‘यहां छात्रों का विकास नहीं’, NCPCR की मांग अल्पसंख्यक संस्थानों को मुख्यधारा में लाया जाये

अल्पसंख्यकों समुदाय के शैक्षणिक संस्थानों की मनमानियों को खत्म करने के साथ उनके मूल उद्देश्य की पूर्ति से भटकने को लेकर NCPCR ने कुछ विशेष सुझाव दिए हैं।

अल्पसंख्यक संस्थानों

देश के अल्पसंख्यक समुदायों के उत्थान के लिए शिक्षा के क्षेत्र में इनसे जुड़े संस्थानों को जो स्वतन्त्रता प्रदान की गई थी, असल में अब वही स्वतंत्रता अल्पसंख्यकों के उत्थान की बाधा बन गई है। सभी प्रकार की सरकारी पहुंच से स्वतंत्र रहने वाले इन अल्पसंख्यक संस्थानों में वंचित समुदाय के लोगों को तो कोई विशेष लाभ मिलता ही नहीं, साथ ही साथ इसकी कार्यशैली में अनेकों असमानताएं भी हैं, जिसका भंडाफोड़ राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग आयोग अर्थात NCPCR ने एक रिपोर्ट प्रकाशित कर किया किया है। यही नहीं अल्पसंख्यकों समुदाय के शैक्षणिक संस्थानों की मनमानियों को खत्म करने के साथ उनके मूल उद्देश्य की पूर्ति से भटकने को लेकर NCPCR ने कुछ विशेष सुझाव दिए हैं, जिससे इन समुदायों की अनुपातिक अनियमितता खत्म होगी। NCPCR की यह रिपोर्ट पूरा भंडाफोड़ करता है कि कैसे धर्म निरपेक्षता के नाम पर राजनीतिक दलों ने ऐसे प्रावधान बनाए हैं, जिनका नुकसान सबसे अधिक अल्पसंख्यकों को ही हो रहा है।

दरअसल, एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण में NCPCR ने 23,487 अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों का विश्लेषण कर बताया है, कि कैसे गैर-अल्पसंख्यक और अल्पसंख्यक संस्थानों में अलग-अलग नियम होने के कारण अल्पसंख्यकों के उत्थान का मूल उद्देश्य पीछे छूट चुका है। कैसे अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के लिए ही ये संस्थान ही नकारात्मक साबित हुए हैं। बाल आयोग ने बताया कि इन अल्पसंख्यक संस्थानों की कार्यशैली पूर्णतः नकारात्मक और मनमाने ढंग की ही है। छात्रों का प्रवेश, शिक्षकों की भर्ती, पाठ्यक्रम का कार्यान्वयन, शिक्षाशास्त्र के संदर्भ में ये सभी संस्थान स्वयं के मानदंड निर्धारित करते हैं।

अल्पसंख्यक समुदाय के इन संस्थाओं में मुख्य तौर पर एक ही वर्ग को अधिक प्रोत्साहन मिल रहा है। एक तरफ जहां इनमें एलीट वर्ग के छात्रों को शामिल किया जा रहा है, तो दूसरी ओर कुछ अन्य में पूर्ण तौर पर वंचित वर्ग के बच्चे शामिल हैं, जिसके चलते इन संस्थाओं की स्थिति नाज़ुक है। इस पूरे अनियमितताओं के खेल के पीछे इन अल्पसंख्यक समुदाय के संस्थानों को आवश्यकता से अधिक दिए गए अधिकार भी हैं। अनुच्छेद-30 (1) के अंतर्गत अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को आजादी दी गई है कि वो किसी भी तरह के स्वतंत्र शैक्षणिक संस्थान बना सकते हैं।

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इतना ही वर्ष 2009 में शिक्षा के अधिकार का कानून का प्रावधान लागू हुआ, तो सभी संस्थानों में करीब 25 प्रतिशत सीटें आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए आरक्षित की गईं, किन्तु इसमें विशेष ये था कि अल्पसंख्यक समुदाय पर शिक्षा का ये अधिकार लागू ही नहीं किया गया। वर्ष 2004 में मनमोहन सरकार ने नेशनल कमीशन फॉर माइनॉरिटी एजूकेशन इंस्टीट्यूटशन स्थापित किया, जिसमें विशेष प्रावधान था कि कोई हिन्दू उसका अध्यक्ष नहीं बन सकता था। अल्पसंख्यकों के अंतर्गत मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी, जैन और बौद्ध धर्म शामिल हैं।

 

NCPCR ने अल्पसंख्यकों में शिक्षा के क्षेत्र में विकृतियों की मुख्य वजहें भी बताई हैं, जिनमें वर्ष 2006 में संविधान के 93 वें संशोधन के बाद अल्पसंख्यक समुदाय के संस्थानों के प्रमाणपत्रों के जारी होने में विशेष वृद्धि भी है।

यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि इन संस्थानों में आर्थिक पिछड़े वर्ग के लोगों को मिलने वाला 25 प्रतिशत का आरक्षण भी नहीं मिलता जिससे इन संस्थानों में सिर्फ एक ही समुदाय के बच्चे पढ़ते हैं‌। दिलचस्प बात ये भी है कि अल्पसंख्यक समुदाय में मात्र 11.54 प्रतिशत की आबादी वाले ईसाई वर्ग का अल्पसंख्यक संस्थानों में सबसे बड़ा करीब 71 प्रतिशत का हिस्सा है, जबकि 69 प्रतिशत वाले मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले अल्पसंख्यक संस्थान मात्र 22 फीसदी ही हैं। अगर मुस्लिम शैक्षणिक संस्थानों को छोड़कर इन संस्थानों में अल्पसंख्यकों की अपेक्षा गैर-अल्पसंख्यकों की संख्या अधिक है। डेटा बताता है कि कैसे इन संस्थाओं में केवल 8 प्रतिशत के करीब ही वंचित तबके के छात्र नामांकन दर्ज कर पाते हैं।

महत्वपूर्ण बात ये भी है कि 25 प्रतिशत RTE का कोटा मुस्लिम शैक्षणिक संस्थानों पर लगता ही नहीं है, इसके अलावा मदरसों की शिक्षा के बारे में सर्वविदित है कि ये गरीब मुस्लिम समाज के बच्चों के लिए ही हैं। भले ही इसमें कुछ मुख्यधारा के विषय हैं, किन्तु कोई गैर-अल्पसंख्यक वर्ग का बच्चा यहां नहीं पढ़ता है‌। रिपोर्ट में कहा गया है कि संविधान के अनुच्छेद 30(1) के तहत अल्पसंख्यक संस्थानों को दिए गए अधिकार को unconditional या absolute नहीं माना जा सकता।

इन सभी मामलों को हल करने के लिए एवं मुख्य तौर पर अल्पसंख्यकों के उत्थान के NCPCR ने कुछ विशेष सुझाव दिए हैं, जिनके अनुसार समय-समय पर संस्थानों को अल्पसंख्यक दर्जा देने का मूल्यांकन, कानून के अंतर्गत अल्पसंख्यक संस्थानों पर भी RTE लागू करने की बाध्यता, संख्या के आधार पर अल्पसंख्यकों संस्थानों के लिए दिशा-निर्देश, एक निश्चित समय के अंतराल में उनके अल्पसंख्यक दर्जे का पुनर्विश्लेषण, साथ ही एक ऐसे प्रशासन की स्थापना जो कि मूलतः अल्पसंख्यकों के उत्थान के लिए प्रेरित हो।

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इन सुझावों के विपरीत अगर देखें तो वर्ष 2014 में ही RTE को सभी संस्थानों पर लागू करने के संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने ही अनुच्छेद-30(1) के तहत रोक लगा रखी है। कुछ इसी तरह अल्पसंख्यक दर्जा देने को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि दर्जा राज्य या सरकारें नहीं तय कर सकतीं, क्योंकि अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित होने के कारण ही वो दर्जा संस्थानों को अपने आप ही प्राप्त हो जाता है। अल्पसंख्यक संस्थानों को दर्जा देने को लेकर सुप्रीम कोर्ट के जजों ने भी यही कह दिया था कि जिन्हें दर्जा प्राप्त है, वो नियत ही रहेगा। ऐसे में धर्म निरपेक्षता के तहत बने अल्पसंख्यक मंत्रालय के बाद से उनके अधिकारों को विस्तृत करने के जो प्रयास किए गए, उससे कुछ विशेष लोगों को ही लाभ पहुंचाया, किन्तु कानूनी दांव-पेंच की आड़ के कारण भले ही एनसीपीसीआर जो भी सुझाव देता रहे, उनका पालन होना असंभव प्रतीत होता है।

वोट बैंक के लिए अल्पसंख्यकों का मुद्दा ज्वलंत मानकर राजनीतिक पार्टियों ने हमेशा ही नजरंदाज किया है, जिसका नतीजा अल्पसंख्यकों की बर्बादी साबित हुआ है, पर क्या इसका कोई हल नहीं है? अवश्य है किन्तु आवश्यकता है कि एनसीपीसीआर के सुझावों को लागू करने के लिए विशेष कानूनी संशोधन हों, यानि वर्ष 1992  के अल्पसंख्यक अधिनियम हो, या फिर 2004 का National Commission for Minority Education Institutions से जुड़े नियमों में संशोधन करना। इतना ही नहीं, शिक्षा के अधिकार से जुड़े RTE को भी लागू करने के लिए कानून मे विशेष संशोधन करने होंगे; जिससे NCPCR के सुझाव भी लागू हो सकेंगे, और अल्पसंख्यकों के उत्थान के मूल उद्देश्य की भी पूर्ति होगी‌।

हालांकि, देश में जिस प्रकार से अल्पसंख्यकों के नाम पर राजनीतिक बिसात बिछती है, उसे देखते हुए ये कहा जा सकता है कि मोदी सरकार के लिए इन नियमों को लागू करना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं होगा।

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