तालिबान का इतिहास : कैसे अमेरिका ने आज के भस्मासुर को जन्म दिया?
भस्मासुर नाम तो आपने सुना ही होगा। हाँ हाँ, वही राक्षस, जिसने भगवान शिव से ऐसा वरदान मांगा, जिसके वह जिसके भी सर पर अपना हाथ रखे, वह भस्म हो जाए। लेकिन जब भगवान ने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर वरदान दिया, तो भस्मासुर ने प्रयोग के तौर पर वह वरदान महादेव पर ही चलाना चाहा। कुछ ऐसा ही किया है अमेरिका ने । तालिबान के इतिहास में जाए तो वर्ष 1980 के दशक में सोवियत संघ के प्रभाव को कम करने के लिए उन्होंने जिन लड़ाकों को प्रशिक्षण दिया, वो लड़ाके भस्मासुर की भांति अफ़गानिस्तान के साथ-साथ अमेरिका की प्रतिष्ठा को भी मिट्टी में मिला रहे हैं। ये लड़ाके कोई और नहीं बल्कि वही तालिबानी हैं, जिन्होंने दो दशक बाद फिर से अफगानिस्तान की सत्ता को हथिया लिया है।
हाल ही में तालिबान के खूंखार आतंकियों ने पूरे अफ़गानिस्तान को अपने नियंत्रण में ले लिया है, जिसके कारण वहाँ की सरकार को दुम दबाके भागना पड़ा है। परंतु क्या अफ़गान सरकार कायर है? बिल्कुल नहीं, असली कायर तो व्हाइट हाउस में बैठा अमेरिकी प्रशासन है, जिसका नेतृत्व जो बाइडन कर रहे हैं, जिसने चंद महीनों में ही अपनी अकर्मण्यता से 20 सालों की मेहनत पर पानी फेर दिया है। तालिबान के रूप में जो ‘Frankenstein’ अमेरिका ने रचा, वो अब सर चढ़कर उत्पात मचा रहा है, और यदि इसे नहीं रोका गया, तो पूरे दुनिया की शांति खतरे में आ सकती है।
अमेरिका ने तालिबान के उत्थान में कैसे योगदान किया, क्या है पूरा इतिहास?
तालिबान का इतिहास जुड़ा है अस्सी के दशक से, इसका प्रारंभ हुआ 1979 में, जब सोवियत मित्रता समझौते का सम्मान करने के लिए सोवियत संघ ने अफ़गानिस्तान पर धावा बोल दिया। शीत युद्ध अपने चरम पर था, अमेरिका और सोवियत संघ एक दूसरे से सीधे मुंह बात तक नहीं करते थे। उस समय सोवियत संघ का सामना स्थानीय स्तर पर मुजाहिद्दीनों से हो रहा था, जिन्हें पाकिस्तान में ये कहकर उकसाया जा रहा था कि ईसाई सोवियत उनके इस्लाम धर्म के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।
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लेकिन इसी बीच इस खेल में प्रवेश किया अमेरिका ने। सोवियत संघ पर वर्चस्व जमाने के इरादे से अमेरिका और उसके सहयोगियों, विशेषकर सऊदी अरब ने मुजाहिद्दीनों को प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया। हर सोवियत हेलिकॉप्टर का ध्वस्त होना और हर सोवियत सैनिक का मारा जाना मुजाहिद्दीनों से अधिक अमेरिका के लिए सफलता का परिचायक था। अंत में 1988 तक आते-आते सोवियत संघ को अफगानिस्तान से हाथ पीछे खींचने पड़े, और यहीं से अफगानिस्तान में तालिबान का जन्म हुआ।
लेकिन तालिबान की क्षुधा शांत नहीं हुई थी। शेर के मुंह खून लग चुका था। 1994 आते आते तालिबान एक शक्तिशाली गुट में परिवर्तित हो चुका था। 1996 में आखिरकार तत्कालीन अफ़गान राष्ट्रपति मोहम्मद नजीबुल्लाह की जघन्य हत्या के साथ ही तालिबान ने समूचे अफगानिस्तान पर आधिपत्य स्थापित कर लिया था। अब उनकी दृष्टि समूचे संसार में अपने निकृष्ट विचारधारा को जबरदस्ती थोपने पर लग गई।
तालिबान को फंडिंग
पाकिस्तान में बैठे अपने आकाओं तथा सऊदी एवं मध्य एशिया के अन्य देशों की वित्तीय सहायता से इन तालिबानी मुजाहिद्दीनों अलकायदा ने एशिया, यूरोप और अफ्रीका के अनेक मुस्लिम युवकों में अपने कुत्सित जिहाद की विष फैलाई। अमेरिका को अपने ही राक्षस की भयावहता का एहसास तब हुआ, जब 11 सितंबर 2001 को इन्ही आतंकियों ने अमेरिका में त्राहिमाम मचाते हुए अनेकों बम विस्फोट किए, जिनमें सबसे प्रमुख था अमेरिका के प्रसिद्ध विश्व ट्रेड सेंटरों का विध्वंस।
अमेरिका को जब ज़ोर का झटका लगा, तब उसे अंतत: जागना ही पड़ा। तालिबान को तुरंत निशाने पर ले हुए उसे 2001 में सत्ता से उखाड़कर फेंक दिया गया। लेकिन वर्षों की मेहनत पर पानी फेरते हुए बाइडन प्रशासन ने फिर इस राक्षस को जगा दिया है, और अब इस्लामिक स्टेट के साथ मिलकर यह क्या उत्पात मचाएगा, इसका अंदाजा कोई भी नहीं लगा सकता। पाकिस्तान ने पहले ही तालिबान को खुलेआम समर्थन देकर अपने लिए कब्र खोद ली है, पर ये अमेरिका है जिसके कारण इस राक्षस का सृजन हुआ है, ये अमेरिका है और इतिहास की उसी भूल के कारण तालिबान जैसे आतंकी आज फिर से निरीह जनता पर अत्याचार ढा रहे हैं, और अब इस राक्षस को जगाने का क्या दुष्परिणाम अमेरिका भुगतेगा, यह भगवान ही जाने।