बिहार विधानसभा चुनाव – 2020 जदयू और नीतीश कुमार के लिए ढेर सारी सीख और शिकस्त लेकर आया। जदयू ‘’बडे-भाई’’ से छोटे-भाई की भूमिका में आ गई, नीतीश कुमार की सुशासन की छवि कमजोर पड़ी, जदयू में नीतीश का कद कमजोर हुआ और आरसीपी सिंह का उदय हुआ। केंद्र में भी मोदी सरकार द्वारा आरसीपी सिंह को मंत्री पद मिला और नीतीश के 4 मंत्रियों की मांग को नकार दिया गया। परंतु, अब इसे राजनीतिक लाचारी कहे या विडम्बना पर बीतते वक़्त के साथ सत्ता का मोह और भी बढ़ जाता है। नीतीश कुमार अभी इसी मोह से ग्रसित है।
नीतीश कुमार मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए आने वाले चुनाव में नहीं लड़ेंगे, इसकी मार्मिक घोषणा वो विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण के प्रचार के समय जनता के समक्ष पहले ही कर चुके है। ऊपर से केंद्र की राजनीति में भी मोदी सरकार ने उनकी अनुचित मांगो को नकारते हुए भविष्य के जदयू सुप्रीमो क रूप में आरसीपी सिंह को अपना लिया है। इन सभी घटनाओं से नीतीश कुमार सकते में है। उन्हें समझ नहीं आ रहा की राज्य की राजनीति छोड़े कैसे और केंद्र के राजनीति मे स्थापित कैसे हों? लालू प्रसाद, मुलायम और पासवान की तरह उनका वारिस भी तो राजनीति में नहीं है जो उनके राजनीतिक विरासत को संभाल ले। अतः जदयू संगठन की कमान अपने खास ललन सिंह को सौंप कर केंद्र मे वो अपने पुराने ढर्रे की मोदी विरोधी राजनीति पर उतर आए हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का मुख्य घटक दल जनता दल (यूनाइटेड) केंद्र सरकार की राय के विपरीत जाति जनगणना कराने पर भी जोर दे रहा है और ऊपर से पेगासस के मुद्दे पर वो केंद्र सरकार के खिलाफ़ भी मुखर हो गए हैं। विपक्ष उनके इस रूख से काफी उत्साहित है लेकिन उनकी अपनी पार्टी ही इस मुद्दे पर उनके इस बयान को उनकी निजी राय बता कर पल्ला झाड़ने की फिराक में है। इसका अर्थ साफ है नीतीश कुमार पार्टी मे कमजोर है और शासन मे भी।
जिस तीसरे मोर्चा के बल पर नीतीश कुमार खुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार तक बता रहे हैं वो खुद एक कपोल-कल्पना है, जो अगर गलती से साकार हो भी गयी तो इसके खिलाड़ी ही नीतीश के सबसे कड़े प्रतिद्वंदी साबित होंगे। नीतीश कुमार तीसरे मोर्चे का चेहरा तभी बन पाएंगे जब वो खुद अपने पार्टी के भीतर सशक्त हों। भाजपा से बगावत उन्हें बिहार और केंद्र की राजनीति में कहीं का नहीं छोड़ेगी। राजनीतिक पंडितो का मानना है कि नीतीश कुमार इस बार राजद से भी सौदा करने के क़ाबिल नहीं है, क्योंकि जहां तक सदन में सीटों और जनाधार का सवाल है राजद उनसे कहीं आगे और बेहतर स्थिति मे नज़र आती है। अतः तेजस्वी भाजपा की तरह मुख्यमंत्री पद की कुर्बानी नहीं देंगे। स्पष्ट है कि नीतीश को तेजस्वी के नेतृत्व में काम करना पड़ेगा जो नीतीश की छवी को शोभा नहीं देता।
इसीलिए नीतीश कुमार और जदयू के लिए अब यह बेहद जरूरी हो गया है कि वो एक सम्मानजनक विदाई लें और शांतिपूर्ण तरीक़े से सत्ता, शासन और पार्टी की कमान को हस्तांतरित करें। इसी में उनका सुखद भविष्य और शांतिपूर्ण सन्यास निहित है। प्रबल संभावना है कि उनके क़द, ओहदे और राजनीतिक रसूख को देखते हुए भाजपा उन्हें राष्ट्रपति या फिर किसी मलाईदार मंत्री पद से नवाज़ दे क्योंकि इतनी काबिलियत और हैसियत तो नीतीश कुमार रखते ही हैं, अन्यथा क्या पता राजनीति उन्हे किस तरह से विदाई दे। हो सकता है हवाओं का रूख न समझने पर वो सबसे बड़े खलनायक क्षेत्रीय नेता के रूप मे राष्ट्रीय राजनीति मे याद किए जाएँ।