पक्षी मानव मन को हमेशा से आकर्षित करते रहे हैं, उनकी तरह विचरण करने की कल्पना मात्र ही हमारे मन मस्तिष्क को रोमांचित कर देती है। पक्षियों का हमारे संस्कृति में पौराणिक महत्व भी है जैसे गरुड़ भगवान विष्णु का वाहन है तो कौआ शनि महाराज का। ईश्वर की प्रतिकृति को पक्षियों से जोड़ने के पीछे प्रकृति संरक्षण और संतुलन का उद्देश्य था, परंतु आज के समय में हम मात्र क्षणिक आकर्षण हेतु प्रकृति के इन पावन उद्देश्यों से अनभिज्ञ हो गए हैं और इनके प्रति अपने सम्बन्ध और उत्तरदायित्व में कुपरिवर्तन कर रहे हैं। इस लेख में हम आपको बताएँगे की आखिर कबूतरों को दाना डालना क्यों बंद करना चाहिए?
हम जिस पक्षी के संदर्भ में बात कर रहे हैं वो है- कबूतर। दैनिक दिनचर्या में आमतौर पर हम जिन कबूतरों को देखते हैं उन्हे “Blue Rock Pigeon”कहा जाता है। ये आपको घर के मुंडेर, अटारी, रेड लाइट और किसी ऐतिहासिक स्थलों पर आसानी से देखने को मिल जाएंगे। कुछ लोग इन्हें दाना खिलाकर मोक्षप्राप्ति का स्वप्न भी देखते है। हम ऐसा इसलिए करते है क्योंकि हम विज्ञान नहीं “सनीमा” देखते है। “सनीमा” के अनुसार दीवाने मनु्ष्य द्वारा कबूतरों को दाना डाल मोक्ष प्राप्ति की कामना करना न्यायोचित है। खैर, हम आपको प्रबोधित करेंगे कि कबूतरों को दाना डालना क्यों अनुचित है?
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शिकार करने की क्षमता में कमी
आपका दाना डालना कबूतरों को भोजन हेतु आप पर पूर्णतः आश्रित करता है। वो अपने भोजन खोजने की प्राकृतिक क्षमता को खो देते हैं और अपने अस्तित्व के लिए लोगों पर निर्भर हो जाते हैं। यह खाद्य श्रृंखला की गतिशीलता को काफी हद तक बदलकर रख देता है। उदाहरण हेतु आप हैदराबाद को देखिये। शहर में कबूतरों की बढ़ती आबादी और उसके विकृत परिणामों को देखते हुए पक्षी विशेषज्ञ और पशु चिकित्सक ने पक्षियों के सार्वजनिक भोजन पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है। कबूतर अपनी प्राकृतिक क्षमता के ह्रास के कारण अपने अस्तित्व के लिए लोगों पर निर्भर हो जाते हैं और इसके प्रकृति में असंतुलन पैदा होता है। आमतौर पर इस वजह से चूहों की जनसंख्या में भी अप्रत्याशित वृद्धि देखने को मिली है क्योंकि चूहे भी अब कबूतरों के बचे हुए दाने पर आश्रित हो गए है।
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जनसंख्या में अप्रत्याशित वृद्धि
अगर एक कबूतर को आप अच्छी तरह से दाना खिलाएं तो वह साल भर में करीब 12 किलो बीट कर देता है। कबूतरों की बीट जब सूख जाती है तो इससे कुछ परजीवी पैदा होते हैं जो हवा में जाकर इंफेक्शन फैलाते हैं। इतना ही नहीं इनके बीट में नाइट्रोजन और मीथेन की मात्रा अधिक होती है जिसके कारण स्टोनवर्क वाले ऐतिहासिक स्थलों को काफी नुकसान भी पहुंचता है।
लंदन का ट्रेफल्गर स्क्वेयर कबूतरों को दाना डालने के मामले में काफी लोकप्रिय था, वहां लोग कबूतरों को खूब दाना डालते थे लेकिन कबूतरों की बीट ने वहां के स्टोनवर्क को काफी नुकसान पहुंचाया। ऐसे में 2001 में वहां कबूतरों को खिलाए जाने वाले दाने की बिक्री पर रोक लगा दी गई। इसी तरह 2008 में वेनिस में भी सेंट मार्क्स स्क्वेयर पर कबूतरों के लिए बेचे जाने वाले दाने पर रोक लगा दी गई थी।
कबूतरों को दाना डालना कबूतर और मनुष्य दोनों के स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा करता है। वह अप्राकृतिक दर से प्रजनन करते हैं। कबूतर से हिस्टोप्लाज्मोसिस, क्रिप्टोकॉकोसिस और साइटाकोसिस जैसी मानव बीमारियां हो सकती हैं। इनके पंख नाना प्रकार के जीवाणुओं और विषाणुओं के वाहक होते है। ये श्वास संबंधी समस्याएं भी पैदा करते है।
उग्र स्वभाव के होते हैं कबूतर
जंगली कबूतरों के कारण हमारे देश के कई बड़े नगर त्रस्त हैं। ब्लू रॉक कबूतरों को पहले चट्टानों और चट्टानी क्षेत्रों के आसपास देखा जाता था। अब भोजन की निरंतर उपलब्धता के कारण कबूतरों ने पूरे वर्ष स्थायी रुप से कहीं भी घोंसला बनाना शुरू कर दिया है जबकि पहले वो घोंसलों का निर्माण शिकार का मौसम और प्रकृति में भोजन की उपलब्धता के अनुरूप करते थे। कबूतर बहुत ही उग्र स्वभाव के होते हैं, इनके परभक्षी न होने की वजह से छोटे पक्षियों जैसे तोता, मैना, गौरैया की आबादी पर संकट मंडरा रहा है।
निष्कर्ष
हमारे धर्म और संस्कृति में पक्षियों और प्राणिमात्र से सद्भावना को उच्च स्थान दिया गया है। परंतु सबसे उच्चतम है प्रकृति का स्वरूप और उसकी नियति। हमारे पूर्वजों ने भी कबूतर को प्रकृति का अंग मानते हुए इन्हें प्राथमिकता दी लेकिन हमारी अज्ञानता, आकर्षण और मनोरंजन ने प्रकृति की संतुलन और सीख को भुला दिया है। हमें कबूतरों को संरक्षित करना चाहिए लेकिन प्रकृति और दूसरे पक्षी के मोल पर नहीं।
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