आने वाले कुछ ही महीनों में यूपी विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। जिसे लेकर राजनीतिक पार्टियों ने अपनी तैयारियां तेज कर दी हैं। राज्य की सत्ताधारी पार्टी बीजेपी भी अपनी तैयारियों में लग गई है। जिस तरह से यूपी की योगी सरकार ने राज्य में विकास की एक नई पटकथा लिखी है, उसे देखने के बाद ऐसा लगता है कि अगर सीएम योगी विकास के नाम पर वोट मांगे तो उनकी जीत सुनिश्चित है। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश चुनाव से चंद महीनें पहले योगी सरकार में मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ है, जिसमें 7 मंत्रियों ने शपथ ली है। यूपी की सभी महत्वपूर्ण जातियों से एक-एक मंत्री को सम्मिलित कर योगी सरकार ने अप्रत्यक्ष तौर पर यह संदेश दिया है कि वह जातीय समीकरण पर सभी पार्टियों से मोर्चा लेने को तैयार है।
किन-किन MLAs मिला मंत्री पद?
हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार में एक महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिला। 2022 के विधानसभा चुनाव को देखते हुए मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ है, जिसमें 7 मंत्रियों ने शपथ ली है। इनमें एक कैबिनेट मंत्री और 6 राज्यमंत्री शामिल हैं। इस दौरान शपथग्रहण समारोह में दोनों उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और दिनेश शर्मा उपस्थित रहे। उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल विस्तार में जिन मंत्रियों ने शपथ ली, वे थे – जितिन प्रसाद (शाहजहाँपुर), संगीता बलवंत बिंद (ग़ाज़ीपुर), धर्मवीर प्रजापति (आगरा), पलटूराम (बलरामपुर सदर), छत्रपाल गंगवार (बरेली), दिनेश खटिक (मेरठ) और संजय गोंड(सोनभद्र)। राजभवन में इन्हें शपथ दिलाई गई। इनमें जितिन प्रसाद कैबिनेट मंत्री होंगे, जबकि बाकी राज्य मंत्री हैं।
लेकिन इन सबके साथ एक बात और भी है, जिसपर शायद ही किसी ने ध्यान दिया है। नया कैबिनेट न केवल यूपी सरकार के शक्ति प्रदर्शन का प्रतीक है, बल्कि इस बात का भी परिचायक है कि किस प्रकार से आगामी विधानसभा चुनाव के लिए यूपी सरकार ने पहले से ही कमर कस ली है। यूपी की सभी महत्वपूर्ण जातियों से एक-एक मंत्री को सम्मिलित कर योगी सरकार ने अप्रत्यक्ष तौर पर यह संदेश दिया है कि वह जातीय समीकरण पर सभी पार्टियों से मोर्चा लेने को तैयार है।
सभी जातियों का रखा गया है ध्यान
वो कैसे? कैबिनेट मंत्री जितिन प्रसाद ब्राह्मण हैं, तो वहीं छत्रपाल गंगवार एवं धर्मवीर प्रजापति ओबीसी वर्ग से आते हैं। इसके अलावा सोनकर जाति से संबंधित हैं दिनेश खटिक, तो वहीं अनुसूचित जनजाति से चुना गया है संजय गोंड को। मंत्री पलटूराम जाटव समुदाय से हैं तो संगीता बलवंद बिन्द निषाद समुदाय से, जिनका पूर्वाञ्चल में सबसे अधिक प्रभाव है।
