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मोपला हिंदू विरोधी नरसंहार का सच: इस्लाम न अपनाने पर 10,000 हिंदुओं की हत्या कर दी गई

भाग-5

Aniket Raj द्वारा Aniket Raj
18 September 2021
in इतिहास
मोपला विद्रोह
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कहते हैं, मोपला विद्रोह का आरंभ  20 अगस्त 1921 को हुआ और 6 सितंबर 1921 को अंत। यह कथन अपने आप में काफी हास्यास्पद है, और इसके पीछे ऐसे तथ्य है, जिनसे अवगत होकर आपका हृदय विदीर्ण हो जाएगा, और आपकी अंतरात्मा खंड-खंड हो सकती है। जिसे अब तक कांग्रेस एक विद्रोह और वामपंथी एक कृषि विद्रोह के रूप में चित्रित कर रहे हैं, वह वास्तव में इतिहास की एक ऐसी त्रासदी है, जिसके बारे में उतनी चर्चा नहीं हुई, जितनी होनी चाहिए। आज के अंक में हम मानव इतिहास के सबसे हृदय विदारक विभीषिका और धर्मांधताओं का वृहद और वास्तविक चित्र वर्णन करनेवाले है।

पिछले अंक में हमने जाना की कैसे भारतीय संस्कृति ने मोपलाओं को अस्तित्व दिया? कैसे योजनाबद्ध तरीके से जनसँख्या वृद्धि और धर्मान्तरण कर जनसांख्यिकी परिवर्तन किया? फिर कैसे टीपू और हैदर के नेतृत्व में नरसंहार किया? उनकी मृत्यु पश्चात कैसे मोपला खिलाफत की स्थापना के लिए हिंदुओं से सतत संघर्षरत रहे? इस अंक में हम बस आधिकारिक रूप से घोषित समयावधि ( 20 अगस्त 1921- 6 सितंबर 1921) के दौरान हुए मोपला दंगों की विभीषिका का वर्णन करेंगे।

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“मोपला विद्रोह 20 अगस्त 1921 को आरंभ हुए और 6 सितंबर 1921 को अंत।” यह एक हास्यास्पद कथन है। आरंभ करने से पहले आपको बता दें की यह कथन हास्यास्पद क्यों है? इसके दो कारण है। प्रथम, मोपला एक हिंसक विद्रोह था। द्वितया, अगस्त से सितंबर के समयावधि में मोपला ध्वंस की समाप्ति हो गयी।

वास्तव मोपला की घटना कोई विद्रोह नहीं था क्योंकि विद्रोह तो किसी प्रकार के शोषण के प्रतिकार में किया जाता है। यह किसी शोषण के प्रतिकार में नहीं वरन ‘देवभूमि’ केरल में इस्लामिक वर्चस्व की स्थापना हेतु एक अमानवीय, घृणित प्रयास था। हमारी संस्कृति ने युद्ध के भी नियम बनाये थे, बात जब स्त्री अस्मिता पर पहुंची महाभारत के रण भी सजाएँ परंतु धर्म स्त्री के शील और गर्भ पर प्रहार कर देगा भारतवर्ष में ऐसा उदाहरण तो किंचित नहीं है।

अतः विद्रोह नहीं, विप्लव नहीं, क्रान्ति नहीं; यह नग्न मोपला जिहाद था। यह सुनियोजित था, नृशंस था, एवं नारकीय था। हमारी और आपकी चेतना मानवीय क्रूरता और मानव-जनित विभीषिका की जो परिकल्पना अपने मष्तिस्क में कर सकती है, यह कुकृत्य उससे भी परे था। भारतीय संस्कृति और सहिष्णुता के आवर्तों में पल्लवित इस जाति का सबसे बड़ा विश्वासघात था, कुठाराघात था।

