मोपला नरसंहार: 1921 कोई अकेली घटना नहीं थी, 1836 से 1921 के बीच 50 से अधिक दंगे हुए थे

भाग-3

मोपलाओं

साभार: The Hindu

1921 में केरल के मलाबार में हुए हिंदुओं के नरसंहार पर TFI द्वारा प्रस्तुत सीरीज के पिछले अंकों में हमने देखा कि कैसे मलिक इब्न दिनार के नेतृत्व में 15 मुस्लिम प्रचारकों का दल क्रैंगानोर उतरा और वहीं से उद्भव हुआ मापिल्ला मुस्लिमों का। सहिष्णुता का स्वभाव है शरण देना इसलिए हमारी सहिष्णु संस्कृति ने सम्मान और स्वतंत्रता सहित उन इस्लाम प्रचारकों को इस पावन धरा पर बसाया। ये ही मोपला कहलाएं। परंतु, सर्वदा की तरह हमारी सहिष्णु संस्कृति को पुनः विश्वासघात मिला। हमारे इस उपकार के बदले 10 मस्जिद निर्माण मिले और उन मस्जिदों के माध्यम से मोपलाओं ने व्यापक स्तर पर गरीब हिन्दूओं को धर्मांतरित कराया। फलस्वरूप अप्रत्याशित जनसंख्या वृद्धि के कारण जनसांख्यिकी परिवर्तन हुआ। हम सभी जानते हैं कि जनसंख्या वृद्धि और इस्लामिक धर्मांधता में अनुपातिक संबंध है।

इस कारण मालाबार के मोपला मुसलमानों में इस्लामी ख़िलाफत का सिद्धांत पनपा। दूसरे अंक में हमने देखा कि कैसे इसी सिद्धांत ने हैदर-टीपू की बर्बरता को आमंत्रण दिया और फिर इसी बर्बरता और हिन्दू प्रतिकार के कारण उसका पतन हुआ। शासक तो गया पर सोच नहीं गयी। निर्वासित हिन्दू के न्यायोचित पुनर्वापसी ने मोपलाओं को आत्मग्लानि से भर दिया। इन घटनाओं ने मोपला को प्रतिशोध के लिए दुष्प्रेरणा दी। परिणाम स्वरूप, हिंदुओं का धार्मिक उत्पीड़न हुआ और समाज के चिरनिद्रा के कारण मोपला के रूप में इस प्रतिशोध की परिणीति हुई।

इस अंक में हम उन्हीं दंगों का सच जानेंगे जो मलाबार नरसंहार के पूर्व घटित हुईं और उन पर प्रकाश डालेंगे ताकि आपको मोपला दंगों और उसके पीछे की बर्बर इस्लामी सिद्धांत को समझा सकें।

मोपला नरसंहार पर विशेष सीरीज के इस अंक में बताऊंगा कि कैसे टीपू सुल्तान की मौत के बाद हिंदुओं की मलाबार वापसी ने मोपिल्ला मुस्लिमों को हिंदुओं के खिलाफ जिहाद के लिए दुष्प्रेरणा दी। इस अंक में 50 से अधिक उन दंगों का भी सच जानेंगे जिसे 1836 से 1921 के बीच हिंदुओं के विरुद्ध किया गया था।

टीपू की मौत और हिंदुओं के पुनर्वापसी के कारण मोपला मुस्लिम औपनिवेशिक सत्ता पर क्रोधित थे, पर कुछ कर नहीं सकते थे। ऊपर से अंग्रेजों ने टीपू के परिवार को उसके बारह बच्चों सहित पेंशन से निर्वासित कर दिया था। अपने क्रूर और धर्मांध नायक की ऐसी दुर्दशा देखकर मोपला मुस्लिम और क्रोधित हुए। वे इस्लामिक कट्टरता की ओर और मुखर हुए। प्रथम विश्व युद्ध में ऑटोमन साम्राज्य का पतन और ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता द्वारा ऑटोमन साम्राज्य के शासक और मुस्लिम जगत के खलीफा मुस्तफा कमाल पाशा को पदच्युत करने की घटना से राष्ट्रवाद के पवित्र भावना की जगह खिलाफत का उदय हुआ। हमारे राजनेताओं ने छद्मराष्ट्रवाद  के नाम पर ऐसी जिहादी विचारधारा का संरक्षण किया। इस संरक्षण से मोपलाओं को शह मिला। सहिष्णु और सभ्य हिन्दू समाज ने उनके इस उन्माद और पशुता के झंझावातों को झेला। यह विद्वेष दंगे, विभाजन, धार्मिक उत्पीड़न और इस्लामिक क्रूरता के माध्यम से शनैः शनैः प्रकट होते रहे।

