2014 में गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी को सफल बनाने में सोशल मीडिया ने भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। सोशल मीडिया पर चलाए गए नैरेटिव वॉर में जीत के कारण नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बने। सोशल मीडिया के आने पर मेन स्ट्रीम मीडिया, विशेष रूप से डिजिटल मीडिया के विकल्प के रूप में ऑनलाइन पोर्टल की भरमार आ गई। एक लंबे समय तक डिजिटल मीडिया पर लेफ्ट विचारधारा का कब्जा रहा था। इस कब्जे और राइट विंग मीडिया की कमी के कारण के कारण वाजपेयी सरकार अक्सर दबाव में रहती थी, इसी के कारण UPA काल में हिन्दू आतंकवाद की कहानियां मजबूत हुईं। किन्तु मोदी जी के केंद्रीय राजनीतिक पटल पर आते ही सोशल मीडिया ने डिजिटल मीडिया के प्रभाव को कम कर दिया।
इसके बाद से हमने देखा है कि लेफ्ट इकोसिस्टम ने ऑनलाइन पोर्टल को अपनी बात रखने का साधन बनाया है। इसी का नतीजा है कि पहले जहाँ केवल स्क्रॉल ही एक वेबसाइट थी, वहीं अब क्विंट, वायर और द प्रिंट जैसे अन्य पोर्टल भी बहुत तेजी से आगे आए हैं, जिन्होंने सोशल मीडिया के माध्यम से लेफ्ट को पुनः प्रभावी बनाया है।
जब घरेलू दर्शकों ने डिजिटल मीडिया को, भले वह किसी भी धड़े की हो, समाचार का विश्वसनीय स्त्रोत मानना छोड़ दिया, तो सोशल मीडिया पर चल रहे सभी न्यूज़ पोर्टल विकल्प बनकर आए। शेखर गुप्ता, बरखा दत्त जैसे बड़े नामों ने इस बदलाव को पहचाना और यूट्यूब-फेसबुक आदि के माध्यम से लेफ्ट मीडिया का वैकल्पिक इकोसिस्टम तैयार किया। इसी बीच में दक्षिणपंथी विचारधारा के मीडिया पोर्टल भी तेजी से आगे आए हैं।
राइट विंग मीडिया पोर्टल की तुलना अगर राइट विंग डिजिटल मीडिया से करें तो ऑनलाइन मीडिया पोर्टल को बहुत अधिक सफलता मिली है। जहाँ एक ओर डिजिटल क्षेत्र में राइट विंग मीडिया, लेफ्ट के तैयार नरेटिव के पीछे पीछे चलता है, वहीं पोर्टल की दुनिया में राइट विंग मीडिया पोर्टल खुद का नरेटिव गढ़ते हैं। उदाहरण के लिए हाथरस मामले में एक रिपब्लिक भारत को छोड़ दें तो लगभग सभी मीडिया संस्थान एक ही धुन अलाप रहे थे और बिना वास्तविकता को जाने योगी सरकार को दलित विरोधी सिद्ध करने लगे थे। केवल रिपब्लिक चैनल ने यह खुलासा किया कि हाथरस रेप केस को आधार बनाकर पूरे प्रदेश में जातीय हिंसा को भड़काने की कैसी साजिश चल रही है।
इसके विपरीत अगर हम सोशल मीडिया के माध्यम से चल रहे राइट विंग संस्थानों की बात करें तो यहाँ राइट विंग पोर्टल एक कदम आगे हैं। ऑपइंडिया ने नरेटिव बनाने और वामपंथी नरेटिव तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। साथ ही ऐसे हर छोटे बड़े मामले, जिसमें हिंदुओं को प्रताड़ित किया गया हो, उसकी अच्छी ग्राउंड रिपोर्टिंग भी की है। वहीं एक अन्य मीडिया पोर्टल स्वराज्य है। स्वराज्य का काम मूलतः बौद्धिक चर्चा से जुड़ा है। दक्षिणपंथी धड़े को बौद्धिक दृष्टिकोण देना, सांस्कृतिक मामलों पर लेख लिखना, ये काम स्वराज्य ने बहुत अच्छे ढंग से किया है।
वहीं TFI मीडिया ग्रुप की बात करें तो हमने भी वामपंथी नरेटिव को तोड़ने के साथ ही उनकी वास्तविकता को सामने लाने का काम किया है। साथ ही TFI ने आर्थिक मामलों में परंपरागत समाजवादी दृष्टिकोण से अलग वैचारिक दृष्टिकोण देने, जिओपॉलिटिक्स और वैश्विक संबंधों की एक अच्छी समझ पैदा करने तथा वैश्विक वामपंथी इकोसिस्टम की वास्तविकता सामने लाने का काम किया है।
लेफ्ट पोर्टल अधिकांशतः ऐसी खबरें चलाते हैं जो सामाजिक विभेद पैदा करती हैं। कई बार उनकी रिपोर्टिंग देशविरोधी भी हो जाती है। जैसे कुलदीप जाधव के मामले में पाकिस्तान ने क्विंट की रिपोर्ट का इस्तेमाल भारत के खिलाफ दुष्प्रचार के लिए किया। इसके अलावा दी प्रिंट ने भारत और रूस के संबंधों पर ऐसी रिपोर्टिंग की जिसे स्वयं रूस के दूतावास द्वारा खंडित किया गया।
लेफ्ट इकोसिस्टम की सबसे बुरी बात यह है कि ये विरोध को ही मीडिया का काम मानते हैं। जैसे किसी स्थान पर पुल न होने पर वहाँ आवाजाही की समस्या को मुद्दा बनाएंगे, पुल बन जाने पर वाइल्ड लाइफ को खतरा है, इसे मुद्दा बना लेंगे। इनके द्वारा सरकार की हर योजना की केवल खामियों को उजागर किया जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इन्होंने अपनी नकारात्मक रिपोर्टिंग को अपनी शक्ति बनाया है, जिसके आधार पर यह पिछली सरकारों में सशक्त बने रहे।
हालांकि, अब हालात बहुत बदल गए हैं। राइट विंग मीडिया संस्थानों ने तमाम विरोधों के बाद भी इन्हें न सिर्फ सफलतापूर्वक चुनौती दी है, बल्कि इनसे अच्छा प्रदर्शन भी किया है। विकिपीडिया पर बदनाम करके, फेसबुक पर रीच कम करके, राइट विंग मीडिया संस्थानों को दबाने का प्रत्येक प्रयास, असफल ही रहा है और भविष्य में भी राइट विंग मीडिया को दबाने का हर प्रयास असफल ही होगा, क्योंकि राइट विंग मीडिया राष्ट्रवाद की वाहक है और दुनिया का कोई इकोसिस्टम राष्ट्रवाद से अधिक शक्तिशाली नहीं हो सकता।