पुरानी कहावत है- “जो सबका दोस्त होता है वो किसी का दोस्त नहीं होता।” भारत के समक्ष भी हाल के दिनों में ऐसी ही कूटनीतिक समस्या उभर कर आई है। शीत युद्ध के समय भारत ने गुट-निरपेक्ष सिद्धान्त को अपनाया। परंतु, 1971 की लड़ाई ने भारत को आंशिक रूप से रूस के पक्ष में झुका दिया क्योंकि निक्सन के नेतृत्व में सारे पश्चिमी देशों को अमेरिका ने पाकिस्तान के पक्ष में लामबंद कर दिया। ऐसी परिस्थिति में संकटमोचक रूस के पाले में जाना पूर्णतः स्वाभाविक और राष्ट्र हित में था। भारत नें भी परस्पर मित्रता निभाई। हमने सैन्य व्यापार के सारे दरवाजे खोल दिये। वैश्विक कूटनीति और राजनीति के मंच पर भी हम चट्टान की तरह रूस के पक्ष में खड़े रहें।
परंतु, अब परिस्थितियाँ बदल गयी। और ये आज का भारत है, नया भारत, जो सक्षम भी है और आत्मनिर्भर भी। वैश्विक स्तर पर मजबूत साख और बड़ा बाज़ार भी है। आज सब कुछ है हमारे पास। इस आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन के ‘साइड इफैक्ट’ अब भारत और रूस के द्विपक्षीय सम्बन्धों पर भी दिखने लगे है। भारत बहुत सारे सैन्य उपकरणों का ‘आत्मनिर्भर भारत परियोजना’ के तहत स्वदेशीकारण में लगा हुआ है। जो नहीं बना सकता वो गुणवत्ता के मानक पर पश्चिमी देशों से खरीदता है जैसे इस्राइल, अमेरिका और फ़्रांस। वैसे भी सैन्य उपकरणों की आपूर्ति के लिए किसी विशेष देश पर अत्यधिक निर्भरता कभी सही रणनीति नहीं हो सकती। अतः रक्षा सौदों से इतर भी भारत को रूस के साथ अपने सम्बन्धों को नया आधार देना चाहिए। खैर, भारत ने अब रूस के साथ अपने सम्बन्धों को नया अर्थ देने की आर्थिक रूप रेखा तैयार कर ली है। इस नए संबंध का आधार बनेगा ऊर्जा क्षेत्र। रूस के व्यापक ऊर्जा भंडार और भारत का वृहद बाज़ार एक दूसरे के संबंध स्तंभ बन सकते हैं। चीन इस मामले मे तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। हालांकि, चीन भारत की तरह किसी भी प्रकार के कूटनीतिक भ्रम की अवस्था में नहीं है।
हालांकि 2016-17 में दोनों के बीच व्यापार सिर्फ 7 अरब डॉलर से अधिक था, जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ 64 अरब डॉलर से अधिक का व्यापार हुआ था। हालांकि, 2014 की घटनाओं के बाद कूटनीतिक प्रस्तावों की झड़ी ने दोनों देशों के बीच व्यापार का विस्तार करने की इच्छा का संकेत दिया है, विशेष रूप से ऊर्जा क्षेत्र में।
हाइड्रोकार्बन
इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी की वर्ल्ड एनर्जी आउटलुक का अनुमान है कि भारत वैश्विक ऊर्जा मांग वृद्धि का लगभग 30 प्रतिशत और 2040 तक वैश्विक ऊर्जा उपयोग का 11 प्रतिशत हिस्सा उपयोग करेगा। रूस, दुनिया में प्राकृतिक गैस के सबसे बड़े भंडार में से एक है। रूस की सरकारी गैस कंपनी Gazprom ने 2009 और 2016 के बीच भारत को 1.7 मिलियन मीट्रिक टन (MMT) LNG की आपूर्ति की है। कई भारतीय कंपनियों ने रूस के तेल और गैस क्षेत्र में भी निवेश किया है। ऑयल इंडिया लिमिटेड (ओआईएल), इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन लिमिटेड (आईओसीएल) और भारत पेट्रो रिसोर्सेज लिमिटेड (बीपीआरएल) के एक कंसोर्टियम ने Taas-Yuryakh Neftogazdobycha एलएलसी में 1.2 अरब डॉलर में 29.9 प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ 2.02 अरब डॉलर में 23.9 प्रतिशत वैंकॉर्नेफ्ट का अधिग्रहण किया।
परमाणु ऊर्जा
