भारत ने चुपचाप बनाई नई भू-रणनीतिक धुरी, पीओके से लेकर बलूचिस्तान तक पाकिस्तान की दरकने लगी ‘पूर्वी दीवार’, जानें क्या है तालिबान-दिल्ली डील का असली मतलब?
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भारत ने चुपचाप बनाई नई भू-रणनीतिक धुरी, पीओके से लेकर बलूचिस्तान तक पाकिस्तान की दरकने लगी ‘पूर्वी दीवार’, जानें क्या है तालिबान-दिल्ली डील का असली मतलब?

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि पीओके (पाकिस्तान-प्रशासित कश्मीर) पर भारतीय रुख, अफगानिस्तान के साथ बढ़ता रिश्ता और बलूचिस्तान में उठती आवाज़ें, ये सब मिलकर पाकिस्तान की पूर्वी दीवार में दरारें ला रहे हैं।

Vibhuti Ranjan द्वारा Vibhuti Ranjan
5 November 2025
in चर्चित, भारत, भू-राजनीति, रक्षा, रणनीति, राजनीति, विश्व
भारत ने चुपचाप बनाई नई भू-रणनीतिक धुरी, पीओके से लेकर बलूचिस्तान तक पाकिस्तान की दरकने लगी ‘पूर्वी दीवार’, जानें क्या है तालिबान-दिल्ली डील का असली मतलब?

भारत का यह नया दांव क्रूरता नहीं, कूटनीति है। यह युद्ध नहीं, रणनीति है।

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भारत ने साढ़े सात दशकों से अपनाई गई ज़ोरदार, लेकिन दिखावटी कूटनीति की परंपरा को बदलकर एक नई चुपचाप-प्रभावक रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है। यह रणनीति युद्ध की घोषणाओं पर नहीं, कूटनीति के सूक्ष्म पल में, मानवीय सहायता में और अंतरराष्ट्रीय प्लेटफार्मों पर सुस्पष्ट नैरेटिव शिफ्ट में दिख रही है। तालिबान-शासित अफगानिस्तान की दिल्ली यात्रा, अफगानियों के प्रति भारत की विनम्र परंतु लगातार मदद और POK पर भारत का स्पष्ट मानवाधिकार-आधारित रुख, इन सबका अर्थ केवल ‘संबन्धों की मरम्मत’ नहीं है। यह एक व्यापक भू-रणनीतिक धुरी का निर्माण है, जिसका केंद्र बिन्दू पाकिस्तान की वास्तविक सामरिक कमजोरी है।

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि पीओके (पाकिस्तान-प्रशासित कश्मीर) पर भारतीय रुख, अफगानिस्तान के साथ बढ़ता रिश्ता और बलूचिस्तान में उठती आवाज़ें, ये सब मिलकर पाकिस्तान की पूर्वी दीवार में दरारें ला रहे हैं। पाकिस्तान का जिसपर भरोसा रहा, उसका पश्चिमी बफर, अफगानिस्तान में प्रभाव और घरेलू एकता, इन तीनों में अब शंकाएं पनप रही हैं। अफगानिस्तान का वही इलाक़ा जहां डूरंड लाइन का विवाद सदियों पुराना है। अब रणनीतिक रूप से सक्रिय हो गया है। वाखान कॉरिडोर और गिलगित-बल्तिस्तान जैसे स्थान जहां सीमाएं महीन और अस्थिर हैं, वे ही नए संघर्ष का केंद्र बन रहे हैं।

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ये है असली कूटनीति

तालिबान-दिल्ली संपर्क का समुचित मूल्यांकन इस तथ्य पर निर्भर करता है कि भारत ने सार्वजनिक तौर पर तालिबान को ‘मान्यता’ देने की कोई बड़ी घोषणा नहीं की, लेकिन व्यावहारिक तौर पर अफगानिस्तान में अपनी उपस्थिति और प्रभाव दोनों बढ़ाये हैं। मानवीय सहायता, पुनर्निर्माण सहयोग और अफगानों को मिलने वाला संभलता हुआ राजनयिक स्थान, इनमें भारत की निर्णायक नीयत साफ़ दिखती है। वही नीयत जिसे पाकिस्तान दश्कों से अपने सामरिक लाभ के लिये इस्तेमाल करता आया था। अब उसे अपने खिलाफ लगने लगी है। अफगानिस्तान को अकेला छोड़ कर अमेरिका पीछे हट गया और उसी खाली जगह में भारत की चुप्पी सक्रिय रूप से भरती दिखाई दे रही है।

क्या होगा जब एक साथ आएंगे बलूचिस्तान और तालिबान?

