किसान आंदोलन का सबसे प्रमुख कारण APMC (एपीएमसी) के एकाधिकार को मिली चुनौती है। पहली बार देश के वास्तविक अन्नदाताओं को सरकार ने जमींदारों के शोषण के विरुद्ध कृषि कानून नामक सुरक्षा कवच प्रदान किया है। APMC (एपीएमसी) इन्हीं जमींदार या सामंती किसानों का समूह है जिसे पूर्ववर्ती राज्य सरकारों ने विधिक मान्यता प्रदान कर दी है।
क्या है APMC (एपीएमसी)?
पूर्व के समय में कृषि प्रधान हमारे समाज में अर्थ और कृषि संसाधन बहुत केंद्रीकृत थे। लधु कृषकों की संख्या बहुल थी परंतु भूमि और संसाधन कुछ जमींदारों के हाथ में केंद्रीकृत था। ये किसान लघु किसानों को अत्यधिक ब्याज पर ऋण देते थे। फिर भुगतान की असमर्थता की स्थिति में ब्याज स्वरूप वो किसानों की फसल रख लेते थे। इसी समस्या के निवारण हेतु राज्य सरकारों नें कानून बना कर APMC (एपीएमसी) की स्थापना की। APMC (एपीएमसी) अर्थात कृषि उपज/उत्पाद बाजार समिति…आसान शब्दों में समझें तो राज्य सरकारों ने किसानों को बड़े खुदरा विक्रेताओं के शोषण से बचाने के लिए कानून बनाकर APMC (एपीएमसी) की स्थापना की। यह राज्य के पूरे क्षेत्र को विभिन्न मंडियों में विभाजित करता है और मंडी से बाहर किसी भी कृषि उत्पाद को बेचना या खरीदना प्रतिबंधित करता है।
एपीएमसी छोटे किसानों की समस्या
परंतु विडम्बना देखिये, जिस APMC (एपीएमसी) की स्थापना लघु किसानों को शोषण से बचाने के लिए किया गया, वही समय के साथ उनके शोषण का केंद्र बनता चला गया। 2015-16 की कृषि जनगणना के अनुसार, भारत में अधिकांश 86 प्रतिशत जोत-भूमि छोटी और सीमांत है। इनका आकार दो हेक्टेयर से भी कम है। इन परिवारों की आय पहले से ही व्यय से कम है। साथ ही इनके साथ समस्या ये भी है कि इन्हें सरकारी सुविधाएं और न्यूनतम समर्थन मूल्य हेतु परिवहन खर्च करके अपने उत्पाद को APMC (एपीएमसी) मंडी लेकर जाना पड़ता है, दलाली देनी पड़ती और इसके बावजूद कई दिनों तक विक्रय हेतु पंक्तिबद्ध हो कर प्रतीक्षा करनी पड़ती है। फसल विक्रय पश्चात मुद्रा भी नकद नहीं मिलती है। उसके लिए अगर किसान 6 महीने तक और प्रतीक्षारत रहें तो अगले मौसम की खेती करने में उसे समस्या का सामना करना पड़ता है। उसके सामने परिवार चलाने तक की समस्या आ जाती है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण डेटा इंगित करता है कि देश में आधे से भी कम किसान APMC (एपीएमसी) के माध्यम से फसल बेचते हैं और न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) कितनों को मिलता है इससे पाठकों को अवगत करानें की आवश्यकता नहीं है।
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उपाय
अतः सरकार नें कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक 2020 पारित कर किसानों को यह सुविधा दी कि वह अपनी फसल कहीं भी और कभी भी बेच सकतें है। उदाहरण-रिलायंस इंडस्ट्रीज के समूह की खुदरा श्रृंखलाओं के लिए 80 फीसदी से अधिक ताजे फल और सब्जियां सीधे किसानों से प्राप्त की जाती हैं और आखिर किसानों को ये सुविधा क्यों ना मिले? एक जूता बनानें वाला अगर अपना जूता देश में कहीं भी बेच सकता है तो किसान सिर्फ मंडी तक ही सीमित क्यों रहे?
