पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी राष्ट्रीय राजनीति में हाथ मारने के प्रयास कर रही हैं, किंतु वर्तमान में वो एक विधायक तक नहीं हैं। विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की तो जीत हुई, पर ममता सुवेंदु अधिकारी के सामने अकड़ दिखाने की राजनीतिक अपरिपक्वता के कारण स्वयं ही नंदीग्राम से चुनाव हार गईं। ऐसे में टीएमसी के नेताओं की उपचुनाव कराने की आतुरता के बीच निर्वाचन आयोग ने बंगाल में उपचुनाव का ऐलान कर दिया है। यदि ममता चुनाव जीत गईं तो बंगाल की स्थिति यथावत् ही रहेगी, किन्तु इसके विपरीत अब सवाल ये है कि तब क्या होगा, यदि ममता अपनी परंपरागत सीट भवानीपुर से विधानसभा उपचुनाव ही हार जाएं?
ममता के पास परिवार के अलावा और कोई विश्वसनीय नेता नहीं है। ऐसे में क्या भरोसा कि ममता की हार के बाद जो नेता सीएम की कुर्सी पर बैठेगा, वो पूरे पांच वर्ष तक ममता की ही बात मानेगा । ऐसे में ममता की राजनीतिक ताकत पूर्णतः खत्म हो सकती है। वहीं उनकी गैर-मौजूदगी में टीएमसी की इस बर्बादी का असल कारण केवल नंदीग्राम से ममता के चुनाव लड़ने का अपरिपक्व निर्णय ही होगा। चुनाव आयोग के मुताबिक 30 सितंबर को उपचुनाव के लिए मतदान होगा, एवं 3 अक्टूबर को नतीजे आएंगे। ऐसे में ये कहा जा सकता है कि ममता के लिए ये एक महीना बेहद भारी होने वाला है।
टीएफआई आपको पहले ही बता चुका है कि भवानीपुर सीट पर ममता का 2016 विधानसभा चुनाव का रिकॉर्ड अच्छा नहीं था। इतना ही नहीं, हाल के विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद भी राज्य में जो हिंसा हुई थी, उसमें टीएमसी के ही नेताओं और कार्यकर्ताओं की भूमिका स्पष्ट होने के बाद बहुसंख्यकों के बीच ममता की लोकप्रियता में बड़ी कमी आ सकती है। बीजेपी भी इस राजनीतिक हिंसा को भवानीपुर उप-चुनाव में मुख्य मुद्दा बना सकती है। एक इंटरव्यू में बंगाल बीजेपी अध्यक्ष दिलीप घोष भी ऐलान कर चुके हैं, कि पार्टी ममता के विरुद्ध विधानसभा चुनाव मे पूरी ताकत झोंकेगी और एक लोकप्रिय चेहरा भी उतार सकती है। ऐसे में मुख्य सवाल यही उठता है कि ममता उपचुनाव जीत गईं तब तो सब वैसा ही चलेगा जैसा ममता चलाती आई हैं, किन्तु यदि हार गईं तो क्या होगा?
