क्या किसी दलित द्वारा प्रदर्शित ‘होली क्रॉस’ और अन्य धार्मिक प्रतीकों तथा प्रथाओं को उसके अनुसूचित जाति समुदाय प्रमाण पत्र को रद्द करने के लिए उद्धृत किया जा सकता है? नहीं, मद्रास उच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में इसे नौकरशाही संकीर्णता बताया हैं, जिसे संविधान ने कभी नहीं देखा था।
मुख्य न्यायाधीश संजीव बनर्जी और न्यायमूर्ति एम दुरईस्वामी की एकल पीठ ने कहा- “केवल इसलिए कि दलित समुदाय के एक सदस्य ने एक ईसाई से शादी की और उसके बच्चों को ईसाई के रूप में मान्यता दी गई है, उसे जारी किया गया अनुसूचित जाति समुदाय प्रमाण पत्र रद्द नहीं किया जा सकता है।“
अदालत ने 2016 में रामनाथपुरम जिले की पी मुनीस्वरी द्वारा दायर एक याचिका को अनुमति देते हुए यह टिप्पणी की। पी मुनीस्वरी ने अपनी याचिका में जिला कलेक्टर द्वारा उनके सामुदायिक प्रमाण पत्र को रद्द करने के 2013 के आदेश को शून्य करने की मांग की थी। पी मुनीस्वरी पेशे से एक डॉक्टर है। वह हिंदू माता-पिता से पैदा हुई थी और कानून के अनुसार अनुसूचित जाति से संबन्धित थी। फिर उन्होंने एक ईसाई से शादी की और अपने बच्चों को भी ईसाई समुदाय के सदस्यों के रूप में पाला।
इसी का हवाला देते हुए उनका अनुसूचित जाति प्रमाणपत्र रद्द कर दिया गया। जब उन्होंने अदालत में फैसले को चुनौती दी तो अधिकारियों ने कहा कि उन्होंने उसके क्लिनिक का दौरा किया और दीवार पर एक ‘क्रॉस‘ लटका हुआ पाया। इस आधार पर, अधिकारियों ने अनुमान लगाया कि वह ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गई थी और इस प्रकार हिंदू समुदाय प्रमाण पत्र को बनाए रखने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया था।
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तर्क को खारिज करते हुए एकल पीठ ने कहा: “हलफनामे में कोई सुझाव नहीं है कि उसने अपना विश्वास त्याग दिया है या उसने ईसाई धर्म अपनाया है। यह समान रूप से संभव है कि वह, एक परिवार के एक हिस्से के रूप में, अपने पति और बच्चों के साथ हो सकती है। संडे मैटिंस के लिए अगर एक व्यक्ति चर्च जाता है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि ऐसे व्यक्ति ने उस मूल विश्वास को पूरी तरह से त्याग दिया है जिसके लिए वह पैदा हुआ था।”
न्यायाधीशों ने आगे कहा: “अधिकारियों के कार्य और आचरण एक हद तक संकीर्णता को दर्शाते हैं जिसे संविधान प्रोत्साहित नहीं करता है।” उन्होंने कहा कि जांच समिति के सदस्यों के लिए यह अच्छा होगा कि वे इस मामले को व्यापक दिमाग से देखें।
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यह देखते हुए कि अधिकारियों द्वारा की गई कार्रवाई मनमानी प्रतीत होती है और बिना किसी भौतिक तथ्य के समर्थन के अनुमानों और अनुमानों के आधार पर, न्यायाधीशों ने जिला कलेक्टर द्वारा पारित आदेश को रद्द कर दिया और अधिकारियों को मूल रूप से मुनीस्वरी के पक्ष में जारी अनुसूचित जाति समुदाय प्रमाण पत्र को बहाल करने का निर्देश दिया।
मद्रास हाइकोर्ट का यह फैसला क्यों त्रुटिपूर्ण है?