बलूच नेताओं की खुली आवाज़ और अफगानियों के साथ संभावित रक्षा-संधि की बातें मीडिया में केवल अफ़वाहें नहीं रहीं, वे संकेत हैं कि पाकिस्तानी केंद्रिय नियंत्रण और उसकी सैन्य धुरी पर दबाव बढ़ रहा है। बलूचिस्तान में लंबे समय से मौजूद विद्रोही भावनाएं, जब अफगान समर्थन से जुड़ेंगी, तो पाकिस्तान के लिए यह सिर्फ़ आंतरिक सुरक्षा का सवाल नहीं रहेगा, यह उसके अस्तित्व पर संकट बन जाएगा। इसलिए पाकिस्तान की फौज, जो वर्षों तक अपनी सख्ती और दमन के बल पर इलाके नियंत्रित करती आई, आज किसी बहु-मार्गी संघर्ष का सामना कर सकती है। पूर्वी मोर्चे पर भारत से दबाव, पश्चिम में विद्रोह भाव और अंदरूनी अर्थव्यवस्था पर रुकावटें।
भारत ने यह समझ लिया है कि किसी भी ‘भौगोलिक टुकड़े’ को बदलने के लिये भारी हथियारों की आवश्यकता नहीं होती। रणनीति, विश्वसनीयता और अंतरराष्ट्रीय नैरेटिव यही सारी लड़ाई तय करते हैं। POK को लेकर भारत का मानवाधिकार-आधारित दृष्टिकोण, संयुक्त राष्ट्र तथा अन्य वैश्विक संस्थाओं में उठाया जाना और पाकिस्तानी दमन के सबूतों को उजागर करना, यह सब पैंतरे हैं जिनके परिणाम दीर्घकालिक होंगे। जब एक क्षेत्र को ‘न्याय’ के मुद्दे पर प्रस्तुत कर दिया जाता है, तो सैन्य विकल्प के अलावा उस पर वैधता और अंतरराष्ट्रीय समर्थन का दबाव बनता है—और यह दबाव देशों की नीति बदलने में सक्षम है।

भारत को मिल सकता है नया मार्ग

गिलगित-बल्तिस्तान और वाखान कॉरिडोर का महत्व केवल भौगोलिक नहीं है, यह सामरिक गहरे अर्थों का पुल है जो भारत को दक्षिण और मध्य एशिया के बीच में एक नया मार्ग दे सकता है। एक ऐसा मार्ग जो पाकिस्तान के जरिए नहीं गुज़रता। चाबहार पोर्ट का इरान-भारत तालमेल और ताजिकिस्तान के साथ सहयोग भारत को समुद्री तथा सैद्धान्तिक तौर पर पाकिस्तान-केंद्रित गलियारों से हटने की क्षमता दे रहा है। यदि अफगानिस्तान, जो ओपिक रूप से पाकिस्तान को सीमा की वैधता पर चुनौती देता रहा है और बलूचिस्तान, जो अपनी स्वतंत्रता की आवाज़ बुलंद कर रहा है, किसी साझा रणनीति पर आते हैं, तो यह सिर्फ़ पाकिस्तान के लिये भू-राजनीतिक समस्या नहीं, बल्कि उसकी अर्थव्यवस्था, ऊर्जा मार्गों और चीन के साथ बने उसके महत्त्वपूर्ण प्रोजेक्ट्स के लिए भी बड़ा झटका होगा।