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ममता बनर्जी के बाद पार्टी की अन्य लीडरशिप की बात करें, तो महत्वपूर्ण बात ये है कि ममता भतीजे अभिषेक बनर्जी के अलावा अन्य टीएमसी नेताओं पर विश्वास नहीं करती हैं, किन्तु वो भी लोकसभा सांसद हैं। इसके अलावा डेरेक ओ ब्रायन एवं महुआ मोइत्रा टीएमसी के महत्वपूर्ण नेता तो हैं, लेकिन इन्हें जनता से जुड़ा नेता नहीं माना जाता है एवं ये दोनों भी राज्यसभा सांसद हैं। भतीजे समेत डेरेक या महुआ को ममता सीएम बनाने के लिए तैयार भी हो जाती हैं, तो इन तीनों के साथ भी वही दिक्कत होगी, जो ममता को विधायक न होने के कारण हो रही है, क्या पता पुनः उपचुनाव कराने के मुद्दे पर आयोग सहमत हो न हो। इसके अलावा ममता पहले मुकुल रॉय पर जितना विश्वास करती थीं, बीजेपी में जाने और पुनः टीएमसी में आने के बावजूद अब उन पर भी ममता का विश्वास नहीं रहा है। वहीं अपनी गैर-मौजूदगी में केन्द्र की राजनीति करने के लिए एक समय ममता ने जिस नेता पर भरोसा किया था, वो दिनेश त्रिवेदी भी अब बीजेपी में जा चुके हैं। इसके अलावा ममता का राज्य में जो सबसे विश्वसनीय चेहरा था, वो ही ममता की इस सबसे बड़ी मुसीबत का कारण (सुवेंदु अधिकारी) है।
इसके अलावा उनके सामने विकल्प नुसरत जहां से लेकर मिमी चक्रवर्ती जैसे नेताओं के ही बचते हैं, किन्तु ये सभी न ज्यादा विश्वास पात्र हैं और न ही राजनीतिक रूप से परिपक्व। ऐसे में ममता के सामने एक ही विकल्प होगा, कि वो अपने किसी करीबी को सीएम पद की कुर्सी पर बिठाएं, जो उनकी मर्जी के अनुसार काम करे। ममता के पास रिमोट कंट्रोल की सरकार चलाने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं बचेगा। ऐसा नहीं हैं कि रिमोट कंट्रोल की सरकार से ममता की मुश्किलें खत्म हो जाएंगी, अपितु इसमें उनकी मुसीबतों में बढ़ोतरी ही होगी।
भारतीय राजनीति में रिमोट कंट्रोल की सरकार ज्यादा दिन तक नहीं चल पाती, यद्यपि कोई पूर्व पीएम डॉ मनमोहन सिंह की तरह पार्टी प्रमुख के प्रति घोर चाटुकार न हो। रिमोट कंट्रोल सरकार चलाने की मंशाओं के विफल होने का बड़ा उदाहरण पूर्व पीएम पी. वी. नरसिम्हा राव हैं। 1991 के लोकसभा चुनाव के बाद तत्कालीन राजनीति की कच्ची खिलाड़ी सोनिया गांधी ने सोचा था कि वो रिमोट कंट्रोल से सरकार चलाएंगी। यही कारण था कि उन्होंने पी. वी. नरसिम्हा राव को चुना था, जबकि सूची में प्रणब मुखर्जी का नाम भी था, जो कि बाद में देश के राष्ट्रपति भी बनें।
पी. वी. नरसिम्हा राव को सरकार का नेतृत्व देने के बाद सोनियां गांधी को आभास हो गया कि उन्होंने सबसे बड़ी गलती कर दी। नरसिम्हा राव को राष्ट्रवादी नेता माना जाता था, यही कारण है कि उनकी प्रशंसा पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपयी से लेकर वर्तमान पीएम नरेन्द्र मोदी तक कर चुके हैं। नरसिम्हा राव ने राजनीतिक कुशलता का प्रयोग करते हुए सरकार चलाई, और गांधी परिवार के निजी स्वार्थों को भाव नहीं दिया। इसी का नतीजा था, कि राव के करीबी माने जाने वाले सीताराम केसरी को कांग्रेस अध्यक्ष पद एवं कांग्रेस दफ्तर से अपमानित करके निकाला गया था।