मोपला दंगों पर सबसे प्रामाणिक पुस्तक “The Moplah Rebellion 1921” के लेखक और उस समय के दीवान बहादुर सी गोपालन नायर ने मालाबार में 1921 से पूर्व के 50 से अधिक भीषण दंगों का विस्तृत उल्लेख किया है। अंतिम घटना फवरी 1919 की है जिसमें एक मोपला कांस्टेबल को नरसंहार और भेदभाव के आरोप में निष्काषित कर दिया गया, क्योंकि उसने उस क्षेत्र में मोपला विरोधियों और खिलाफत समिति के उपद्रवियों के साथ मिलकर अराजकता और उन्माद फैलाया।

उसके पश्चात वह एकदिन कुछ चरमपंथियों के समूह के साथ मिलकर उस क्षेत्र के सभी मंदिरों को तोड़ने लगा। अंततः उग्र इस्लामिक भीड़ नें 5 नंबूदरी ब्राह्मण सहित 2 नायरों की नृशंस हत्या कर दी।

कल्पना कीजिये कि एक व्यक्ति के मन मष्तिस्क पर एक मजहब के प्रभाव की कैसे वह जान लेने के साथ जान देने को भी आतुर हो जाता है। प्रामाणिक ऐतिहासिक उल्लेखों के अनुसार अधिकांशतः मोपला मरणासन्न अवस्था में “स्वर्ग” और ‘’अल्लाह हु अकबर’’ के नारे लगाए। उनके मृत्यु को वीरगति जैसा सम्मान मिला। जन्नत के लोभ के कारण इस्लामिक कट्टरपंथ ने मालाबार में मोपला मुसलमानों के बीच वैचारिक तौर पर इस्लामिक राष्ट्र का सृजन कर दिया था। उसी इस्लामिक खिलाफत की अवधारणा को गाँधी ने स्वतंत्रता संग्राम में और वामपंथियों ने कृषक-विद्रोह में परिवर्तित कर राजनैतिक रूप से  टीपू समान नेतृत्व प्रदान किया। हम इसी ऐतिहासिक सूक्षमता से अपने दर्शकों को अवगत कराना चाहते हैं कि 20 अगस्त 1921 से 6 सितंबर 1921 तक गाँधी और वामपंथियों के राजनितिक नेतृत्व तथा मुसलियार के धार्मिक नेतृत्व में मोपला मुसलमानों ने सुनियोजित तरीके से हिन्दू नरसंहार कर जनसांख्यकीय परिवर्तन के माध्यम से मुस्लिम खिलाफत को स्थापित करनें का प्रयत्न किया।

इस दौरान निरीह हिंदुओं को मजहबी भेड़ियों की दया पर छोड़ दिया गया। ये लोग इनसे सब कुछ नोच लेना चाह रहे थे –  जान, माल, व्यापार, जमीन, स्त्री, शील, धर्म सबकुछ,  क्योंकि खिलाफत राष्ट्र में संप्रदाय के अलावा जो कुछ भी है वो उपभोग, शोषण और मनोरंजन की वस्तु है।

इन्हीं आदेश, उद्देश्य और कांग्रेस के राजनैतिक नेतृत्व ने इतना भयंकर जंसनहार किया जो मानव इतिहास के सबसे भीषण धार्मिक कलंकों में से एक है। इन विभीषिकाओं का वर्णन ढेरों पुस्तकों, लेखों और समकालीन नेताओं के उद्धरणों और ऐतिहासिक प्रमाणों के माध्यम सी मिलती है, जिनका सरलीकरण कर हम आपके सामने प्रस्तुत करेंगे।

वेरियनकुनाथ कुंजाहमद हाजी, सेठी कोया थंगल और अली मुसलियार के नेतृत्व में तथाकथित विद्रोह और वास्तविक नरसंहार जल्द ही मलप्पुरम, मंजेरी, पेरिंथलमन्ना, पांडिक्कड और तिरूर के पड़ोसी क्षेत्रों में फैल गया। 20 अगस्त 1921 को इसका आधिकारिक आरंभ और 6 सितंबर को अंत माना गया। लेकिन, इन दंगों के पीछे की मानसिकता का आरंभ 1400 साल पहले हुआ और अंत की प्रतीक्षा में मानवता अब तक है।

