अप्रैल 2021 में सिख धर्म की सर्वोच्च संस्था शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (SGPC) ने राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ पर अन्य धर्मों को दबाने का आरोप लगाते हुए एक निंदा प्रस्ताव पास किया। अकाल तख्त के कार्यवाहक जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह भी कई बार आरएसएस के खिलाफ बोल चुके हैं और स्वयंसेवी संगठन पर प्रतिबंध लगाने की मांग भी कर चुके हैं।
दिलचस्प बात यह है कि SGPC ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और मुगलों के बीच समानता को भी दर्शाया। उन्होंने आरएसएस पर अल्पसंख्यकों के मामलों में दखल देकर उन्हें धमकाने का आरोप लगाया। SGPC के प्रस्ताव में कहा गया है- “17 वीं शताब्दी में मुगलों द्वारा ऐसे प्रयास किए गए थे जिनका सिख गुरुओं ने विरोध किया था, जबकि नौवें सिख गुरु गुरु तेग बहादुर ने अन्य समुदायों के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया था।” हालांकि, आरएसएस-सिख इतिहास की एक छोटी सी समीक्षा पूरी तरह से अलग कहानी बयां करती हैं।
जब आरएसएस ने अनियंत्रित भीड़ से स्वर्ण मंदिर को बचाया
RSS और सिखों के बीच संबंध 1947 से हैं। यह विभाजन का युग था, जब मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना द्वारा उकसाई गई खून की प्यासी भीड़ भयानक अमानवीय अपराध कर रही थी। आरएसएस ने तब सिखों सहित पंजाब के लोगों का बचाव किया था।
आरएसएस पर करीब से नजर रख रहे दिल्ली के पत्रकार अरुण आनंद ने अपनी किताब ‘आरएसएस को जानें’ में सिखों से जुड़ी कई बातें लिखी है। उन्होंने लिखा है कि आरएसएस ने दरबार साहिब को किसी भी संभावित हमले से बचाने के लिए 75 स्वयंसेवकों को पोस्ट किया जिनके नाम और पते के साथ पूरी सूची ‘विभाजन के दिन: आरएसएस की उग्र गाथा’ नामक पुस्तक के परिशिष्ट में उपलब्ध है।
दरबार साहिब की रक्षा के लिए आरएसएस के अभियानों का नेतृत्व मुख्य रूप से संघ के तत्कालीन प्रमुख डॉ बलदेव प्रकाश ने अमृतसर में शहर प्रचारक डॉ इंद्रपाल और गोवर्धन चोपड़ा के साथ किया था। अरुण आनंद द्वारा उद्धत सूत्रों के अनुसार, 6 मार्च 1947 और 9 मार्च 1947 को मुस्लिम लीग के नेतृत्व वाली भीड़ द्वारा स्वर्ण मंदिर पर दो हमले की योजना बनाई गई थी।
विभाजन के दौरान सिखों की जान बचाने में RSS की भूमिका
अरुण आनंद आगे कहते हैं कि “प्रो. ए.एन. बाली इस बात का विस्तृत विवरण देते हैं कि कैसे आरएसएस ने लाहौर में विभाजन के समय बड़ी संख्या में सिखों और हिंदुओं को बचाया”। दिलचस्प बात यह है कि प्रो. बाली की किताब ‘नाउ इट कैन टेल’ की प्रस्तावना मास्टर तारा सिंह ने लिखी थी, जिन्होंने अकाली आंदोलन और एसजीपीसी के उदय में बड़ी भूमिका निभाई थी।
प्रो. बाली ने अपनी किताब में कहा, “पुलिस ज्यादातर लीग माइंडेड थी। इस स्तर पर लोगों के बचाव में युवा और नि:स्वार्थ हिंदुओं की संस्था जिसे आरएसएस के नाम से जाना जाता है, के अलावा और कौन आया? उन्होंने सूबे के हर शहर के हर मोहल्ले से हिंदू-सिख महिलाओं और बच्चों को निकालकर तुलनात्मक रूप से सुरक्षित केंद्रों तक पहुंचाया। आरएसएस ने उनके लिए भोजन, चिकित्सा सहायता, कपड़े और देखभाल की व्यवस्था की।”
1984 के दंगों के दौरान सिखों की मदद करने में आरएसएस की भूमिका
आजादी के बाद भी भारत में आरएसएस ने हिंदू-सिख एकता को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई। 1984 में सिख विरोधी दंगों के बाद प्रसिद्ध स्तंभकार और लेखक खुशवंत सिंह ने कहा, “दिल्ली और अन्य जगहों पर इंदिरा गांधी की हत्या से पहले और बाद में आरएसएस ने हिंदू-सिख एकता को बनाए रखने में एक सम्मानजनक भूमिका निभाई है। 1984 में कांग्रेस (आई) के नेताओं ने भीड़ को उकसाया और 3,000 से अधिक लोगों को मार डाला। उन कठिन दिनों में साहस दिखाने और असहाय सिखों की रक्षा करने के लिए मुझे आरएसएस और भाजपा को श्रेय देना चाहिए। गरीब टैक्सी चालकों की मदद के लिए खुद अटल बिहारी वाजपेयी ने कुछ जगहों पर हस्तक्षेप किया।“
साल 2003 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष तरलोचन सिंह ने भी आरएसएस और सिखों के रिश्ते को लेकर अपनी राय रखी। उन्होंने कहा, “आरएसएस और सिखों ने हमेशा कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाई लड़ी है। सिख कभी नहीं भूल सकते कि कैसे आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने विभाजन और 1984 के सिख विरोधी दंगों के दौरान उनकी रक्षा की।”
ऐसे में जब आरएसएस का पंजाब राज्य में हिंदू-सिख एकता को बढ़ावा देने और दोनों समुदायों की रक्षा करने का पूरा इतिहास रहा है, तब एक सिख संगठन द्वारा आरएसएस पर एक अल्पसंख्यक विरोधी संगठन का लेबल लगाना कहां तक उचित है।