कन्हैया कुमार! यह नाम सुनते ही भारत के लोगों के जेहन में JNU सबसे पहले आता है। फिर याद आती है JNU की वह शाम जिसमें कुछ युवा भारत के टुकड़े होने का नारा लगा रहे थे। यह वह शाम थी जिसके बाद से देश में दो-तीन नाम सभी के जुबान पर चढ़ गए। उन नामों में कन्हैया कुमार का नाम प्रथम था। उस घटना के बाद से लेकर कुछ दिनों पूर्व कन्हैया कुमार के कांग्रेस में शामिल होने तक, मीडिया का एक वर्ग उन्हें इस तरह से पेश करता है, जैसे उन्होंने कितना बड़ा काम कर दिया है तथा कितने बड़े राजनीतिक नेता हैं, जिसके भाषण से दर्जनों के भाव में लोकसभा क्षेत्र और विधानसभा क्षेत्र के परिणाम बदल जाते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि चुनाव में जीतना तो दूर, उनकी जमानत तक जब्त होने की नौबत आ चुकी थी। ऐसे में अगर यह कहा जाए कि कन्हैया कुमार एक Over-celebrated underachiever हैं तो यह विशेषण किसी भी कोण से यह गलत नहीं होगा। जिस तरह प्रशांत किशोर एक ओवररेटेड रणनीतिकार हैं, कन्हैया कुमार उसी के राजनीतिक प्रारूप हैं।
देखा जाए तो कन्हैया कुमार ने जीवन में देश विरोधी नारे लगाने के अलावा कुछ किया नहीं हैं। न ही एक छात्र, न ही एक शोधार्थी और न ही एक राजनीतिक जननेता, किसी भी रूप में कन्हैया कुमार का विश्लेषण किया जाए तो रिपोर्ट Zero ही आएगी।
कन्हैया कुमार के जीवन पर प्रकाश डाला जाए तो वे पटना से ही अखिल भारतीय छात्र परिषद (AISF) के सदस्य थे जो CPI की स्टूडैंट विंग है। दिल्ली आने के बाद 2015 में उन्होंने JNU में छात्रसंघ का चुनाव लड़ा और अध्यक्ष पद के लिए चुने गए। फिर आया फरवरी 2016 जब उन्होंने आतंकी अफजल गुरु के समर्थन में रैली निकाली और देश के टुकड़े-टुकड़े होने का नारे लगाया। यहीं से वामपंथी मीडिया ने उन्हें अपनी पलकों पर बैठा लिया और वे NDTV के रविश कुमार से लेकर The Wire तक के चहेते बन गए। हालांकि, देश विरोधी नारे के लिए उन पर मामला दर्ज हुआ लेकिन 2 मार्च 2016 में अंतरिम जमानत पर रिहा कर दिया गया।
और पढ़ें- भारत ने भारी-भरकम FDI के साथ वैश्विक रेटिंग एजेंसियों के मिथक को तोड़ दिया है
10 मार्च 2016 को, यह पता चला कि अक्टूबर 2015 में, कन्हैया पर JNU प्रशासन द्वारा एक छात्रा के साथ “दुर्व्यवहार” करने और उसे “धमकी देने” के लिए जुर्माना लगाया गया था। रिपोर्ट्स के अनुसार कन्हैया कथित तौर पर जून 2015 में खुले में पेशाब कर थे और जब उन्हें रोका गया था वे गाली-गलौज करने लगा। उस व्यवहार का विरोध करने वाली छात्रा को उन्होंने धमकाया भी।
उनका चर्चित होना, लेफ्ट ब्रिगेड के लिए संजीवनी के समान था। लेफ्ट पार्टियों और उनके समर्थकों को लगा कि उन्हें कन्हैया के रूप में पीएम मोदी को चुनौती देने वाला मिल गया। परंतु उन्हें नहीं पता था कि कन्हैया कुमार JNU की डिग्री के साथ राहुल गांधी साबित होंगे। यही हुआ, जिस तरह से India Today राहुल गांधी की 5 बार वापसी करा चुका है, वैसे ही कन्हैया को भी लुटियन से समर्थन मिला; लेख लिखे गए, समय-समय पर इंटरव्यू लिया गया, जिससे जनता के बीच कन्हैया कुमार का नाम गूँजता रहे, परंतु कहते हैं न ढाक के तीन पात।
29 अप्रैल 2018 को, वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) की पार्टी राष्ट्रीय परिषद के लिए चुने गए। बाद में 2019 में, उन्हें CPI राष्ट्रीय कार्यकारी परिषद में शामिल किया गया। तब तक लुटियन्स ने कन्हैया कों एक ऐसे नेता के रूप में पेश कर दिया था तो पीएम मोदी कों चुनौते देने के लिए चुनावी मैदान में उतरने के लिए तैयार था। लेफ्ट ब्रिगेड द्वारा देश में इतना हवा बना दिया गया कि अब यह कन्हैया की मजबूरी थी कि वह चुनाव में उतरे। 2019 के आम चुनाव में कन्हैया कुमार ने बेगूसराय से चुनाव लड़ने का फैसला किया।
और पढ़ें- एलन मस्क का उतरा नकाब : क्या Elon Musk वास्तव में PayPal के कोफाउंडर थे?