सबसे पहले हम आंकड़ों पर नजर डालते हैं।

  • 20 अगस्त, 1921 को जिहाद शुरू हुआ।
  • 26 अगस्त, 1921 को मार्शल लॉ लगा दिया गया।
  • 25 फरवरी, 1922 को इसे वापस ले लिया गया।
  • 30 जून, 1922 को जिहाद की समाप्ति, अंतिम बचे हुए मोपला नेता अबू बकर मुसालियार पकड़ा गया
  • 1921 सितंबर से दिसंबर  तक जिहाद अपने चरम पर था।

बी.आर. आंबेडकर अपनी पुस्तक पाकिस्तान एंड पार्टीशन आफ इंडिया में लिखतें है, “केंद्रीय विधानमंडल में एक प्रश्न के उत्तर में, गृह सचिव सर विलियम विंसेंट ने जवाब दिया- ‘मद्रास सरकार की रिपोर्ट है कि बलात धर्मान्तरण की संख्या संभवत: हजारों तक पहुंच गई है। लेकिन स्पष्ट कारणों से सटीक अनुमान प्राप्त करना संभव नहीं होगा, परंतु इसके अधिक होने की संभावना निश्चित है’  जो जनसंहार पर एक आधिकारिक वक्तव्य था।”

  • 20,800 हिंदू तलवार के जोर पर मारे गए और
  • 4,000 से अधिक हिंदू मुस्लिम बना दिए गए।
  • 39,338 जिहादियों पर मामले दर्ज किए गए और
  • 24,167 जिहादियों पर मुकदमा चलाया गया
  • 2,5000 हिंदुओं को बलात धर्मान्तरित किया गया
  • लाखों को बेघर कर दिया गया था
  • 1,000 से अधिक मंदिरों को नष्ट किया गया

इस जिहाद की शुरुआत में कालीकट और मलप्पुरम के सशस्त्र रिजर्व में 210 जवान थे। जिहाद के दौरान जिले में मालाबार विशेष पुलिस बल का गठन किया गया, जिसमें अंतत: 600 जवान तक हो गए। हिंसा में फौज व मालाबार विशेष पुलिस के करीब 43 जवान मारे गए और 126 घायल हुए।

सर सी. शंकरन नायर की पुस्तक गाँधी एंड अनार्की में बताया है कि जमोरिन महाराजा की अध्यक्षता में कालीकट में हुए सम्मेलन की कार्यवाही से उद्धृत तथ्यानुसार मोपला जिहाद की कुछ विशेषता थी जैसे महिलाओं को बेरहमी से पीटना, जीवित व्यक्तियों की खाल उतारना, पुरुषों, महिलाओं और बच्चों का सामूहिक नरसंहार, पूरे परिवारों को जिंदा जलाना, जबरन हजारों हिंदुओं का कन्वर्जन और जिन्होंने इस्लाम अपनाने से इनकार किया, उनकी हत्या करना, अधमरे लोगों को कुओं में फेंकना और पीड़ितों को मरने और कष्टों से मुक्त होने के लिए संघर्ष करने हेतु छोड़ देना, बड़ी मात्रा में आगजनी और अशांत क्षेत्र के सभी हिंदू घरों को लूटना, जिसमें मोपला महिलाओं और बच्चों ने भी भाग लिया। इस लूटमार में महिलाओं के शरीरों पर से वस्त्र भी लूट लिए गए और पूरी गैर-मुस्लिम आबादी को अत्यंत भयंकर पीड़ा देने के  प्रयास किये गए।

हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के लिए अशांत क्षेत्रों में स्थित कई मंदिरों को अपवित्र और निर्ममता पूर्वक नष्ट कर दिया गया। मंदिर के भीतर गोकशी की गई और उनके अवशेष प्रवेश द्वार, मूर्तियों, दीवारों व छतों पर लटका दी गई। कई मुस्लिम नेताओं ने खुद को खिलाफत के राजाओं और राज्यपालों के रूप में स्थापित किया और हिंदुओं के नरसंहार की अगुआई की। अली मुसलियार , वरियनकुन्नथ कुन्हम्मद हाजी राजा और सी.आई. कोया थंगल ऐसे ही उदाहरण हैं।

