शरणार्थी जो आते तो आस्थाई आश्रय की उम्मीद से हैं, लेकिन कई बार ये बड़े देशों के लिए अराजकता का पर्याय बन जाते हैं। बांग्लादेशियों एवं म्यांमार के रोहिंग्या मुस्लिमों के रूप में आए इन्हीं शरणार्थियों को शरण देने का दंश भारत पहले से ही झेल रहा है। ऐसे में कुछ वामपंथी अफगानिस्तान पर तालिबान द्वारा कब्जा किये जाने के बाद अफगानी शरणार्थियों को भारत में लाने की बात कर रहे हैं। वहीं मोदी सरकार का रुख इन शरणार्थियों को नजरंदाज कर वहां फंसे भारतीयों को सुरक्षित लाने पर अधिक रहा है। भारत सरकार का ऐसा ही पक्ष म्यांमार में सेना का सत्ता पर कब्जा होने पर भी था। ये दोनों ही हालिया घटनाक्रम इस बात की ओर इशारा करते हैं कि यदि पीएम मोदी सत्ता में न होते, और कांग्रेस जैसी तुष्टीकरण की नीति वाली सरकार होती तो निश्चित ही भारत के सामने एक बड़ा शरणार्थी संकट खड़ा हो सकता था।
जिस दिन अमेरिका के राष्ट्रपति रहते डोनाल्ड ट्रंप ने ऐलान किया था, कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी होगी, उसी दिन ये भी तय हो गया था कि भारत के लिए दक्षिण एशिया में नई चुनौतियां शुरु हो सकती हैं। वहीं तालिबान द्वारा काबुल पर कब्जा होने के बाद वो चुनौती शुरु हो गई हैं। कूटनीतिक मामले तो पीछे छूट गए , किन्तु सबसे बड़ा मुद्दा शरणार्थियों का बन गया। भारत में एक तरफ जहां तालिबान के प्रति कुछ इस्लामिक कट्टरपंथियों का प्रेम सामने आ रहा है, तो वहीं वामपंथी धड़ा भारत में अफगानी शरणार्थियों को शरण देने की बात कर रहा।
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इसके विपरीत भारत सरकार ने अफगानियों को शरण तो दी, किन्तु उन्हें ही जो अफगानी भारत समर्थक थे। इतना ही नहीं, भारत सरकार ने ई-वीजा की शुरुआत की और उसके जरिए अफगानिस्तान के कई राजनेताओं को भारत में शरण देने की स्वीकृति दी। भारत का मुख्य ध्यान केवल अपने भारतीय नागरिकों की घर वापसी पर ही रहा, एवं एक सीमित संख्या में विश्वसनीय अफगान शरणार्थियों को ही भारत में शरण दी गई। यद्यपि भारत का एक बड़ा वामपंथी धड़ा एवं दबे मुंह कांग्रेस के नेता तक मांग कर रहे थे, कि तालिबान के कब्जे में फंसे अफगानी नागरिकों को भारत में शरण दी जाए।
विपक्ष की लाख मांगों के बावजूद भारत ने बड़े स्तर पर अफगानियों के लिए भारत के दरवाजे नहीं खोले, जो कि मोदी सरकार के दृढ़ संकल्प को दर्शाता है। कुछ इसी तरह की स्थिति फरवरी मार्च में भी देखने को मिली थी, जब म्यांमार की सत्ता पर कू करते हुए चुनी हुई सरकार की शक्तियां छीन ली गई थीं। म्यांमार में जिस तरह का गृहयुद्ध छिड़ा था, उसको देखते हुए भारत से उम्मीद लगाई गई थी, कि वो म्यामार के शरणार्थियों एवं रोहिंग्याओं को शरण देगा। उस दौरान भी विपक्ष ने मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति के तहत रोहिंग्या को शरण देने की मांग कर रहे थे, बड़ी संख्या में लोगों ने घुसपैठ करने तक की कोशिश की, किन्तु भारत सरकार ने शरणार्थियों को शरण नहीं दी।
भारत में बड़ी संख्या में बांग्लादेशी घुसपैठिए एवं रोहिंग्या मुस्लिमों ने अवैध रूप से घुसपैठ करते रहे हैं। यही कारण है कि भारत सरकार सीएए एवं एनआरसी जैसे प्रावधानों के क्रियान्वयन पर काम कर रही है। भारत सरकार ने स्वयं ही अवैधर रूप से रह रहे इन लोगों को देश की सुरक्षा एवं संप्रभुता के लिए खतरा बताया था। इसके विपरीत ध्यान देने वाली बात ये भी है कि घुसपैठ से लेकर बांग्लादेशियों एवं रोहिंग्याओं को शरण देने में पुरानी गैर-भाजपा शासित सरकारों ने अधिक दिलचस्पी दिखाई थी।
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ऐसे में ये कहा जा सकता है कि यदि म्यांमार सत्ता संघर्ष एवं तालिबानी कब्जे के दौरान केंद्र में कोई गैर-भाजपा सरकार होती, या पीएम मोदी जैसा सशक्त प्रधानमंत्री न होता, तो संभवतः एक बड़ा शरणार्थी संकट खड़ा हो सकता था। इसे मोदी सरकार की कूटनीतिक जीत ही कहा जाएगा, कि बड़ी संख्या में शरण न देने के बावजूद वैश्विक स्तर पर भारत की छवि पर कोई नकारात्मक असर भी नहीं पड़ा है।