हाल ही में अफगानिस्तान पर दो दशक के बाद तालिबान ने पुनः कब्जा जमा लिया है। मुल्ला बरादर के नेतृत्व में तालिबानी लड़ाकों ने अफगानिस्तान पर आधिपत्य स्थापित कर अपना शासन प्राप्त किया है, जबकि अशरफ गनी समेत वर्तमान अफगानी प्रशासन ताजिकिस्तान समेत विभिन्न देशों में शरण लेने को विवश हैं। इसी बीच कई कोनों से अफ़गान नागरिकों को भारतीय नागरिकता देने की मांग उठ रही है, लेकिन बिना सोचे समझे ऐसा कोई भी कदम उठाना न केवल बचकाना, बल्कि आत्मघाती कदम होगा।
इस समय अनेक अफ़गान ऐसे हैं, जो विभिन्न कारणों से भारत में रुके हुए हैं। वे या तो जीवनयापन के उद्देश्य से भारत में थे, या फिर पढ़ाई करने के उद्देश्य से भारत आए थे। अब वे चाहते हैं कि उनकी रुकने की अवधि बढ़ाई जाए। कुछ वामपंथी तो ये भी चाहते हैं कि भारत को नागरिकता संशोधन अधिनियम के पैमानों को बदल देना चाहिए और अफ़गान मुसलमानों को भी इसके अंतर्गत शरण मिलनी चाहिए, जैसे इन मोहतरमा ने ट्वीट किया है –
Women in Afghanistan, activists, journalists, etc all stand to be persecuted by the Taliban.
But being Muslims, they’ll be excluded by India’s Citizenship Amendment Act (CAA)
Now does it seem right for a democratic India to exclude people on the basis of religion? #Afghanistan
— Zeba Warsi (@Zebaism) August 15, 2021
लेकिन एक भूखे को भोजन खिलाना दूसरी बात है, और उसे घर पर ले आना अलग बात। वामपंथी चाहते हैं कि भारत बिना कुछ सोचे अफ़गान नागरिकों को नागरिकता और शरण देना शुरू कर दे। लेकिन जब खुद के घर में कम समस्याएँ न हो, तो दूसरे को शरण देकर अतिरिक्त बोझ बढ़ाना परमार्थ नहीं, प्रथम दर्जे की बेवकूफी कही जाएगी, जिसके पीछे आज पूरे यूरोप में त्राहिमाम मचा हुआ है।
2010 में जब ‘अरब स्प्रिंग’ आया था, तो सीरिया में भी सत्ता परिवर्तन की मांग उठी थी। लेकिन तत्कालीन राष्ट्राध्यक्ष बशर अल असद सत्ता छोड़ने को तैयार नहीं थे। तब उग्रवादी विरोधियों की सहायता के लिए अमेरिका आगे आया था, जिसके कारण सीरिया में भीषण गृह युद्ध छिड़ा, जो आज तक खत्म नहीं हुआ। इसके कारण सीरिया से लेकर उसके आसपास के क्षेत्र के कई निवासियों ने अपने क्षेत्रों को त्यागकर यूरोप के देशों में शरण ली।
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उस समय यूरोप की आव्रजन नीतियाँ बहुत उदार थी, जिसके कारण लीबिया और सीरिया के नागरिकों को शरण लेने में कोई दिक्कत नहीं हुई। लेकिन जल्द ही इनका असली रूप सामने आने लगा। स्वीडन, जर्मनी, फ्रांस, यूके जैसे देशों में इन देशों से आए शरणार्थियों ने प्रमुख तौर पर अपने निश्चित ‘शरिया ज़ोन’ बनाने शुरू कर दिए, और धीरे-धीरे इन देशों में महिलाओं पर अत्याचार के मामले भी बढ़ने लगे। लेकिन उदारवाद में अंधे यहाँ के शासकों के कानों पर चिंतित जनता की मांगों का कोई असर नहीं हुआ। हालांकि जब पानी सर से ऊपर जाने लगा, तब फ्रांस और यूके में कुछ हद तक बदलाव किए जाने लगे, लेकिन जिस प्रकार से आव्रजन के संकट ने यूरोप को घेरा है, उसका सर्वनाश लगभग निश्चित है।
लेकिन यूरोप के इन देशों के पास कम से कम संसाधन तो थे। भारत के पास उतने संसाधन भी नहीं है। ऐसे में यदि उसने भूल से भी अफ़गान नागरिकों को नागरिकता और शरण देने की सोच भी ली, तो उन्हें वह रखेगा कहाँ, और खिलाएगा क्या? वर्षों के भ्रष्ट सरकारी नीतियों के कारण हमारे पर्याप्त खनिज पदार्थों की कमी तक उत्पन्न हो गई थी। हालांकि मोदी सरकार के आने से स्थिति काफी हद तक संभल चुकी है, लेकिन एक समय ऐसा भी था, जब 293 बिलियन टन के कोयले के खदान होने के बावजूद भारत के कोयला इम्पोर्ट तीन वर्ष में दुगने हो चुके थे –
अभी जब कोरोना की दूसरी लहर खत्म हुई, तब राज्यों और सरकार के बीच सामंजस्य न होने के कारण पेट्रोल के औसत दाम देश भर में 95 रुपये प्रति लीटर से कम नहीं है। यदि अफ़गान नागरिकों को बेधड़क नागरिकता और शरण दी जानी होगी, तो खुदरा महंगाई पर इसका क्या होगा, कोई अंदाजा भी है? जो वामपंथी बड़े चाव से कह रहे हैं कि अफ़गान नागरिकों को नागरिकता दो, कल यही लोग मोदी सरकार को पेट्रोल और अन्य वस्तुओं के दामों पर तानें मारते हुए नजर आएंगे।
ऐसे में इतना तो स्पष्ट है कि बिना सोचे समझे अफ़गान नागरिकों को केवल मानवीय आधार पर नागरिकता और शरण देना एक आत्मघाती कदम होगा, जिसके दुष्परिणाम आने वाले कई पीढ़ियों को सदियों तक भुगतने होंगे। यदि भारत ने समय रहते सद्बुद्धि अपनाई और वामपंथियों के चंगुल में नहीं फंसे, तो वे न सिर्फ अपने आप को एक भारी संकट से बचा सकते हैं, अपितु भारत को भी एक नई राह दिखा सकते हैं।