चीन के लिए खतरे की घंटी

CPEC का दक्षिणी हिस्सा-ग्वादर और उससे जुड़ी सड़क-रेल परियोजनाएं चीन की बड़ी भू-राजनीतिक पूंजी हैं। यदि ग्वादर का नियंत्रण स्थिर न रहे और बलूच असंतोष ने इस क्षेत्र में मजबूत पकड़ बना ली, तो चीन का सबसे बड़ा निवेश ही जोखिम में आ जाएगा। चीन के लिए, पाकिस्तान ने एक तरह से खुद को ‘अत्यधिक निवेश का आतिथ्य स्थल’ बना कर रखा है। लेकिन, जब मेज़बान ही बेवजह अनिश्चित हो, तो मेहमान का निवेश खतरे में पड़ जाता है। इसलिए चीन की भूमिका भी अब सवालों के घेरे में है कि क्या वह पाकिस्तान को इतना खुलकर समर्थन दे पाएगा कि बलूचिस्तान का संतुलन सुलझ जाए? यदि चीन का अटूट समर्थन किसी कारणवश कमजोर पड़ता है, तो पाकिस्तान को वैश्विक रणनीतिक एकाकीपन का सामना करना पड़ेगा।

पाकिस्तान की आंतरिक मजबूती पर भी गंभीर प्रश्न उठते हैं। पंजाब, जिस पर पाकिस्तान का सैन्य-राजनीतिक नेतृत्व बहुत हद तक निर्भर है। आर्थिक संघर्षों तथा राजनीतिक असंतुलन से ग्रस्त है। सिंध और बलूचिस्तान में आर्थिक और मानवाधिकार संबंधी शिकायतों का अंतरराष्ट्रीय ध्यान खींचना पाकिस्तान के लिये अतिशय संकटोन्मुख साबित हो सकता है। बड़ी बात यह है कि पाकिस्तान की सेना अब परम्परागत मोर्चों के अलावा, अस्थिरता और विद्रोह दोनों से लड़ने पर विवश हो सकती है और यही वह क्षण होगा जब किसी भी बाहरी शक्ति का प्रभाव कमज़ोर पड़ता है।

पाकिस्तान को दो मोर्चें पर करना होगा सामना

भारत की भूमिका इस पूरी प्रक्रिया में एक निर्णायक, लेकिन सूक्ष्म भूमिका है। भारत ने न तो किसी विद्रोह को आधिकारिक तौर पर समर्थन दिया है और न ही किसी तरह की सैन्य भूमिका ली है। लेकिन, अफगानिस्तान में दी जा रही मानवीय, तकनीकी और राजनयिक मदद ने एक बुनियादी भरोसा फिर से बनाया है, जिसे तालिबान भी अनदेखा नहीं कर सकता। भरोसा बनाने का यही तरीका आर्थिक, प्रशासनिक और नागरिक सहायताओं के माध्यम से कार्य करता है। अफगानिस्तान में भारत की योजनाएं खुले तौर पर सैन्य नहीं रहींं, वे नीति-निर्धारण, पुनर्निर्माण और दीर्घकालिक निवेश के रूप में रहीं और यही पाकिस्तान के लिए सबसे खतरनाक है।

यदि अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में Pakistan के खिलाफ मानवाधिकारों के उल्लंघन और अवैध कब्जे की आवाज़ें तेज़ होती हैं, तो पाकिस्तान को दो मोर्चों पर राजनयिक संघर्ष का सामना करना पड़ेगा-जो उसे सैन्य एवं आर्थिक रूप से कमजोर करेगा। भारत इस बिंदु पर यह भी समझता है कि एक स्पष्ट तथा सतर्क वैश्विक नैरेटिव का निर्माण कर देना काफी होता है; लोकतांत्रिक देशों के संसदनों, मानवाधिकार संस्थाओं और मीडिया में लगातार मुद्दा उठने पर, छोटे-छोटे संप्रभुताएँ भी अपने कदम मोड़ने लगती हैं।

1971 की तरह फिर टूटेगा पाकिस्तान!

पाकिस्तान की स्थिति अगर और बिगड़ी तो उसका राजनीतिक ढांचा 1971 जैसी आंतरराष्ट्रीय टूट का सामना कर सकता है। यह अतिशयोक्ति नहीं, इतिहास बार-बार साबित कर चुका है कि जब किसी बहु-जातीय, बहु-भू-भागी नज़रिये वाली राज्य संरचना पर लगातार आर्थिक खिंचाव, सामाजिक उपेक्षा और सैन्य दबाव एक साथ पड़ते हैं, तो उसका विघटन संभव हो जाता है। भारत का उद्देश्य युद्ध नहीं है, पर वह ऐसे राजनीतिक-सामाजिक चलन पैदा कर रहा है जो पाकिस्तान की सामूहिक समेकन क्षमता को कमज़ोर कर दें।

