मातृभूमि और संप्रभुता सर्वोच्च है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम भी “जननी जन्मभूमिश्चा स्वर्गादपि गरीयसी” के माध्यम से भी यही सिद्धान्त प्रतिपादित करते हैं और महाभारत के रण में हस्तिनापुर का रक्षण करते भीष्म भी। अर्थ, तंत्र, व्यवस्था, व्यक्तित्व, सिद्धान्त, सोच और कर्म माटी सबसे बड़ी है। सोने से भी बड़ी। आपका व्यक्तित्व चाहे कितना भी विराट और कर्म चाहे कितना भी सात्विक हो, अगर वो राष्ट्र के लिए पीड़ा का कारण बनता है तो इतिहास आपको उत्तरदायी ठहराएगा। राष्ट्र के उत्थान हेतु यह अनिवार्य भी है। इसी अनिवार्यता को प्रकाश में रखते हुए भारतीय लोकतन्त्र के “भीष्म पितामह” के राजनीतिक जीवन की विवेचना करना अनिवार्य हो जाता है। आपको बता दें कि आज भारतीय राजनीति के “भीष्म” यानी जयप्रकाश नारायण का जन्मदिवस भी है।
जयप्रकाश नारायण एक ऐसे दिग्गज हैं जिनकी एक गलती के कारण इन्दिरा गांधी को मजबूती मिली और साथ ही भारत को 5 दशकों तक दुष्परिणाम झेलना पड़ा।
11 अक्तूबर 1902 को घाघरा नदी के तट पर बसे सिताबदियारा के हरसू दयाल और फूल रानी देवी के यहाँ जयप्रकाश नारायण का जन्म हुआ। उनके पिताजी ने अच्छी शिक्षा-दीक्षा हेतु उन्हें पटना भेज दिया जहां जयप्रकाश भविष्य के भावी नेताओं जैसे अनुग्रह नारायण सिंह और कृष्ण सिंह के सानिध्य में रहे। यहीं से जयप्रकाश नारायण के मन मष्तिस्क में राजनीति, क्रांति और आंदोलन के बीज अंकुरित हुए। उनकी अर्धांगिनी भी मशहूर स्वतन्त्रता सेनानी प्रभावती देवी बनी।
साम्यवाद का संक्रमण
ऐसे परिवेश के कारण जेपी एक महान देशभक्त और आंदोलनकारी बनने की राह पर तो अग्रसर हुए परंतु, राष्ट्रवाद और राजनेता के गुण पीछे छूट गए। इसका कारण था कांग्रेस में मौजूद तथाकथित उच्च और कुलीन राजनेताओं से उनकी संगति। जयप्रकाश नारायण ने असहयोग आंदोलन के समय मौलाना आज़ाद को सुना और फिर राजेंद्र बाबू द्वारा स्थापित भारतीय विद्यापीठ में दाखिला ले गांधीवादी अनुग्रह नारायण सिंह के शिष्य बने। यही घटनाक्रम उनके राष्ट्रवादी सिद्धान्त पर कुठाराघात था। वो ब्रिटीश राज के विरोधी तो थे, लेकिन उन्हें राष्ट्र की संस्कृति के साथ समन्वयता पर संदेह होता था। जयप्रकाश नारायण ने अमेरिका से अपनी शिक्षा पूरी की और विंकिंसन विश्वविद्यालय में वो पहली बार साम्यवाद के संक्रमण में आए। दास कैपिटल के अध्ययन ने उन्हें साम्यवाद का रोगी बना दिया और इसी अवस्था में वो 1929 में भारत लौटे। भारत तो उनके इस विचार का आज भी भुक्तभोगी है परंतु, उस समय ब्रिटीश राज के खिलाफ चल रहे “भारत छोड़ो आंदोलन” ने उन्हें लोकप्रियता तो दे ही दी। हालांकि, वो अपने चरमोत्कर्ष पर “सम्पूर्ण क्रांति” के कारण पहुंचे।
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जनांदोलन को जेपी ने व्यक्तिगत लड़ाई में परिवर्तित कर दिया
सम्पूर्ण क्रांति वास्तव में जेपी द्वारा अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता को बनाए रखने के लिए एक विरोध प्रदर्शन मात्र था। इन्दिरा शासन के खिलाफ द्रवित जनता और सत्तलोलुप राजनेताओं से इसे समर्थन मिला और यह विरोध धीरे-धीरे इन्दिरा शासन के खिलाफ जयप्रकाश नारायण की व्यक्तिगत लड़ाई में परिवर्तित हो गया। जेपी इन्दिरा को पुत्री समान मानते थे परंतु, इन्दिरा गांधी द्वारा उन्हें स्वतंत्र भारत के “गांधी” सम सम्मान न मिलने के कारण, उन्होंने पूरे देश को रोक दिया। उनमें भारतीय राजनीति का शिखर पुरुष बनने की बड़ी ही तीव्र अभिलाषा थी। लोगों में भ्रम है कि उन्हें पद का मोह नहीं था परंतु वास्तविकता तो यह है कि वो तो बिना किसी पद के शासन का संचालन करना चाहते थे क्योंकि पद ज़िम्मेदारी और जवाबदेही सुनिश्चित करता है। भारतीय राजनीति के “भीष्म” ने अपनी इस व्यक्तिगत लड़ाई में कौरवों का खूब साथ लिया और दिया भी।
