हाल ही में अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान ने दो दशक बाद अपना आधिपत्य पुनः जमा लिया है। मुल्ला बरादर के नेतृत्व में तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान के शासन पर फिलहाल के लिए कब्जा जमा लिया है। जहां एक ओर अफ़गान नागरिक तालिबान के बर्बर शासन के बारे में सोचकर ही भयभीत हो रहे हैं और किसी भी तरह बस निकलना चाहते हैं, तो वहीं कुछ राजेश कुमार जैसे वीर हिन्दू पुजारी भी हैं, जो अपनी संस्कृति को त्याग कर कहीं नहीं जाएंगे, चाहे जान पर ही क्यों न बन आए। लेकिन, कभी जिस अफ़ग़ानिस्तान के चर्चे हमारे वेद पुराणों में गांधार राज्य के नाम से होते थे, जिस अफ़ग़ानिस्तान में कभी मंत्रोच्चार और बौद्ध धर्म के अलावा किसी धर्म के बारे में उल्लेख तक नहीं होता था, वहाँ पर इस्लाम का ऐसा क्या आधिपत्य हुआ, कि आज केवल मुट्ठी भर हिन्दू और सिख ही बच पाए हैं? आखिर दुनिया भर के बुद्धिजीवी, जो सीरिया जैसे देशों के हालात पर दहाड़ें मार-मार कर रोते हैं, अफ़ग़ानिस्तान के हिंदुओं का नरसंहार पर मौन व्रत क्यों धारण कर लेते हैं?
अफ़ग़ानिस्तान में हिंदुओं का इतिहास और नरसंहार
एक समय अफ़ग़ानिस्तान में केवल सनातन धर्म की ही गूंज होती थी। कुषाण वंश के राजा कनिष्क का अधिकतम राज्य इसी क्षेत्र में फैला हुआ था। कुषाण वंश के शासन काल में ही बौद्ध धर्म का भी विस्तार हुआ। लेकिन 8 वीं शताब्दी में जब मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर हमला किया, तो अफ़ग़ानिस्तान भी अरबों के प्रकोप से नहीं बच पाया। धीरे-धीरे इस्लामिक आक्रांताओं का प्रकोप बढ़ता ही गया, और कभी अफ़ग़ानिस्तान में जिस सनातन धर्म की जयजयकार होती थी, वो एक कोने तक ही सिमट कर रह गया। हालांकि मराठा योद्धाओं के अनेक अभियानों और सिख योद्धाओं जैसे हरी सिंह नलवा के युद्धों के कारण 18 वीं से 19 वीं शताब्दी के बीच इस्लामिक आक्रान्ताओं के विरुद्ध काफी विद्रोह भी हुआ। परंतु अनेक आघात होने के बावजूद 1970 के प्रारम्भिक दशक तक भी 2 लाख से अधिक हिन्दू और सिख अफ़ग़ानिस्तान में निवास करते थे। उसके बाद से अफ़ग़ानिस्तान के हिंदुओं और सिखों का नरसंहार हुआ कि अब ये संख्या 100 – 200 के आसपास भी नहीं है।
उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान के बल्ख में प्रसिद्ध फ़ारसी बौद्ध मठ, जिसे नव विहार (“नया मठ”) के रूप में जाना जाता है, सदियों से मध्य एशिया बौद्ध शिक्षा के केंद्र के रूप में कार्य करता था। अफ़ग़ानिस्तान में बौद्ध धर्म 7वीं शताब्दी में मुस्लिम विजय के साथ लुप्त होने लगा था और अंत में 11वीं शताब्दी में गजनवी के दौरान समाप्त हो गया।
हिन्दू कुश पहाड़ी का नाम हिन्दू कुश क्यों पड़ा
आपको पता है अफ़ग़ानिस्तान में हिन्दू कुश पहाड़ी शृंखला का नाम वैसा क्यों रखा है? इसके पीछे का राज स्वयं मोरोक्को के चर्चित यात्री इतिहासकार इब्न बतूता ने बताया है, जो कभी तुगलक सल्तनत में दरबारी भी हुआ करते थे। उनके अनुसार हिन्दू कुश पहाड़ी का नाम इसलिए पड़ा क्योंकि इसी घाटी में वर्षों तक विदेशी आक्रांता, चाहे वो अरबी हो, तुर्की हो या फिर अफगानी, हिंदुओं को ‘मृत्युदंड’ देने के लिए यहाँ लाया करते थे। हिंदुओं के नरसंहार के लिए ये घाटी बहुत कुख्यात थी, इसीलिए इस पहाड़ी / घाटी शृंखला का नाम हिन्दूकुश पड़ा।