हाल के वर्षों में रक्षा उद्योग को छोड़कर भारत-रूस सहयोग का सबसे दृश्यमान क्षेत्र परमाणु ऊर्जा रहा है। भारत के असैन्य परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम में रूसी सहायता से वर्ष 1988 की है। परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह और यूएसएसआर के विघटन से काफी दबाव में आने के बावजूद, तमिलनाडु में कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र (केकेएनपीपी) का निर्माण 2002 में शुरू हुआ। रूस ने दूसरी साइट के लिए छह और ‘जेनरेशन 3-प्लस’ 1200 मेगावाट इकाइयाँ प्रदान करने पर भी सहमति व्यक्त की है, जो अधिक ऊर्जा का उत्पादन करेगी और लंबी अवधि के लिए काम करेगी।
नवीकरणीय ऊर्जा
अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग थोड़ा अधिक स्पष्ट और वृहद होने की आशा है। दोनों देश हरित ऊर्जा की दिशा में कदम उठा रहे हैं, हालांकि रूस की जरूरत भारत जितनी बड़ी नहीं है। भारत के महत्वाकांक्षी हरित ऊर्जा लक्ष्य और अक्षय प्रौद्योगिकी के लिए इसका बढ़ता बाजार रूसी कंपनियों के लिए एक अवसर प्रदान करता है। Rosatom अपने OTEK डिवीजन के जरिए भारत के पवन ऊर्जा बाजारों पर नजर गड़ाए हुए है। वे सुदूर क्षेत्रों के विद्युतीकरण की एक समान लक्ष्य भी साझा करते हैं और इसलिए Rosatom, अपनी हंगरी की सहायक कंपनी गैंज़ ईईएम के माध्यम से, भारत को छोटे जल-विद्युत संयंत्रोंके जरूरतों की आपूर्ति करने के लिए तैयार है।
अंतर्राष्ट्रीय संबंध और विदेश नीति में पश्चिमी देशों का सहयोग विगत वर्षों में काफी सहयोगपूर्ण और सकारात्मक रहा है। कूटनीतिक सिद्धांतों के अनुरूप भारत को भी इसका अपेक्षित प्रतिउत्तर देना चाहिए। ऐसी स्थिति में ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है’ इस सिद्धान्त पर चलना कूटनीतिक रूढ़िवादिता का प्रतीक होगा। सामरिक और रणनीतिक दावपेंच की वजह से आज पश्चिमी देश हमारे दुश्मन नहीं सहयोगी बन कर उभरें है। ये रूस के महत्व को कम करने वाली परिस्थिति जरूर है लेकिन इससे भारत की विदेश नीति में रूस पूर्णतः अप्रासंगिक भी नहीं हो जाता। हमें बस रूस के साथ अपने सम्बन्धों के नए आयाम और आधार तलाशनें की जरूरत है ताकि इस दोस्ती में ‘अलास्का’ की तरह बर्फ न जमें। रूस के विदेश मंत्री ने भी कुछ दिनों पहले दिये गए एक बयान में कहा की पश्चिमी देश भारत को चीन के खिलाफ सिर्फ एक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे ये तो साफ है की चाहे साम्यवाद के विचार हो या अर्थ की भरमार रूस-चीन के द्विपक्षीय संबंध में भी प्रगाढ़ता आई है।
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2019 में भारत और रूस ने अपने-अपने शहरों, चेन्नई और व्लादिवोस्तोक के बंदरगाहों के बीच समुद्री संपर्क स्थापित करने की घोषणा की। दोनों देशों ने इसे एक आर्थिक और एक भू-राजनीतिक परियोजना रूप में पेश किया। चेन्नई-व्लादिवोस्तोक लिंक अब एक बार फिर से पुनरुद्धार के लिए विचार किया जा रहा है। पूर्वी आर्थिक मंच (ईईएफ) और वार्षिक भारत-रूस द्विपक्षीय शिखर सम्मेलन दोनों में भाग लेने के लिए 2019 में पीएम नरेंद्र मोदी की व्लादिवोस्तोक यात्रा के दौरान, अधिकारियों ने ‘समुद्री संचार के विकास’ पर एक समझौता ज्ञापन (एमओआई) का आदान प्रदान किया था। चेन्नई बंदरगाह और व्लादिवोस्तोक बंदरगाह इस परियोजना का उद्देश्य भारत और रूस के बीच कनेक्टिविटी की मौजूदा कमी को दूर करना है। वर्तमान में, दोनों यूरोपीय मार्ग से जुड़े हुए हैं और माल को अपने गंतव्य तक पहुंचने में औसतन 40 दिन लगते हैं। परंतु, प्रस्तावित समुद्री मार्ग 24 दिनों में चेन्नई बंदरगाह से व्लादिवोस्तोक तक माल भेज देगा।