वहीं, दूसरा सबसे बड़ा उदाहरण बिहार के पूर्व सीएम जीतन राम मांझी हैं। बीजेपी के पीएम उम्मीदवार के रूप में नरेन्द्र मोदी को चुने जाने के बाद मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति के तहत मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जब बीजेपी से 2013 में गठबंधन तोड़ा था, तो दलित राजनीति का खेल खेलने के लिए उन्होंने मुख्यमंत्री पद अपने चाटुकार नेता जीतन राम मांझी को दिया। मई 2014 को मांझी ने शपथ ली, और उसके बाद वो अपने मन से सरकार चलाने लगे; जिसका नतीजा ये हुआ कि नीतीश ने षडयंत्रों के दम पर फरवरी 2015 में पुनः सीएम पद मांझी से छीना। इस पूरे प्रकरण से न केवल दोनों के बीच खटास आई अपितु नीतीश का रानजीतिक करियर भी ढलान पर चला गया।
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रिमोट कंट्रोल सरकार को लेकर मनमोहन सिंह एवं सोनिया गांधी की सफलता के किस्से तो सुनाए जाते हैं, किन्तु इससे कांग्रेस की भी कम फजीहत नहीं हुई। कांग्रेस के राजनीतिक निर्वासन में जाने की एक बड़ी वजह मनमोहन सरकार का रिमोट सोनिया के पास होना भी था। इन उदाहरणों के आधार पर ये कहा जा सकता है कि यदि अपने परिवार के इतर ममता चुनाव हारने पर टीएमसी के किसी नेता को सीएम पद की कुर्सी देंगी, तो उनके लिए हमेशा ये चिंता रहेगी कि आखिर वो नेता कब तक रिमोट कंट्रोल पर काम करेगा, क्योंकि अभी तो नई सरकार का शुरूआती समय है।
चुनाव हुए 6 महीने भी नहीं हुए, ऐसे में यदि बंगाल को दूसरा मुख्यंमंत्री मिलता है, तो संभवतः वो 4 साल का लंबा कार्यकाल देखते हुए काम कर सकता है। ऐसे में सीएम न रहने पर ममता बनर्जी की सबसे बड़ी ताकत अर्थात बंगाल पुलिस से ममता का कंट्रोल खत्म हो सकता है। भले ही टीएमसी कार्यकर्ता ममता के प्रति वफादारी दिखायें पर कुछ तो नये मुख्यमंत्री की तरफ छुकाव रखेंगे ही। इससे टीएमसी कार्यकर्ताओं के बीच फूट बढ़ जायेगी और ममता की ताकत और कम हो जायेगी। वहीं, टीएमसी कार्यकर्ताओं पर उनके अपराधों के लिए कार्रवाई भी हो सकती है। ऐसे में ये निश्चित है कि ममता अपना राजनीतिक कंट्रोल बंगाल की राजनीति एवं सरकार से खो दें। नई विधानसभा के तुरंत बाद ममता के हटने के कारण राज्य में पार्टी बिखर भी सकती है। इस पूरे परिदृश्य के बीच यदि दोबारा ममता विधायकों के जरिए खेल करने की कोशिशें भी करती हैं, तो अंत में उन्हें विधायक तो बनना ही पड़ेगा, और निश्चित है कि जिस तरह से इस बार टीएमसी की बात मानकर संवैधानिक नियमों का पालन करते हुए आयोग उपचुनाव करा रहा है, संभवतः अगली बार चुनाव आयोग ममता को ही नजरंदाज कर दे।
इसी के चलते हम ये सोच सकते हैं कि अगर ममता ये उपचुनाव जीत गईं तो राज्य में सबकुछ सामान्य ही रहेगा, राजनीतिक हिंसा से लेकर मुस्लिम तुष्टीकरण एवं आर्थिक मोर्चे पर राज्य पिछड़ता हुआ ही दिखेगा। इसके विपरीत यदि ममता हार गईं तो ये बंगाल की राजनीति में ममता के रसूख के अंत का अध्याय शुरू हो जायेगा। ममता के सुवेंदु के विरोध में चुनाव लड़ने की उनकी गलती उनके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी भूल साबित होगी, और ममता का राष्ट्रीय राजनीति में जाने का सपना भी चकनाचूर हो सकता है। वहीं ममता की हार के संबंध में ये परिदृश्य 2026 या उससे पहले भाजपा के लिए पश्चिम बंगाल मे स्वर्णिम युग ला सकता है।