मोपला सिर्फ एक कट्टर इस्लामी खिलाफत की स्थापना की लिए किए गए धार्मिक नरसंहार से अधिक कुछ नहीं है जिसका नियंत्रण पाकिस्तान के हाथों में था ठीक वैसे ही जैसे आज का तालिबान है। युद्ध करने के पुरस्कार स्वरूप पशुता और अराजकता की खुली छूट मिली। इस विभीषिका के फलस्वरूप ‘जो कुछ मिले सब तुम्हारा चाहे वो फसल हो या हिन्दू स्त्रयों का शील ही क्यों न हो’ सिधान्त का पालन हुआ।

सिर्फ, बल से ही नहीं अपितु छलपूर्वक सामाजिक असुरक्षा और वैमनस्य का दोहन कर ग़रीब हिंदुओं को व्यापक पैमाने धर्मांतरित किया गया। जिहाद के नाम पर उनकी सम्पति और स्त्रियों को लूटने के लिए दुष्प्रेरित किया गया। यही तालिबानी सोच उन 50 से भी अधिक सांप्रदायिक दंगों का कारण बनी और फिर अपने उत्कर्ष को प्राप्त कर अगस्त के मोपला नरसंहार में परिणित हुई। कुछ लोग इसमें राष्ट्रवाद और भूमि सुधार का अंश डालकर मज़हबी नशे को धार्मिक नैवेद्य में परिवर्तित करने का सतत षड्यंत्र रच रहें है। इस अंक में तथ्यों और तर्कों को प्रस्तुत कर मोपला पर आपके वैचारिक भ्रमजाल को तोड़ेंगे। आइये, नरसंहार के माध्यम जनसांख्यिकीय परिवर्तन कर बलपूर्वक इस्लामिक निरंकुशता की स्थापना का सतत प्रयास के कुछ प्रमाण और मानक उदाहरण देखते हैं। कालीकट, केरल के तत्कालीन सेवानिवृत्त डिप्टी कलेक्टर दीवान बहादुर सी. गोपालन नायर ने ‘द मोपला रिबेलियन, 1921‘ नामक पुस्तक में तथ्यों और भीषण घटनाओं की पूरी श्रृंखला को लिखा है।

हिंदुओं के विरुद्ध दंगों की अनवरत कथा

वर्ष 1836 से लेकर 1921 के बीच में मोपला के मुस्लिमों द्वारा लगभग 50 हिंसक गतिविधियों का उल्लेख किया गया है। इनमें से एक दर्जन से अधिक घटनाएँ तो केवल 1836 के पश्चात हुई हैं, और इन सभी हिंसक घटनाओं में एक बात समान थी – ये सब ग्रामीण क्षेत्रों में हुए। लगभग सभी गतिविधियां कालीकट और पोन्नानी के बीच के क्षेत्र में सीमित थीं, एवं इनमें तीन को छोड़कर समस्त घटनाओं में हिन्दू पीड़ित और मोपला के मुस्लिम शोषक थे। ये उपद्रव बहुत मामूली थे और कई तो नियंत्रित भी कर लिए गए, क्योंकि आक्रान्ताओं की संख्या सीमित थी और केवल तीन बार ही तीस से अधिक मोपलाओं ने एक हमले में भाग लिया। कैंब्रिज प्रेस के शोध में इस तथ्य को उद्धृत किया गया है।

1852 में, टी एल स्ट्रेंज के अध्यक्षता में गठित विशेष समिति ने अपने अन्वेषण में पाया कि इन विद्रोह का मुख्य कारण इस्लामी प्रचारकों द्वारा धर्मांतरण और धर्म के आधार पर सामाजिक विभेद पैदा करना था। इतना ही नहीं मामला इतना संवेदनशील था कि स्ट्रेंज को मोपला आक्रोश अधिनियम, 1854 पारित करना पड़ा और इस को लागू करने के लिए एरनाड में विशेष पुलिस बल की भी नियुक्ति करनी पड़ी।

द मोपला रिबेलियन, 1921
द मोपला रिबेलियन, 1921

इसी के बाद 28 अप्रैल 1920 को मंजरी में आयोजित मालाबार जिला सम्मलेन में खिलाफत आंदोलन का प्रस्ताव पारित हुआ। 30 अप्रैल 1920 मोपला दंगो के सबसे बड़े चरमपंथी और तथाकथित नेता अब्दुल्ला कुट्टी मुसलियारी ने खिलाफत के समर्थन में उत्तेजक भाषण दिया। अगले दिन पन्नूर मस्जिद में अब्दुल्ला कुट्टी मुसलियारी को ऐसी धर्मांध पुनरावृति करने से नायर और तियार समुदाय के लोगों ने रोक दिया। निरंकुश इस्लामिक शासन की स्थापन में हिन्दू बाधक बने। मोपला मुसलमानों ने प्रतिशोध में गाँव के हिन्दू अधिगरि के पूजास्थल को ध्वस्त कर दिया। कृषक विरोध और छद्मराष्ट्रवाद की मिथ्या अवधारणा गढ़ने वाले वामपंथियों को ध्यान देना चाहिए – मंदिर तोडा गया, फसल और ज़मीन का अधिग्रहण नहीं हुआ था।

