हिंदी में एक कहावत है, आ बैल मुझे मार। ये मुहावरा तब इस्तेमाल होता है जब आप विपत्ति को खुद आमंत्रित करते है। एक दूसरा मुहावरा है, अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना, ये मुहावरा तब इस्तेमाल होता है जब खुद से खुद के लिए विपत्ति बनाते है। संयोग से आज एक ऐसा उदाहरण भी है, जिसपे ये दोनों कहावत लागू भी होते है। चीन पर यह दोनों कहावत सटीक बैठती है। चीन अपने आप ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने की पूरी तैयारी कर चुका है। खबरों के मुताबिक, 12 अगस्त को यह रिपोर्ट्स आने लगी कि चीन शायद तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान की वैध ताकत मानने की पूरी तैयारी में है। हेरात के बाद अफ़ग़ानिस्तान का दूसरा सबसे बड़ा शहर कंधार भी अब तालिबानी लड़ाकों के नियंत्रण में है।
हालांकि, काबुल के संदर्भ में अमेरिका यह बात कहता रहा है की, वहां पर तालिबानी नियंत्रण होना मुश्किल बात है लेकिन शायद अब देर हो चुकी है। तालिबानी ताकत जिस तरीक़े से आगे बढ़ रहा है, काबुल दूर नही है। अब ऐसे में विश्व के तमाम देश अशरफ गनी से बात न करके तालिबान से सम्बंध बनाने की कोशिश में जुट गए है। चीन, अफगानिस्तान और तालिबान! यह तिकड़ी खतरनाक तिकड़ी है। चीन के राष्ट्रपति दो हफ्ते पहले तक यह कह रहे थे कि वह अशरफ गनी को सारी जरूरी मदद देने के लिए तैयार है जिससे अफ़ग़ानिस्तान में शांति बनी रहे। चीन की इस तिकड़ी को पाकिस्तान के बिना समझना मुश्किल है। अफ़ग़ानिस्तान की वर्तमान सरकार ने बार-बार यह कहा है कि पाकिस्तान तालिबानी लड़ाकों की मदद कर रहा है।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बहस में अफ़ग़ानिस्तान के दूत द्वारा बार-बार यह दावा किया गया कि पाकिस्तान तालिबान मदद कर रहा है। पाकिस्तान के सहारे चीन अफ़ग़ानिस्तान में अपनी पकड़ को मजबूत बना रहा है। चीन के वहां पर बड़े सारे स्वार्थ है। सबसे बड़ा स्वार्थ यह है चीन पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी भाग के काफी नजदीक है। दूसरा यह कि चीन के पास अफ़ग़ानिस्तान के रास्ते ही सही, एक बड़ा क्षेत्रफल उनके नियंत्रण में हो जाएगा जो ईरान तक सीधे तौर पर सीमा दूरी प्रदान करेगा। इसके साथ ही चीन को अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद खनिज संपदा का भंडार भी दिख रहा है। एक बात यह भी है कि चीन कभी भी तालिबान से सीधे संपर्क में नही रह है। 1996 के बाद से चीन हमेशा तालिबानी ताकतों से दूर रहने का प्रयास किया है।
जब सोवियत संघ के आखिरी सैनिक अफगानिस्तान को छोड़ रहे थे तब चीन ने भी वह पर अपने दूतावास को बंद कर दिया था। एक रिपोर्ट के मुताबिक, तालिबानियों के अल कायदा और उइगर आतंकियों के साथ सम्बन्ध चीन को कभी पसंद नही थे। 20 साल बाद चीन 2016 में तालिबानी समूहों से सम्पर्क साधने लगा। उसके पीछे एक बड़ा कारण यह है कि चीन के महत्वाकांक्षी योजना जैसे कि रोड एंड बेल्ट योजना और चीन पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर के लिए अफ़ग़ानिस्तान के ताकतों का साथ होना जरूरी है। चीन और इस्लाम! हालांकि यह सम्बंध स्थापित होते दिख रहे है लेकिन यह नही भूलना चाहिए कि चीन बतौर धर्म इस्लाम को कैसे देखता है। चीन हमेशा से धार्मिक स्वतंत्रता को संदेह की नजर से देखता है। यूईघर मुसलमानों को बंद करके उनको धार्मिक महत्व से दूर रखकर चीन पहले ही अपना रवैया स्पष्ट कर चुका है। उनके लिए धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर अलग विचारधारा का जन्म लेना स्वीकार्य नही है।
इस्लामिक चरमपंथी संगठन के बनने और सक्रिय होने से पहले ही चीन उनकी मानसिक सुद्धि करना चाहता है। अभी सम्बंध बनना शुरू भी नही हुआ था कि खबर आई है कि पाकिस्तान में सुसाइड बॉम्बिंग हुई है जिसमें चीन के भी नागरिक मारे गए है। चीन शायद इस गलतफहमी में जी रहा है कि तालिबान और तालिबान 2.0 एक ही है। नए तालिबान की नीतियां ज्यादा घातक है। उनके अधिग्रहण और उनके सुचारू रूप से तौर तरीके की नींव इस्लामिक विचार है। इस बार उनके पास पैसों की भी कमी नही है। इंडिया टुडे के मुताबिक, तालिबान 2.0 के पास आर्थिक भण्डार 2 बिलियन डॉलर से अधिक होने का अनुमान है। ऐसे स्रोतों के साथ यह कहना गलत नही होगा कि तालिबान स्वतंत्र रूप से काम करने में सक्षम है। उनके खुद के विचार को शायद ही चीन नियंत्रित कर पाए।
आर्थिक सहायता के बाद भी जरूरी नही है कि इस सम्बंध की बागडोर चीन के ही हाथ मे होगी। यह भी संभव है कि वह इस्लामिक एजेंडे को हमेशा आर्थिक नीतियों के आगे रखे। ऐसा होगा तो चीन में स्थिरता नही बनेगी। आतंकवाद फल फूल सकता है। सांप को दूध पिलाने के बाद भी वह आपको काट सकता है। तालिबान के बर्बरतापूर्ण उत्थान से यह लग रहा है कि वह अपने विचार के आगे शायद ही किसी और चीज को प्राथमिकता दे। जहां तक आर्थिक सहायता और बातचीत की बात है, चीन शायद खुद के लिए फंदा तैयार कर रहा है।