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सहस्राब्दी का नरसंहार
इतिहासकार इंदरजीत सिंह के अनुसार 1970 तक कम से कम 2 लाख से अधिक हिन्दू और सिख अफ़ग़ानिस्तान निवास करते थे। 2020 तक आते-आते यही संख्या लगभग 700 हिन्दू और सिखों तक सिमट गई। लेकिन इसके पीछे प्रमुख कारण क्या है? कारण एक ही है – अफ़ग़ानिस्तान में कट्टरपंथी इस्लाम का बढ़ता प्रभाव। तालिबान के आने से पहले अधिकांश हिंदू 90 के दशक के मध्य में या तो भाग गए या फिर वे आतंकियों के नरसंहार के शिकार हुए। जिस पैमाने पर अफ़ग़ानिस्तान में हिंदुओं और सिखों का नरसंहार हुआ है उसे अगर सहस्राब्दी का नरसंहार यानी The genocide of the millennium कहा जाए तो भी कम ही होगा।
पिछले ही वर्ष अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल में एक गुरुद्वारे पर आतंकी हमला हुआ, जिसमें 27 अल्पसंख्यक सिखों को निशाना बनाकर मार दिया गया। एक फिदायीन ने अपने को पहले बम से उड़ा दिया और बाकि आतंकियों ने गुरुद्वारे पर ताबड़तोड़ गोलियाँ बरसानी शुरू कर दी। असल में मुद्दा यह है कि अफ़ग़ानिस्तान के 27 अल्पसंख्यक सिखों का नरसंहार हुआ है। इससे पहले भी अफ़ग़ानिस्तान में हिन्दू और सिखों पर आतंकी हमले हो चुके हैं। लेकिन कभी किसी को आर्थिक सहायता तो दूर, कोई दिलासा और भरोसा तक नहीं दिया गया।
अफ़ग़ानिस्तान का कोई आधिकारिक जनगणना नहीं है। स्वयं अमेरिका के स्टेट्स डिपार्टमेंट और मीडिया के अनुसार 1990 में वहाँ 1 लाख हिन्दू और सिख आबादी थी, जोकि अब 300 के करीब भी नहीं होगी। अब आप स्वयं अंदाजा लगाइए कि उन 97,000 हिन्दुओं और सिखों के साथ क्या हश्र हुआ होगा।
अब सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक तौर पर भारत उनके लिए एकमात्र उम्मीद की किरण है। भारत में भी पिछले कई दशकों से यह सवाल उठता रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान के अल्पसंखक समुदाय के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए संवैधानिक कदम उठाए जाने चाहिए। वर्षों तक अनदेखा किया जाने के बाद आखिरकार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की केंद्र सरकार ने साल 2019 में भारतीय नागरिकता कानून में एक संशोधन संसद से पारित करवाया, जिसका एकमात्र ध्येय पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश के धार्मिक अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता प्रदान करना था। लेकिन इसके पीछे देशभर में विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गए, मानो हिंदुओं के हक में आवाज उठाना एक अक्षम्य अपराध है।
राजधानी दिल्ली सहित देशभर के शहरों में कट्टरपंथियों द्वारा पत्थरबाज़ी, हिंसा और आगजनी की गई। इस संशोधन का भारतीय नागरिकों से कोई लेना-देना नहीं था। सरकार की तरफ से लगातार भरोसा दिया गया कि किसी भी भारतीय नागरिक विशेषकर मजहब विशेष की नागरिकता को कोई नुकसान नहीं है। लेकिन फेक न्यूज के नाम पर पूर्वोत्तर दिल्ली में दंगे तक भड़काए गए, और ना जाने कितने निर्दोष हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया होगा।
अब एक प्रश्न ये उठता है : आखिर अफ़ग़ानिस्तान के इन हिंदुओं को और कितने अत्याचार झेलने होंगे? न इनके अपने घर में इनकी सुनने को कोई तैयार है, और यदि ये भारत में शरण लेना चाहिए, तो अपनी निकृष्ट राजनीति के लिए कुछ नीच लोग इन्हे शरण ही नहीं लेने देंगे।