कहतें है आपातकाल के पीछे कुछ हद तक जयप्रकाश नारायण भी जिम्मेदार थे क्योंकि रामलीला मैदान में अपने भाषण के दौरान उन्होंने सेना तक को इन्दिरा के खिलाफ विद्रोह के लिए उकसाया। जेपी के अनुसार, ‘अगर शासन निरंकुश हो जाये तो सेना को बगावत करने में संकोच नहीं करना चाहिए। यही उनका राजधर्म है।’ बांग्लादेश के शेख मुजीबुर रहमान की दुर्गति ने इन्दिरा को इस आवाहन में चुनौती देखने के लिए मजबूर कर दिया। रेल, कृषि, दिल्ली, राज्य प्रशासन और अंततः पूरे देश को उन्होंने ठप कर दिया और इसी कारण इन्दिरा ने राष्ट्र को बंदी बना लिया।
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दूरदर्शिता का अभाव
दो राजनेताओं की शत्रुता से कोई भी देश इतने वृहद स्तर पर प्रभावित नहीं हुआ, ना ही किसी राजनेता ने अपने व्यक्तिगत लड़ाई में सैन्य विद्रोह का आवाहन किया है। खैर, इन्दिरा गांधी की सत्ता चली गयी। जयप्रकाश नारायण के मार्गदर्शन में जनता पार्टी की सरकार बनी। ये जेपी की तीसरी सबसे बड़ी गलती थी। अक्षम और अकर्मण्य लोगों को अपने हित के लिए सत्तासीन कर दिया जबकि इन्दिरा गांधी के खिलाफ भाषणों में “सिंहासन खाली करो जनता आती है” का नारा लगाते थे। उनके इस नारे के कारण जनता आई और संघर्ष भी किया, लेकिन सिंहासन पर स्थान उन्होंने दुर्योधन और कौरवों को ही दिया। जयप्रकाश नारायण ने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में किसी भी दिग्गज को इंदिरा गांधी की जगह लेने के लिए पेश नहीं किया। यह आंदोलन इस बात पर नहीं टिका कि सत्ता में आने पर उसका मंत्रिमंडल क्या होगा। उनके पास सत्ता में आने के बाद का कोई रोडमैप नहीं था। इनमें से किसी पर भी ज्यादा विचार नहीं किया गया, जिसकी कीमत 1980 में इंदिरा गांधी के सत्ता में वापस आने पर आंदोलन ने चुकाई। जनता वापिस चली गयी.. लालफ़ीताशाही का वर्चस्व बढ़ा.. जनता पार्टी में सत्ता हिस्सेदारी का संघर्ष बढ़ा। मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह एक दूसरे से राजनीतिक वर्चस्व के लिए इतने संघर्षरत हुए कि देश पर उनका ध्यान ही नहीं रहा। राजनीतिक दलाली बढ़ी और इतना ही नहीं, यहीं से इन्दिरा की वापसी के लिए बड़े जनमत से सत्तासीन करने की नींव भी पड़ी।
जयप्रकाश नारायण ने देश में तीन दंश को जन्म दिया
जेपी ने एक और गलती की जिसकी चर्चा आवश्यक है क्योंकि उनकी इस गलती का दंश देश आज भी झेल रहा है। जयप्रकाश नारायण ने अपने राजनीतिक स्वार्थ और इन्दिरा शासन के प्रति वैयक्तिक दुराग्रह हेतु अपने आंदोलनो में कुछ ऐसे सिद्धान्त और विषबेल पनपने दिये जिस कारण भारत आज भी कमजोर हो रहा है और सतत गर्त की ओर गमन कर रहा है। जेपी ने देश में तीन दंश को जन्म दिया- जातिवाद, क्षेत्रवाद और वंशवाद और साथ ही साम्यवाद को नई ऊंचाई दी। शायद, उदाहरण से और भी स्पष्ट हो जाएगा। जेपी आंदोलन से ही जातिवाद और वंशवाद के पुरोधा लालू यादव, राम विलास पासवान और मुलायम सिंह यादव निकले। क्षेत्रवाद के प्रणेता चंद्रबाबू और रघुवंश बाबू भी उन्हीं की देन हैं। उन्होंने वंशवाद और जातिवाद के ऐसे सिद्धान्त को पल्लवित किया जो भारत को आने वाले समय में और भी कमजोर करेगा। नितीश कुमार, शरद यादव तथा सुशील मोदी उन्हीं की देन हैं, जिन्होंने बिहार को ऐसे समाजवाद की पेंच में फंसाया कि आने वाले कई वर्षों तक बिहार इस समाजवाद की जकड़ से बाहर नहीं आ पाएगा।
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सामाजिक न्याय और विकास के नाम पर जनता को छलने और एक अकर्मण्य शासक को सत्तारूढ़ करने के अलावा जयप्रकाश नारायण ने कुछ नहीं किया। क्षमा करिएगा जेपी आप एक उत्कृष्ट आंदोलनकारी हो सकते हैं परंतु आपकी लोकनायक की छवि पर संदेह है। आप आदर्शवादी हो सकते हैं परंतु यथार्थवादी होने पर संदेह है। आप देशभक्त और गांधीवादी भी हो सकते हैं परंतु आपके राष्ट्रवादी होने पर संदेह है। आप सिर्फ एक साम्यवादी हैं जिन्होंने जनता को मूर्ख बनाकर अपने अहंकार की पूर्ति की और वंशवाद, क्षेत्रवाद तथा जातिवाद का सृजन किया। आपकी समकालीन सोच और दूरदृष्टि सदा सर्वदा संदेह के घेरे में रहेगी। आपके द्वारा भारतीय राजनीति को तो जनता के संघर्ष से मथा गया परंतु, उससे सिर्फ हलाहल निकला। हे भारतीय राजनीति के भीष्म!! आप जीवन में अनवरत युद्धरत रहे परंतु सिर्फ कौरवों के लिए।