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वैसे अति पिछड़ा वर्ग एवं ओबीसी पर भाजपा की पकड़ पहले से ही बहुत मजबूत है, लेकिन इस बार अनुसूचित जाति, जनजाति एवं उच्च जाति पर भी विशेष ध्यान दिया गया है। इसके दो कारण है – अन्य पार्टियों का वर्तमान ‘हिन्दू टूरिज़्म’ एवं पिछले कुछ वर्षों के कड़वे अनुभव, जिसके पीछे भाजपा अपने सबसे प्रभावशाली वोट बैंक को दोबारा गलत हाथों में नहीं पड़ने देना चाहेगी।
इन दिनों हम देख रहे हैं कि कांग्रेस से लेकर कई पार्टियां, जो प्रारंभ में धुर हिन्दू विरोधी थी, आज राम भक्ति एवं सनातन धर्म की दुहाई देती फिर रही है। आम आदमी पार्टी जैसी हिन्दू विरोधी पार्टी तो ‘राम राज्य’ की बातें कर रही हैं। परंतु इनका वास्तविक एजेंडा तो कुछ और ही हैं। असल में ये ‘हिन्दू टूरिज़्म’ सिर्फ एक बहाना है, तथा जातिवाद के कार्ड को बढ़ावा भाजपा के ‘हिन्दू एकता’ के ‘ब्रह्मास्त्र’ को ध्वस्त करना चाहते हैं, ताकि भाजपा का वोट बैंक बंट जाए, जिसका फायदा अन्य पार्टियों को मिले।
राज्य स्तरीय चुनावों में भाजपा को मिल चुकी सीख
इसके अलावा 2017 से लेकर अब तक भाजपा जातिगत समीकरणों पर राज्यों की दृष्टि में थोड़ी फिसड्डी सिद्ध हुई है। पूर्वोत्तर और महाराष्ट्र को छोड़ दें, तो भाजपा कहीं भी प्रभावशाली प्रदर्शन करने में असफल रही। गुजरात में भी भाजपा लगभग पराजय के मुहाने पर आ चुकी थी, क्योंकि हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी और अलपेश ठाकोर के नेतृत्व में पाटीदार नेताओं ने पाटीदार समुदाय को भाजपा से विमुख कर दिया था, और भाजपा इनकी काट ढूँढने में असफल रही थी। हरियाणा में यदि दुष्यंत चौटाला ने व्यवहारिकता नहीं दिखाई होती, तो जाट नेता न चुनने के कारण भाजपा पूर्ण बहुमत के आँकड़े से चूक गई, बावजूद इसके कि मनोहर लाल खट्टर का प्रदर्शन पहले कार्यकाल में संतोषजनक रहा था। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में भाजपा को इसलिए पराजय प्राप्त हुई, क्योंकि पार्टी शासन के अलावा जातिगत समीकरण बिठाने में सफल नहीं रही थी। SC/ST एक्ट के कारण उत्पन्न विवाद को मध्य प्रदेश में निजी स्तर पर शिवराज सिंह चौहान ने कम करने का प्रयास किया, परंतु वह अधिक काम नहीं आया।
ऐसे ही झारखंड और दिल्ली में भाजपा इसीलिए पराजित हुई, क्योंकि उन्होंने मजबूत स्थानीय उम्मीदवार उतारने की जहमत ही नहीं उठाई, जो लोकप्रिय होने के साथ-साथ जातिगत समीकरणों से भी सामंजस्य बिठा सके। यदि रघुबर दास ने आदिवासियों के साथ थोड़ा बहुत भी सामंजस्य बिठाया होता, तो उन्हें 2019 के चुनावों में पराजय का मुंह नहीं देखना पड़ा होता। असम में भाजपा इसीलिए विजय हुई, क्योंकि सीएम के उम्मीदवार हिमन्ता बिस्वा सरमा जैसे प्रभावशाली नेता थे, जो लोकप्रिय भी थे और जातिगत समीकरण में सामंजस्य भी बैठा चुके हैं।
हालांकि, भाजपा का उत्तर प्रदेश में वर्तमान मंत्रिमंडल विस्तार देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने अपनी पूर्व गलतियों से काफी सीख ली है। जिस प्रकार से उन्होंने जातिगत समीकरणों में सामंजस्य बिठाते हुए हर वर्ग से एक मंत्री को चुना है, उससे उन्होंने अपने अनोखी शैली में यूपी विधानसभा चुनाव के लिए अभी से कमर कस ली है।