इतिहास में पहली बार भारत और अमेरिका सैनी उपकरण बनाने के लिए आपसी सहयोग करेंगे। भारत और अमेरिका ने एकसाथ मिलकर एयर लॉन्च्ड अनमैंड आर्म्ड व्हीकल (ALUAV) बनाने का समझौता किया है। ALUAV ऐसे ड्रोन हैं जिन्हें एयरक्राफ्ट से मिसाइल की तरह लांच किया जा सकता है। इसे बनाने के लिए भारत की Aeronautical Development Establishment जो DRDO की इकाई है एवं Aerospace Systems Directorate जो अमेरिका की Air Force Research Laboratory की इकाई है, साथ मिलकर काम करेंगे। भारतीय एयरफोर्स और अमेरिकी एयरफोर्स इस कार्यक्रम में सहयोगी होंगे।
भारतीय रक्षा मंत्री ने बताया कि “यह समझौता Air Force Research Laboratory, भारतीय वायुसेना और DRDO के बीच साथ मिलकर ALUAV का प्रोटोटाइप डिजाइन करने, उसके प्रदर्शन, टेस्टिंग और कार्य के मूल्यांकन में सहयोग करने की रूपरेखा तैयार करता है।”
जुलाई महीने में दोनों देशों में इस प्रोजेक्ट के लिए आपसी समझौता किया था। समझौते के तहत तैयार होने वाला ‛ALUAV’ दोनों देशों के लिए एक ही एयर सिस्टम के साथ काम करेगा। इसके लिए सभी तकनीकी जरूरतों को आपसी सहयोग से पूरा किया जाएगा और इससे संबंधित सभी व्यापारिक गतिविधियां भी एकसाथ रहेंगी।
जैसे भारत ने रूस के साथ मिलकर ब्रह्मोस मिसाइल बनाई और आज भी साथ मिलकर उसका विकास कर रहा है तथा उसे अन्य देशों को बेचने में भी दोनों देश लाभ कमाते हैं। ठीक उसी प्रकार से अमेरिका और भारत इस प्रोजेक्ट पर काम करेंगे।
यह समझौता दोनों देशों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भारत और अमेरिका के भावी रक्षा सहयोग की नींव बनेगा। यह भारत और अमेरिका के बीच प्रथम ऐसा रक्षा सहयोग है जिसमें दोनों देश किसी प्रोजेक्ट पर साथ मिलकर काम कर रहे हैं। ऐसे में यह तय है कि दोनों देश भविष्य में भी रक्षा उपकरणों का एक साथ मिलकर विकास और उत्पादन करेंगे। यह समझौता इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह समझौता दिखाता है कि आने वाले कई दशकों में दोनों देश आपसी बहुत करीबी सहयोगी बने रहेंगे, जो न सिर्फ रक्षा अनुसंधान बल्कि, सेटेलाइट, स्पेस से लेकर इंटेलिजेंस तक, सभी मामलों में एक दूसरे के साथ दिखेंगे।
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यह समझौता अमेरिका और भारत के लिए नीतिगत परिवर्तन है। पारंपरिक रूप से भारत रक्षा अनुसंधान के लिए रूस अथवा ब्रिटेन के साथ ही सहयोग करता रहा है। किंतु अब अमेरिका के साथ भारत का रक्षा सहयोग यह बताता है कि भारत ने अपनी रक्षा निर्भरता और सहयोग को रूस के बजाए पश्चिमी देशों की ओर मोड़ना शुरू कर दिया है। यह एक अच्छा फैसला है क्योंकि भारत और चीन के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण भारत केवल रूसी सैन्य उपकरणों तक स्वयं को सीमित नहीं कर सकता। ऐसे इसलिए क्योंकि चीन की सेना भी रूसी सैन्य उपकरणों का ही प्रयोग करती है। यहां तक कि चीन द्वारा निर्मित अधिकांश सैन्य उपकरण भी रूसी सैन्य उपकरणों की रिवर्स इंजीनियरिंग करके बनाए गए हैं। अतः चीन को रूसी उपकरणों की अच्छी जानकारी है। अतः भारत को रूस पर से अपनी निर्भरता कम करनी पड़ेगी।
वही इस समझौते के कारण भारत की ड्रोन संबंधित तकनीक का भी विकास होगा। अजरबैजान और आर्मेनिया के युद्ध ने दुनिया को यह स्पष्ट रूप से समझा दिया है की वर्तमान समय में जो भी युद्ध लड़ा जाएगा उसमें ड्रोन सबसे प्रभावी हथियार होंगे। एक फाइटर एयरक्राफ्ट से लांच किया गया ड्रोन शत्रु की भूमि में बहुत अंदर तक वार करने की क्षमता पैदा कर देगा क्योंकि सामान्य ड्रोन की अपेक्षा फाइटर जेट लम्बी दूरी भी तय करते हैं और उनकी गति भी तेज होती है। एयर लॉन्च्ड ड्रोन शत्रु की सीमा के अंदरूनी क्षेत्रों में स्थित कमांड हेड क्वार्टर को तबाह कर सकते हैं। अतः यह रक्षा सहयोग भारत और अमेरिका दोनों की सैनिक क्षमता को बहुत अधिक बढ़ा देगा।