अगले चरण में भारत का रूख साफ़ है: अंतरराष्ट्रीय मंचों पर POK, गिलगित-बल्तिस्तान और बलूचिस्तान के मानवीय मसलों को बार-बार उठाना, चाबहार और ताजिकिस्तान के मार्गों को सशक्त करना ताकि पाकिस्तान के वर्चस्व वाले CPEC की भू-राजनीतिक वैधता संदिग्ध लगे और अफगानिस्तान के साथ दीर्घकालिक आर्थिक तथा कूटनीतिक संबंधों को मजबूती देना। यह रणनीति सीधे तौर पर ‘आक्रामक’ नहीं मानी जाएगी, पर इसके प्रभाव आक्रमक होंगे, क्योंकि यह पाकिस्तान की वैधता, उसकी अर्थव्यवस्था और उसकी सामरिक बॉन्डिंग को संदेह के घेरे में डालने का काम करेगी।

इस सबका सबसे बड़ा प्रभाव चीन पर भी पड़ेगा। चीन ने पाकिस्तान को ‘अपने रणनीतिक भागीदार’ के रूप में देखा और CPEC में भारी निवेश किया। अगर भू-राजनीतिक अस्थिरता ग्वादर और बलूचिस्तान में फैले, तो चीन को पाकिस्तानियों के भरोसे पर पुनर्विचार करना पड़ेगा। चीन के लिए यह विकल्प मुश्किल है, क्योंकि उसकी पॉलिसी में पाकिस्तान एक अहम खंभा रहा है। लेकिन आज की स्थिति में चीन के लिए पाकिस्तान का भरोसा जिस हद तक खतरे में है, वह चीन की विदेशी नीति में भी गंभीर संशय पैदा कर सकता है।

यही है भारत का रणनीतिक खेल

अंततः यह कहना जरूरी है कि भारत का यह नया दांव क्रूरता नहीं, कूटनीति है। यह युद्ध नहीं, रणनीति है। यह किसी भी सैन्य टकराव की उम्मीद पर आधारित नहीं, बल्कि दावों, नैरेटिव और दीर्घकालिक साझेदारियों के निर्माण पर आधारित है। जब कोई देश बिना शोर के, लेकिन लगातार सुदृढ़ता से अंतरराष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर विश्वास बनाता है, तो परिणाम धीरे-धीरे परिवर्तित होते हैं और यही अब हो रहा है। POK से लेकर बलूचिस्तान तक, पाकिस्तान की ‘पूर्वी दीवार’ में इतनी दरारे उभर रही हैं कि उसे अब केवल कूटनीतिक, आर्थिक और आंतरिक सुधारों से ही जोड़ा जा सकता है और यदि वह ऐसा नहीं कर सकता, तो इतिहास की सीमा रेखा उस पर कठोर होगी।

भारत ने यह बड़ा खेल शाश्वत शक्ति बनने के लिये नहीं, बल्कि क्षेत्रीय स्थिरता और अपने राष्ट्रीय हित को संरक्षित करने के लिये खेला है। यह खेल खून-खराबे का नहीं, बल्कि समझदारी और दीर्घ-कालिक रणनीति का है। इस रणनीति के सफल होने पर दक्षिण और मध्य एशिया का नक्शा बदल सकता है, एक ऐसा नक्शा जिसमें भारत की भूमिका निर्णायक और स्थायी होगी और पाकिस्तान के पुराने, असुरक्षित सहारे ध्वस्त।

अंत में एक बात और, यह कहानी अभी खत्म नहीं हुई, यह तो बस शुरुआत है। लेकिन जो परिवर्तन अब दिखाई दे रहे हैं, वे इतिहास में दर्ज होने के लिए पर्याप्त हैं। जब कूटनीति और क्षेत्रीय राजनीति का संयोजन निर्णायक होता है, तो सीमाएं और राष्ट्र ही बदल जाते हैं। भारत ने चुपचाप वह धुरी बनाई है। अब समय बताएगा कि भारत की यह धुरी कितनी गहरी और कितनी लंबी चलती है।

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