मंडी स्थापित करना राज्य का विषय है। आपको जानकार हैरानी होगी कि भारत के बहुत से राज्यों में मंडी व्यवस्था नहीं है। जिन राज्यों में अगर है भी तो अधिनियम पारित कर मंडी व्यवस्था को महत्वहीन कर दिया गया है जैसे- तमिलनाडु, गुजरात, बिहार, केरल इत्यादि। हरियाणा और पंजाब के मंडियों में “जट्ट और जाट” किसानों का वर्चस्व है। 2015 में शांता कुमार समिति की रिपोर्ट में कहा गया था कि एमएसपी का लाभ सिर्फ 6 प्रतिशत किसानों को ही मिल पाता है जिसका सीधा मतलब है कि देश के 94 फीसदी किसान एमएसपी के फायदे से दूर रहते हैं।
मंडी एकाधिकार और व्यवस्था में “जट्ट-जाटों” का वर्चस्व
उन राज्यों में विरोध तीव्र है जहां खरीद का मूल्य अधिक है ना कि उन राज्यों में जहां खरीद के केंद्र अधिक है। गेहूं की 60 फीसदी से ज्यादा खरीद पंजाब और हरियाणा में होती है जबकि इन दोनों राज्यों में सिर्फ 13 फीसदी खरीद केंद्र ही हैं। बिहार, जहां 2006 में एपीएमसी अधिनियम को निरस्त कर दिया गया था, वहां अभी भी 30 प्रतिशत खरीद केंद्र है जबकि खरीद मात्र 0.02 प्रतिशत है, जिससे इन APMC (एपीएमसी) केंद्रों अर्थात मंडियों को किसानों के लिए आर्थिक रूप से महत्वहीन बना दिया गया है।
- पंजाबी “जट्ट”
पंजाब में आढ़तियों के कारोबार में व्यापारी जातियों या महाजनों का लंबे समय से दबदबा था, जिनके अपने मुवक्किल किसानों के लगभग पूरी तरह से सिख जाटों के साथ कई पीढ़ियों तक संबंध रहे हैं। हालांकि, तेजी से समृद्ध जाट भी आढ़ती बन गए हैं। यह कोई रहस्य नहीं है कि किसान संघों के प्रमुख नेता और राज्य के दोनों प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल के सदस्य आढ़तियों के रूप में शामिल हैं।
जाट हरियाणा की आबादी का लगभग एक चौथाई हिस्सा हैं। यह आंकड़ा रोहतक, सोनीपत, झज्जर, जींद, पानीपत, हिसार और भिवानी वाले केंद्रीय जिलों में और भी अधिक होगा। जब श्रीनिवास रिपोर्ट द्वारा निर्धारित मानदंड की बात आती है तो जाटों का प्रभुत्व और अधिक स्पष्ट हो जाता है। यह समुदाय हरियाणा में तीन-चौथाई कृषि भूमि का मालिक है। जाट ‘जमींदार’ का पर्याय बन गया है जैसे बनिया व्यापारी का।
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निष्कर्ष
सत्य है, विरोध हो रहा है। विरोध पूर्णतः स्वाभाविक है क्योंकि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पहली बार सरकार ने साहसिक निर्णय लेते हुए किसानों के शोषण की बेड़ियां तोड़ दी है और किसानों के हित में कानून लेकर आई है। यह जमींदारी का अंत है, सामंतवाद पर प्रहार है। APMC (एपीएमसी) के एकाधिकार का प्रतिकार है। यह भारत के वास्तविक अन्नदाता के रक्षण हेतु ज़मींदारों और “fortuner” वाले किसानों से सरकार का संघर्ष है।
ये किसान नहीं है।
जमींदार हैं, सियासतदान हैं,
सेठ-साहूकार हैं।
मैं भारत का किसान हूं,
जानता हूं…
5 बीघे की खेती में ट्रैक्टर-ट्रॉली नहीं आती,
महंगी गाड़ियां नहीं आती।
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