तब 1921 में हुआ हिंदुओं के नरसंहार का वह तांडव जिसे मलाबार नरसंहार या मोपला नरसंहार कहा जाता है। इस नरसंहार को अगले अंक में विस्तृत रूप से देखेंगे।

निष्कर्ष

मोपला नरसंहार के प्रामाणिक उल्लेखों में से एक दीवान बहादुर सी. गोपालन नायर की पुस्तक ‘द मोपला रिबेलियन 1921’ है जिसके एक उद्धरण के अक्षरसः हिंदी अनुवाद से आप मोपला दंगों के सारांश को समझ जायेंगे :-

यह केवल कट्टरता नहीं थी, यह कृषि संबंधी परेशानी नहीं थी, यह गरीबी नहीं थी, जिसने अली मुसलियार और उनके अनुयायियों को प्रेरित किया। सबूत निर्णायक रूप से दिखाते हैं कि यह खिलाफत और असहयोग आंदोलनों का प्रभाव था जिसने उन्हें अपने अपराध के लिए प्रेरित किया। यह वही है जो वर्तमान को पिछले सभी प्रकोपों ​​​​से अलग करता है। उनका इरादा, हालांकि यह प्रतीत हो सकता है, बेतुका था, ब्रिटिश सरकार को नष्ट करना और हथियारों के बल पर खिलाफत सरकार को प्रतिस्थापित करना। (विशेष न्यायाधिकरण, कालीकट की फाइल पर 1921 के केस नंबर 7 में निर्णय।) …

स्मरण रहे, 1920 में मोहनदास करमचंद गांधी ने असहयोग आंदोलन आरंभ किया। अपने सिद्धांतों के सफलता हेतु राष्ट्रवाद की तिलांजलि देते हुए गांधी ने ख़िलाफत को समर्थन दिया, जिससे मोपलाओं के हिंसक गतिविधियों तो और बल मिला। नृशंस मोपला नरसंहार के पूर्व हुए ये 50 दंगे कोई माला में पिरोये रत्न नहीं है। अपितु, काफ़िर रहित-जग हेतुक-सदा युद्धरत अर्थात जिहाद के माध्यम से ‘’देवों के देश’’ को दारुल इस्लाम में परिवर्तित करने का सतत प्रयास था। मोपला के दंगे इस्लामिक कट्टरपंथ का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

हम प्रयासरत हैं कि इस घटना को भावी पीढ़ी के लिए आदर्श सीख बना सकें। भारत में इस्लामिक कट्टरपंथ को अभी तक वैसा संरचनात्मक आधार तो नहीं मिला है, पर मोपला जैसी ऐतिहासिक घटनाएं वैचारिक रूप से इनके विद्यमान होने का संकेत देती रहती है। इस अंक के माध्यम से आपको सत्य से अवगत कराना था। अगले अंक में हमारा प्रयास इस पक्ष पर रहेगा कि कैसे ओटोमन साम्राज्य के पतन के कारण खिलाफत आंदोलन हुआ जिसके बाद मलाबार में हिंदू विरोधी नरसंहार हुआ। प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश राज से इस्लामिक इतिहास के आदर्श ऑटोमोन साम्राज्य के ख़लीफ़ा मुश्तफ़ा कमाल पाशा की अपमानजनक पराजय ने मालाबार के मोपला मुसलमानों को आत्मग्लानि और धार्मिक विद्वेष से भर दिया। इसी विद्वेष के अंकुर से किस प्रकार मोपला दंगो के अंकुर फूटे इसका रोचक इतिहास समझेंगे। ऑटोमन साम्राज्य अर्थात तुर्की के शासक की पराजय किस तरह इस्लामिक एकता और सहानुभूति को राष्ट्रहित से ऊपर कर देती है, इसका मार्मिक इतिहास कहेंगे। तब तक के लिए साधुवाद।

भाग 1 – मोपला नरसंहार: कैसे टीपू सुल्तान और उसके पिता हैदर अली ने मोपला नरसंहार के बीज बोए थे

भाग 2- मोपला नरसंहार: टीपू सुल्तान के बाद मोपला मुसलमानों और हिंदुओं के बीच विभाजन का कारण 

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