थंगल ने एक सपाट पहाड़ी की ढलान पर अपना दरबार बना रखा था, जिसके आसपास के गांवों में उसके लगभग 4,000 अनुयायी थे। एक बार 40 से अधिक हिंदुओं को पीछे की तरफ हाथ बांध कर थंगल के पास ले जाया गया। सैन्य मदद के आरोप में इनमें से 38 हिंदुओं को मौत की सजा दी गई। थंगल ने व्यक्तिगत रूप से इस हत्याकांड की निगरानी की और एक चट्टान पर बैठकर अपने अनुयायियों को हिंदुओं का गला काटकर शवों को कुएं में फेंकते हुए देखता रहा। दिलचस्प यह कि उसने 627 ई. में मुहम्मद के अधीन इस्लामिक बलों द्वारा खाई की लड़ाई में बानू कुरैजा नाम की यहूदी जनजाति के विरुद्ध किए गए हत्याकांड की नकल की थी।

जिला पुलिस अधीक्षक आर.एच. हिचकॉक, ने लिखा है, “खिलाफत आंदोलन के नेटवर्क से कहीं अधिक महत्वपूर्ण, मपिल्लाओं के बीच संचार की पारंपरिक प्रणाली थी। यह ऐसा बिंदु था जो हिंदू और मपिल्ला के बीच एक बड़ा अंतर निर्मित करता था। कुछ बाजारों में पूर्ण रूप से मपिल्ला ही मौजूद हैं, और अधिकांश मपिल्ला सप्ताह में कम से कम एक बार शुक्रवार की नमाज के लिए और अक्सर मस्जिदों में अन्य समय पर भी एकत्र होते हैं। इसलिए वे अपनी किसी तरह की सार्वजनिक राय बना सकते हैं और जोड़ सकते हैं, लेकिन यह सारा काम मजहब की आड़ में किया जाता है। इस कारण हिंदू या यूरोपीय लोगों को भी इसके बारे में कुछ भी जानकारी होना मुश्किल हो जाता है। कभी-कभी पड़ने वाले त्योहारों को छोड़कर हिंदुओं के पास ऐसा कोई सामाजिक अवसर नहीं है। मोपलाओं ने अपने आप को विभिन्न प्रकार के हथियारों से लैस कर लिया था”

द इंग्लिशमैन द्वारा 6 अक्टूबर 1921 को प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है: “कई हालिया रिपोर्टों से पता चलता है कि वेरियनकुनाथ कुन्हम्मद हाजी और चेम्बकास्सेरी थंगल ने फैसला किया है कि विद्रोही मोपलाओं  की दया पर गांवों में रहने वाले सभी हिंदुओं को तब तक मौत के घाट उतार दिया जाना चाहिए जब तक कि वे इस्लाम स्वीकार नहीं करते। ऐसे उदाहरणों का उल्लेख किया गया है जिनमें हिंदुओं को मारे जाने से पहले वास्तव में उन्हें अपनी कब्र खोदने के लिए मजबूर किया गया था।” उसकी क्रूरता की कोई सीमा नहीं थी। सी. गोपालन नायर लिखते हैं: “विद्रोह के फैलने पर वह राजा बन गया, खान बहादुर चेक्कुट्टी, एक मोपला सेवानिवृत्त पुलिस निरीक्षक की हत्या के द्वारा अपने राज्याभिषेक का जश्न मनाया, जो अपनी पत्नी की बाहों में कटे सिर के साथ मरे।”

