक दल पुनः जाति आधारित जनगणना होने पर उसके आधार पर अपनी राजनीतिक चालें खेलने की नीति बना रहे हैं।
ऐसे में स्थितियां बिगड़ भी सकती है, क्योंकि राजनीतिक दल कुछ विशेष बहुसंख्यक जातियों के आधार पर ही अपने निर्णय लेंगे और उनकी राजनीति कुर्सी के लिए कुछ सीमित जातियों में सिमट जाएगी। जो स्थिति अभी हिन्दुओं के सामने मुस्लिम तुष्टिकरण के कारण उत्पन्न होती है ठीक वैसी ही स्थिति जाति के आधार तुष्टिकरण के कारण होगी, जोकि सामाजिक रूप से देश को अधिक बाटं देगी।
ऐसे में 2014 के बाद से पीएम मोदी ने सभी जाति वर्गों को राष्ट्रवाद के सूत्र में बांध रखा है, वो भी बिखेरेगा। यही कारण है कि मोदी सरकार जातिगत जनगणना की बंटवारे की इस नीति को मान्यता देने के पक्ष में नहीं है, भले ही उसके कुछ सहयोगी ही ये अनुचित मांग क्यों न कर रहे हों।