भारत में राजनीति करना कोई बच्चों का खेल नहीं है, आप सिर्फ नकारात्मक लोकप्रियता पर चुनाव नहीं जीत सकते। आप दिल्ली की लुटियन्स मीडिया द्वारा चने के झाड़ पर चढ़ाये जाने के बावजूद जमीनी स्तर पर लोगों से नहीं जुड़ सकते हैं। यही कन्हैया कुमार के साथ हुआ। NDTV और The Wire के साथ चार इंटरव्यू कर लेने से आप बेगुसराए का चुनाव नहीं जीत सकते, वह भी गिरिराज सिंह जैसे दिग्गज जमीनी स्तर से जुड़े जननेता के खिलाफ।
बिहार के साथ ही सबसे हॉट सीट मानी जाने वाली बेगूसराय पर सबकी नजरें थीं क्योंकि यहां पर एक तरफ भाजपा के वरिष्ठ नेता गिरिराज सिंह थे, तो दूसरी तरफ खुद को ‘नेता नहीं बेटा’ बताने वाले कन्हैया कुमार थे। चुनाव परिणाम आने से पहले कुछ राजनीतिक पंडित इस सीट पर गिरिराज और कन्हैया के बीच कड़ी टक्कर बता रहे थे लेकिन जब नतीजे आए तो सभी मुंह छिपाते नजर आए। गिरिराज सिंह ने बिहार की बेगूसराय सीट पर 42,2217 वोटों के बड़े अंतर से चुनाव जीता, जबकि कन्हैया कुमार तो इस रेस में बिलकुल पिछड़े हुए नजर आये।
यही नहीं कन्हैया को बेगुसराय स्थित अपने गांव बिहट से भी निराशा ही मिली। वहीं कन्हैया के लिए प्रचार करने स्वरा भास्कर, जावेद अख्तर जैसी कुछ बॉलीवुड हस्तियां भी पहुंची थीं लेकिन कोई भी कामयाब नहीं हुआ। स्पष्ट है कि उनके ही गांव के लोग भी उनकी देश विरोधी हरकतों से अच्छे से वाकिफ थे और यही वजह है कि किसी ने भी कन्हैया को महत्व नहीं दिया। ‘बाहरी बनाम स्थानीय’ के नारे को बुलंद किए हुए कन्हैया कुमार की कोई रणनीति काम नहीं आई और उन्हें बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा।
और पढ़ें: 37,400 करोड़: IBC की ओर से इस साल NPA की सबसे बड़ी वसूली है
अब हालात ऐसे हो गए हैं कि अपनी प्रासंगिकता बचाने के लिए उसी कांग्रेस के दामन का सहारा लेना पड़ रहा है जिसके लिए वह कुछ वर्षों पहले तक सभी प्रकार के नकारात्मक विशेषण प्रयोग करते थे। इस राजनीतिक अवसरवादिता से तो यह भी अंदाजा लगाया जा सकते हैं कि वह अपनी प्रासंगिकता बचाने के लिए BJP में भी शामिल हो सकते हैं। भारत में सार्वजनिक जीवन कों दागरहित रखते हुए प्रासंगिकता बनाए रखना उतना ही कठिन है जितना चीन में जिनपिंग के खिलाफ बोलकर बच जाना। जनता न तो राष्ट्रद्रोह को भूलती है और न ही स्टेज पर से दिये गए राष्ट्रप्रेम के विरुद्ध भाषणों को। इसी का परिणाम है कि कन्हैया कुमार कों दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही है। यह विफलता है कन्हैया की; उनकी विचारधारा की; कम्युनिस्ट पार्टी की; तथा लुटियन्स मीडिया की। उनके कैरियर ग्राफ में एक भी ऐसी उपलब्धि नहीं हैं कि वह जनता को दिखा सके जिससे उन पर कोई भरोसा करे। जिस तरह प्रशांत किशोर ने सिर्फ जीतने वाली पार्टियों पर ही दांव लगा कर अपने आप को चुनावी रणनीतिकार घोषित किए हुए हैं, उसी प्रकार कन्हैया कुमार लुटियन्स द्वारा चढ़ाये गए झाड़ पर खड़े हो कर अपने आप को जननेता बता रहे हैं। कन्हैया कुमार सभी जगह पर Over-celebrated underachiever ही रहे हैं जिन्हें खूब बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया चाहे वो छात्र नेता के रूप में हो या एक नेता के रूप में लेकिन वास्तविकता में फिसड्डी।