कुंजाहम्मद हाजी के नेतृत्व में मोपलाओं ने निर्दोष हिंदुओं पर अकथनीय अत्याचार किए। दंगों से संबंधित मामलों की सुनवाई करने वाले विशेष न्यायाधीश ने अपने फैसले में कहा था: “लगता है कि विद्रोहियों का मतलब हर पुरुष को उस जगह पर मारना था, जहाँ वे उन्हें पकड़ सकते थे और केवल वे ही बचे थे जो या तो भाग गए थे या छोड़ दिए गए थे।”

तत्कालीन अंतर्राष्ट्रीय  मीडिया आज के पोर्टल्स और अखबारों की तरह उतना पक्षपाती नहीं था, और उन्होंने यथासंभव स्थिति को स्पष्ट रूप से रेखांकित भी किया। द टेलीग्राफ ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था, “मालाबार का विद्रोह एक प्रकार से एक ‘पवित्र जिहाद है’। हर जगह हरी पताका लहराई जा रही है और हिंदुओं के जबरन धर्मांतरण की खबरें आ रही हैं। एक तरफ असहयोग के दीवाने पूर्ण स्वराज की बातें कर रहे हैं और दूसरी ओर पूर्णतया लूटपाट और आगजनी को बढ़ावा दिया जा रहा है।”

होबार्ट से प्रकाशित होने वाला अखबार द वर्ल्ड अपने अक्टूबर के रिपोर्ट में बताता है, “कालीकट में शरणार्थियों की भरमार है, जो मोपला द्वारा किये गए अत्याचारों की हृदयविदारक घटनाओं का वर्णन करते हैं। उनके अनुसार वे अब धर्मांतरण का विकल्प भी नहीं देते, सीधे हिंदुओं का नरसंहार कर रहे हैं।”

इतनी वीभत्स हिंसा के बाद भी मोहनदास गांधी तनिक भी विचलित नहीं हुए, उलटे उन्होंने अपनी अदूरदर्शिता और अपने पाषाण हृदय का परिचय देते हुए कहा, “मोपला की क्रांति हिंदुओं और मुसलमानों के लिए एक परीक्षा के समान है। क्या हिंदुओं की मित्रता इस चुनौती को पार कर सकती है? क्या मुसलमान मोपला के अति विद्रोह को हृदय से स्वीकार सकते हैं? हिंदुओं के अंदर इतनी क्षमता और इतनी दया होनी चाहिए कि वे ऐसे विद्रोह के बाद भी अपने मार्ग पर अडिग रहे।”

मोपला में जो हिंसा, जो नरसंहार हुआ, वो इस स्तर पर हुआ, जिसकी कल्पना मात्र से ही व्यक्ति कांप उठे। इसके वास्तविक आंकड़ों को जुटाना अपने आप में किसी भीष्म प्रतिज्ञा से कम दुष्कर नहीं होता, और उस समय तो कांग्रेस और अंग्रेज़ एक ही सिक्के के दो प्रतिबिंब थे। अगले अंक में हम आपको कांग्रेस, कम्युनिस्टों और राष्ट्रवादी विचारकों के इस नरसंहार पर विचार और उनके विश्लेषण से अवगत कराएंगे और साथ ही ये भी बताएंगे कि कैसे इस वीभत्स, जघन्य नरसंहार को एक कृषि विद्रोह में परिवर्तित करने की दिशा में जमकर लीपापोती की गई।

भाग 1 – मोपला नरसंहार: कैसे टीपू सुल्तान और उसके पिता हैदर अली ने मोपला नरसंहार के बीज बोए थे

भाग 2- मोपला नरसंहार: टीपू सुल्तान के बाद मोपला मुसलमानों और हिंदुओं के बीच विभाजन का कारण 

भाग 3- मोपला नरसंहार: 1921 कोई अकेली घटना नहीं थी, 1836 से 1921 के बीच 50 से अधिक दंगे हुए थे

भाग 4- कैसे ओट्टोमन साम्राज्य के विध्वंस ने खिलाफत आंदोलन की नींव रखी जिसके कारण मोपला हिंदू विरोधी नरसंहार हुआ

Tags: मोपला नरसंहार
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