धर्म अपरिभषेय है। कुछ लोग इसे स्वभाव, कुछ लोग कर्म तो कुछ इसे साधना पद्दती के आधार पर परिभाषित करते है। अतः एक धर्म के आवर्तों, पद्दतियों और उसकी परिधियों में सर्वदा विरोधाभास रहें है। यह विरोधाभास राजनीतिक, सामाजिक और न्यायिक निर्णयों में भी परिलक्षित होते है। न्यायिक निर्णय राष्ट्र के विधि समतुल्य होते हैं। समाज पर इनके परिणाम अत्यंत दूरगामी होते हैं। गोपालन केस के कालिख को मिटाते-मिटाते न्यायिक व्यवस्था को किस प्रकार मेनका गांधी केस तक जाना पड़ा इससे हम सभी अवगत हैं। खैर, मुख्य न्यायाधीश संजीव बनर्जी और न्यायमूर्ति एम दुरईस्वामी पीठ के इस फैसले ने भी धर्म, आरक्षण और धार्मिक प्रतिचिन्हों के मामले में कई अंधकार क्षेत्र का सृजन कर दिया है। ऐसे समय में जब सर्वोच्च न्यायालय ने पदोन्नति में आरक्षण को अनंत काल तक बनाए रखने से परहेज करने का आख्यान दिया है, मद्रास हाइ कोर्ट का यह निर्णय धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ लेकर धर्मांतरण और अनुचित आरक्षण को बढ़ावा देता दिख रहा है। हमारे संविधान में अनुच्छेद 26 के तहत धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है। संविधान और न्यायालय ने समय-समय पर धार्मिक स्वतन्त्रता की सीमा भी तय की है जिससे धर्मांतरण और धर्म के नाम पर अनुचित कार्य रुका है। अतः अब नए किस्म का धर्मांतरण मॉडल राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभर आया है। इस तरह के विकृत धार्मिक परिवर्तन को हमने पंजाब के परिपेक्ष्य में देख रखा है। जहां मुख्यमंत्री चन्नी के दलित सिख होने पर संदेह और संभावित ईसाई होने का अंदेशा अधिक है। परंतु, अपने स्वार्थ हेतु उन्होंने दलित चोगा ओढ़ रखा है। ठीक इसी प्रकार आरक्षण के स्वार्थ हेतु इस मामले में भी पी मुनीस्वरी ने दलित चोगा ओढ़ लिया है। कोर्ट के इस फैसले से कुछ प्रमुख प्रश्न उभर आए है जो निम्न है:-
- प्रथम, अगर किसी हिन्दू व्यक्ति ने गैर धर्म में विवाह किया, उसका विवाह हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 से पंजीकृत न हो कर विशेष विवाह अधिनियम,1954 या अन्य अधिनियम के माध्यम से पंजीकृत होगा तब, ऐसे व्यक्ति या दंपति को अनुसूचित जाति का आरक्षण प्रदान करना कितना न्यायोचित है?
- द्वितीय, अगर रविवार को निरंतर चर्च जाना, क्रॉस लटकाना अगर इसाइयत की निशानी नहीं है तो फिर क्या है?
- तृतीया, धार्मिक पहचान को लेकर भविष्य में कानूनी विसंगतियाँ न हो इसके लिए कोर्ट ने क्या उपाय किए हैं?
- चौथा, अगर अन्य धर्म में विवाह के पश्चात भी उनकी आरक्षण सुविधा बरकरार रखी गयी तो क्या ये अवैध धर्मांतरण को बढ़ावा नहीं देगा?
- पांचवा, एक पितृसत्तात्म समाज में जहां बच्चे की सामाजिक, शैक्षणिक और धार्मिक पहचान मुख्यतः अपने पिता पर टिकी है, वहाँ इस बात पर विश्वास करने के क्या आधार है कि उन्होंने धर्म का त्याग नहीं किया है?
धर्म के आवश्यक तत्वों को परिभाषित करने के लिए, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने “धर्म के आवश्यक तत्व” यानी EPR सिद्धांत को निर्धारित किया। आयुक्त, हिंदू धार्मिक बंदोबस्ती, मद्रास बनाम श्री शिरूर मठ मामले में, धर्म से संबंधित मामलों के अंतर्गत क्या हैं और क्या नहीं इसके बीच एक रेखा खींची गई थी। यह निर्धारित किया गया था कि धार्मिक मत और उन मतों के अनुसरण में किए गए कार्य धार्मिक प्रथाएं हैं। इसका तात्पर्य यह है कि सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि अनुष्ठान, पूजा के तरीके और समारोह सभी धर्म की आवश्यक प्रथाओं के अंतर्गत आते हैं। इन्हें इस हद तक संरक्षित किया जाना चाहिए कि वे भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 की सीमाओं के भीतर हों।
निष्कर्ष
कोर्ट को यह समझना चाहिए कि कानून की विसंगतियाँ अवहेलना को जन्म देंगी। धर्म आपके जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन का अभिन्न अंग है। यह जीवन शैली है। धार्मिक परम्पराओं और मान्यताओं से हमारा जीवन भावनात्मक स्तर पर जुड़ा है। लोग अन्य धर्म में विवाह हेतु स्वतंत्र है। लोग धर्म परिवर्तन और धर्म से परे प्रेम करने में भी सक्षम और स्वतंत्र है। परंतु, इतना सामर्थ्य तो होना ही चाहिए कि कम से कम अगर एक डॉक्टर लड़की अन्य धर्म में विवाह करे तो आरक्षण और अन्य सुविधाओं का त्याग कर दे। अगर न भी करे तो न्यायलाय को इस बारे में मार्गदर्शन करना चाहिए। यह फैसला न्यायालय की दूरदृष्टि को परिलक्षित नहीं करता।